शुक्रवार, 5 मार्च 2010

यहां के राम कौन हैं? आदर्श स्थिति क्या है और आदर्शवाद क्या है?

एक व्यक्ति खुद की तुलना अभिमन्यु से करते हैं। यहां इस ब्लाग जगत में स्वयंभु अभिमन्यु कौन है? यहां के राम कौन हैं? आदर्श स्थिति क्या है और आदर्शवाद क्या है? किसी वस्तु या किसी चीज को अतिरेक कर प्रस्तुत करना कुछ समझ में नहीं आता, वह भी अति शुद्ध हिन्दी भाषा में। भारत की सड़कों पर, चाहे मुंबई हो या दिल्ली, कहां, किसे फुर्सत है कम कपड़ों में चलने की। कपड़ों का पहनना सहजता के तौर पर होता है। कहीं-कहीं ऐसा हो सकता है कि पहनावे से तुलना की जाये। जहां तक सवाल है, तो हमाम में सब नंगे हैं। बाथरूम में हर कोई नंगा होता है। हर कोई जानता है कि मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया क्या होती है? यहां बहस भारतीय परिवेश की हो रही है। इसे पाश्चात्य सभ्यता से जोड़कर देखना कुछ हद तक बहस को मोड़ने का प्रयास है। बहस इन चीजों पर हो कि ये पहनावा कोई एक दिन में तो आया नहीं। न ही कोई किसी को जबर्दस्ती कर सकता है। ये स्वेच्छा की चीज है। क्या संस्कृति का सरदर्द जबर्दस्ती थोपा जा सकता है? संस्कृति और संस्कार समय के साथ बदलते जाते हैं। हम ये नहीं कहते कि नंगई उचित है, लेकिन भारतीय परिवेश अभी तक उस हद तक नंगई को नहीं छू रहा। सवाल ये है कि जो आज की पीढ़ी सूचना विस्फोट के युग में पश्चिमी सभ्यता के सांचे में ढलती जा रही है, उससे आप भारतीय संस्कृति के किस रूप को अख्तियार करने की अपेक्षा करते हैं। अभी भी नयी पीढ़ी बड़ों को प्रणाम और छोटों को प्यार बोलती है, वही कोई कम नहीं है क्या? बहस को रॉकेट रूपी इंजन में जोड़कर प्रशांत महासागर के पार पहुंचाने का प्रयास समझ में नहीं आता। जिसे अपनी डगर से डोलना होगा, वह डोल ही जाएगा और जो
खुद की इज्जत करेगा, वह कभी अपने पथ से नहीं डोलेगा। प्रयास ये होना चाहिए कि आदर्शवाद की जगह चरित्र के मजबूत होने की बात पर जोर डाला जाये। उपदेशक की भूमिका में कहूं, तो संयमी होने पर जोर रहे। संयम, त्याग और वसुधैव कुटुंबकम के जो नारे हैं, उन्हें जेहन में बैठाइये। बेसिक बात यही है, जिस दिन इन चीजों को नयी पीढ़ी के दिलो दिमाग में उतार दीजिएगा, तो पहनावे का झगड़ा ही टल जाएगा। ऊपर के कपड़े
तो बदले जा सकते हैं, लेकिन दिलो दिमाग पर छायी गंदगी या मैल को दूर करने के लिए एरियल जैसी सफाई की जरूरत है, जो बिना कष्ट पहुंचाए सफेदी ले आये। चाल और चरित्र की बात कीजिए। ये पहनावे, लज्जा और शर्म के मुद्दे तो तालिबानी लफ्फाज लगते हैं। हम क्यों संस्कृति के ठेकेदार बनें। हम सोच को सही रास्ते पर लाने का प्रयास करें,  बाकी खुद ब खुद ठीक हो जाएगा।ो

गुरुवार, 4 मार्च 2010

अरे बंदर है क्या..

बचपन में शरारतें करते देखकर प्यार से लोग प्यार से उलाहने भरते

अरे बंदर है क्या..

हमने अपने स्टेटस में लिखा-हम सबके अंदर-है एक बंदर

बंदर हमें अपनी हरकतों से अपनी ओर खींचता है। कुछ-कुछ मजा आता है। उसकी फुर्ती लाजवाब होती है। पलभर में यहां से वहां। मैं उसकी हरकतों की तुलना खुद के मन से करता हूं। वह भी इसी प्रकार छटपटाता रहता है। कभी इस डाल-कभी उस डाल। हम कितने भी काबिल बन जाएं, लेकिन कभी भी छिछोरापन नहीं छोड़ते। अगर खुली छूट मिल जाए, तो जहां चाहे हाथ मार देते हैं। उसको रोकने के लिए एक ऐसे लीडर की जरूरत महसूस होती है, जो हमारे ऊपर निगरानी रख सके। हमें राह दिखा सके।

क्या उसका नाम बता सकते हैं?

क्या ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत में हमारी रैंकिंग क्या है, इसी से हम अच्छे या बुरे लिक्खाड़ माने जाएंगे?

आज एक नया सवाल
क्या ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत में हमारी रैंकिंग क्या है, इसी से हम अच्छे या बुरे लिक्खाड़ माने जाएंगे।

हमें लगता है कि हम एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास क्यों करें? विचारों का सम्मान होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं। व्यक्ति बेहतर विचार से महान होता है। वैसे आपकी राय क्या है?

बुधवार, 3 मार्च 2010

नारीवादी समर्थकों से सवाल है कि उनका मुहं तब क्यों नहीं खुलता, जब खुद नारी ही नारी की शोषक होती है।

नारी समर्थकों और सौंदर्य समर्थकों की नोक-झोंक के बीच में बेनामी महाराज का कूदना, कुछ ऐसा लगा जैसे नारद मुनि देवलोक से उतर आये  हों। पिनका-पिनका कर बहस को आगे बढ़ा रहे थे। सारे दोस्तों ने दामिनी नामक फिल्म जरूर देखी होगी। दामिनी एक महिला रहती है। उसी महिला के फिल्म में डायलॉग रहते हैं कि मां की छाती से बालक दूध निचोड़ कर पीता है और बड़ा होता है। मां के पेट में जीवन जन्म लेती है। ये भी प्रकृति की अद्भुत देन है कि स्त्री ही मां भी बन सकती है। दुर्गा सप्तशती में एक जगह मां से ऐसी पत्नी देने की प्रार्थना की जाती है, जो इस भवसागर को पार करा दे। स्त्री के कई रूप होते हैं-मां, बहन, भाभी, दोस्त आदि। उन्मुक्त होते समाज में शायद बहस की धार में ये संबंध खोते मालूम होते हैं

कहते हैं कि जब पेट की आग शांत रहती है, तभी सेक्स प्रकरण की समझ भी दिमाग में घुसती है। वैसे में जब संतुष्टि के स्तर से ऊपर उठकर व्यक्ति सोचना शुरू करता है, तभी दैहिक सुंदरता के बारे में भी सोच विकसित होती है। सवाल ये है कि हम कहां रहते हैं या रहना पसंद करते हैं। जंगल में जंगल के कानून के साथ या परिवार में शिष्टाचार के दायरे में।

जब हम कहते हैं कि फलां-फलां अभिनेत्री ने कहा कि हममें सेक्स अपील है, तो क्या हम इस बात का उल्लेख पारिवारिक दायरे में कर सकते हैं। यही से सवाल उपजते हैं कि हम कितने खुले हैं। अगर हम खुले हैं, तो हममें एड्स जैसे विषय पर बात करने में संकोच क्यों रहता है? जब एड्स जैसे विषय या बीमारी को लेकर बहस करेंगे और बात चलाएंगे, तो एक ऐसा व्यापक फलक उभरेगा कि आप उसमें भुतला जाएंगे। क्योंकि ये कोई सिर्फ बीमारी नहीं है, बल्कि समाज के बिगड़ते समीकरण का वह जीवंत दस्तावेज है, जहां से हमारी बुनियाद दरकनी शुरू हो गयी है। ये हमें हमारे समाज की सही तस्वीर उपलब्ध कराती है

 शायद अरविंद जी ने एक जगह सवाल उठाया था कि किसी अभिनेत्री ने कहा है कि हमें सेक्सी कहलाना अच्छा लगता है। सवाल ये है कि क्यों अच्छा लगता है। सेक्स अपील क्या है? क्या सेक्स अपील, किसी को सहज तौर पर आकर्षण है या कुछ और। उसी तरह सुंदरता, ताजा हो या बासी, सुंदरता होती है। मर्यादा में सुंदरता के मायने कुछ और होते हैं। संदर्भ के साथ कही गयी चीजों के मायने कुछ और होते हैं। हम लौटकर वहीं आते हैं कि हमारी बहस की निजता क्या  ब्लाग के दायरे में है? हम मानसिक स्तर पर इतने गरीब हैं कि कमेंट्स के दौरान व्यक्तिगत सीमा के पार जाने से भी नहीं हिचकते।

हमने बहस के लिए जरूरी वैचारिक अमीरी को खो दिया है। अरविंद जी ने कहा-वी आर कन्फ्यूज्ड अ लॉट। या सर वी आर कन्फ्यूज्ड। वी आर कन्फ्यूज्ड बीकॉज वी डोंट नो हाउ वी शुड आरगु, सो दैट ए कंक्रीट रिजल्ट शुड अराइव। हमारी बहस हमारी नहीं होती। उसमें एक आवेग होता है। हम विषय की गहराई में नहीं जाना चाहते। हम ये नहीं जानना चाहते हैं कि सेस्कुअल फंतासी की दुनिया गोवा जैसे राज्य में क्या हाल कर रही है? न जाने कितनी सामाजिक वर्जनाएं रोज ब रोज टूट रही हैं। 

नारीवादी समर्थक उन तमाम दिक्कतों और समस्याओं को लेकर भी आग उगलें, जिसके कारण स्त्री को मात्र वस्तु मानकर छोड़ दिया गया है। पुरुषों को नैतिकता का पाठ पढ़ाकर कितनों में सुधार लाया जायेगा। नारीवादी समर्थकों से सवाल है कि उनका मुहं तब क्यों नहीं खुलता, जब खुद नारी ही नारी की शोषक होती है। प्रश्न गंभीर है। बस बात वही है कि हमें बस कुछ कहना है, तो हम कह देते हैं। हमारे सामने विषयवस्तु की संपूर्ण रेखा साफ नहीं होती। वैसे नारीवादी समर्थक भी सोचेंगे जरूर।

मंगलवार, 2 मार्च 2010

क्या किसी ब्लाग पर विषय से अलग महिला की तस्वीर लगाना उचित है?

क्या किसी ब्लाग पर विषय से अलग महिला की तस्वीर लगाना उचित है?

पूरी स्थिति जानने के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।

 इसमें व्यवस्था पर प्रहार तो किया गया है, लेकिन महिला की तस्वीर को पोस्ट में लगाना कहीं से उचित नहीं मालूम पड़ता है। क्या ये भी ब्लाग की टीआरपी बढ़ाने का कहीं हिस्सा तो नहीं।


हमने पोस्ट में टिप्पणी भी दी थी, शायद मॉडरेटर उसे प्रकाशित न करें। हमने उन्हें लिखा कि महिला की तस्वीर और विषय में कोई संबंध नहींष ब्लाग एक सार्वजनिक मंच है। क्या इसका उचित इस्तेमाल नहीं होना चाहिए?

सोमवार, 1 मार्च 2010

शशि थरूर जी आपका अगला बयान क्या है?



शशि थरूर क्या हैं और कौन हैं, सब जानते हैं। उनकी संयुक्त राष्ट्र में बतौर अधिकारी की पारी को भी हम गर्व से याद करते हैं। अहा जिंदगी में शशि की जिंदगानी की कहानी को पढ़ा था। उसमें उन्होंने बताया था कि वह पढ़ने में काफी तेज थे। काफी तेज। उनके संयुक्त राष्ट्र में व्यापक अनुभव के बाद हम लोग भी मंत्रमुग्ध थे। अब भी हैं, लेकिन शशि के बयानों ने उनके विरोधियों के तेवर सख्त कर दिये हैं। कभी-कभी लगता है कि शशि थरूर थ्री इडियट्स के रैंचो हैं। उनके पास हर समस्या का समाधान है। बताइये, उन्होंने सऊदी अरब से मध्यस्थता कराने की बात कर दी। विदेश नीति के बात करनेवाले थरूर सीधे तौर पर तीसरे पक्ष की भागीदारी की बात कर रहे हैं। क्या गजब का खेल है? एक अमेरिका और चीन ही विदेश नीति को प्रभावित करने के लिए काफी हैं, वहीं अब तीसरी पार्टी के रूप में सऊदी अरब की बात कर क्या मुसलिम देशों की गुटबंदी को मजबूत करने की ओर कदम बढ़ाने की वकालत नहीं है। थरूर उस राजकुमार सरीखे लगते हैं, जो सोने की चमच्च के साथ पैदा हुए और जिन्हें व्यावहारिक दुनिया का जरा सा भी भान नहीं है। वैसे थरूर में कुछ है। कभी-कभी लगता है कि वे सिस्टम से हटकर बातें करते हैं। वे समाधान की बात सामान्य तरीके से हटकर करते हैं। शायद वे जिस अभिजात्य शैली में शासकीय और डिप्लोमैसी के गुण सीखकर आये हैं, उसमें राजनीतिक दृष्टिकोण का तरीका अलग है। वे टि्वट करते हैं। खुलकर कह जाते हैं। दिल की बात करते हैं। एक बात कहें, तो शशि भारतीय राजनीति एक अलग क्रांति कर रहे हैं। अनायास ही वे लीक से हटकर बयान देकर बहस को वह मंच प्रदान कर रहे हैं, जहां असलियत खुद परदे से बाहर आ जाती है। भारतीय राजनेता तो मीठी जुबान और परदे की राजनीति करने में माहिर हैं, लेकिन शशि सीधे और सपाट बोल जाते हैं।
असलियत बोल जाते हैं। वे कैटल क्लास विवाद में भी सही बात बोल गए थे। बात वही है कि असलियत सामने आ जाती है। ऐसे में थरूर को गलत भी कह सकते हैं या सही भी। वैसे अब वे भारतीय राजनीति के राजकुमार सरीखे हो गये हैं, जिन पर आधी मीडिया का ध्यान हैं। एक शब्द में कहें, तो अब थरूर के अगले बयान का इंतजार है।