tag:blogger.com,1999:blog-90600845570090978542024-03-05T01:21:15.940-08:00हम लोगों की दुनियाहम लोगों की दुनिया अनोखी है। यहां हर पल कुछ होता रहता है, अच्छा और बुराप्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.comBlogger71125tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-52715317566957905622010-03-05T21:39:00.000-08:002010-03-05T21:39:00.365-08:00यहां के राम कौन हैं? आदर्श स्थिति क्या है और आदर्शवाद क्या है?एक व्यक्ति खुद की तुलना अभिमन्यु से करते हैं। यहां इस ब्लाग जगत में स्वयंभु अभिमन्यु कौन है? यहां के राम कौन हैं? आदर्श स्थिति क्या है और आदर्शवाद क्या है? किसी वस्तु या किसी चीज को अतिरेक कर प्रस्तुत करना कुछ समझ में नहीं आता, वह भी अति शुद्ध हिन्दी भाषा में। भारत की सड़कों पर, चाहे मुंबई हो या दिल्ली, कहां, किसे फुर्सत है कम कपड़ों में चलने की। कपड़ों का पहनना सहजता के तौर पर होता है। कहीं-कहीं ऐसा हो सकता है कि पहनावे से तुलना की जाये। जहां तक सवाल है, तो हमाम में सब नंगे हैं। बाथरूम में हर कोई नंगा होता है। हर कोई जानता है कि मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया क्या होती है? यहां बहस भारतीय परिवेश की हो रही है। इसे पाश्चात्य सभ्यता से जोड़कर देखना कुछ हद तक बहस को मोड़ने का प्रयास है। बहस इन चीजों पर हो कि ये पहनावा कोई एक दिन में तो आया नहीं। न ही कोई किसी को जबर्दस्ती कर सकता है। ये स्वेच्छा की चीज है। क्या संस्कृति का सरदर्द जबर्दस्ती थोपा जा सकता है? संस्कृति और संस्कार समय के साथ बदलते जाते हैं। हम ये नहीं कहते कि नंगई उचित है, लेकिन भारतीय परिवेश अभी तक उस हद तक नंगई को नहीं छू रहा। सवाल ये है कि जो आज की पीढ़ी सूचना विस्फोट के युग में पश्चिमी सभ्यता के सांचे में ढलती जा रही है, उससे आप भारतीय संस्कृति के किस रूप को अख्तियार करने की अपेक्षा करते हैं। अभी भी नयी पीढ़ी बड़ों को प्रणाम और छोटों को प्यार बोलती है, वही कोई कम नहीं है क्या? बहस को रॉकेट रूपी इंजन में जोड़कर प्रशांत महासागर के पार पहुंचाने का प्रयास समझ में नहीं आता। जिसे अपनी डगर से डोलना होगा, वह डोल ही जाएगा और जो<br />
खुद की इज्जत करेगा, वह कभी अपने पथ से नहीं डोलेगा। प्रयास ये होना चाहिए कि आदर्शवाद की जगह चरित्र के मजबूत होने की बात पर जोर डाला जाये। उपदेशक की भूमिका में कहूं, तो संयमी होने पर जोर रहे। संयम, त्याग और वसुधैव कुटुंबकम के जो नारे हैं, उन्हें जेहन में बैठाइये। बेसिक बात यही है, जिस दिन इन चीजों को नयी पीढ़ी के दिलो दिमाग में उतार दीजिएगा, तो पहनावे का झगड़ा ही टल जाएगा। ऊपर के कपड़े<br />
तो बदले जा सकते हैं, लेकिन दिलो दिमाग पर छायी गंदगी या मैल को दूर करने के लिए एरियल जैसी सफाई की जरूरत है, जो बिना कष्ट पहुंचाए सफेदी ले आये। चाल और चरित्र की बात कीजिए। ये पहनावे, लज्जा और शर्म के मुद्दे तो तालिबानी लफ्फाज लगते हैं। हम क्यों संस्कृति के ठेकेदार बनें। हम सोच को सही रास्ते पर लाने का प्रयास करें, बाकी खुद ब खुद ठीक हो जाएगा।ोप्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-7776873768485198142010-03-04T22:30:00.000-08:002010-03-04T22:30:59.727-08:00अरे बंदर है क्या..बचपन में शरारतें करते देखकर प्यार से लोग प्यार से उलाहने भरते<br />
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अरे बंदर है क्या..<br />
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हमने अपने स्टेटस में लिखा-हम सबके अंदर-है एक बंदर<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibJ3h30cG8T8ZInJY7_lfTVTGhxK3OqWbhU40MdEBUvYjaU0oa2fPm7FUl1GCdVsCSmzWxh7NXaDKDs7IZ_Hjc-l3wx1DzNlFrqAZCqOypMwe9654jMnrNkWJL7UJ9Y-xMeRM3ZBrg3G8/s1600-h/blow-monkey.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibJ3h30cG8T8ZInJY7_lfTVTGhxK3OqWbhU40MdEBUvYjaU0oa2fPm7FUl1GCdVsCSmzWxh7NXaDKDs7IZ_Hjc-l3wx1DzNlFrqAZCqOypMwe9654jMnrNkWJL7UJ9Y-xMeRM3ZBrg3G8/s320/blow-monkey.jpg" /></a></div>बंदर हमें अपनी हरकतों से अपनी ओर खींचता है। कुछ-कुछ मजा आता है। उसकी फुर्ती लाजवाब होती है। पलभर में यहां से वहां। मैं उसकी हरकतों की तुलना खुद के मन से करता हूं। वह भी इसी प्रकार छटपटाता रहता है। कभी इस डाल-कभी उस डाल। हम कितने भी काबिल बन जाएं, लेकिन कभी भी छिछोरापन नहीं छोड़ते। अगर खुली छूट मिल जाए, तो जहां चाहे हाथ मार देते हैं। उसको रोकने के लिए एक ऐसे लीडर की जरूरत महसूस होती है, जो हमारे ऊपर निगरानी रख सके। हमें राह दिखा सके।<br />
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क्या उसका नाम बता सकते हैं?प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-14596296822142701372010-03-04T09:25:00.001-08:002010-03-04T09:25:50.639-08:00क्या ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत में हमारी रैंकिंग क्या है, इसी से हम अच्छे या बुरे लिक्खाड़ माने जाएंगे?आज एक नया सवाल<br />
क्या ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत में हमारी रैंकिंग क्या है, इसी से हम अच्छे या बुरे लिक्खाड़ माने जाएंगे।<br />
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<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">हमें लगता है कि हम एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास क्यों करें? विचारों का सम्मान होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं। व्यक्ति बेहतर विचार से महान होता है। वैसे आपकी राय क्या है</span>?प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-38457333261955667152010-03-03T11:41:00.000-08:002010-03-03T11:41:20.318-08:00नारीवादी समर्थकों से सवाल है कि उनका मुहं तब क्यों नहीं खुलता, जब खुद नारी ही नारी की शोषक होती है।<b><span class="Apple-style-span" style="color: #cc0000;">नारी समर्थकों और सौंदर्य समर्थकों की नोक-झोंक के बीच में बेनामी महाराज का कूदना, कुछ ऐसा लगा जैसे नारद मुनि देवलोक से उतर आये हों। पिनका-पिनका कर बहस को आगे बढ़ा रहे थे</span></b>। सारे दोस्तों ने दामिनी नामक फिल्म जरूर देखी होगी। दामिनी एक महिला रहती है। उसी महिला के फिल्म में डायलॉग रहते हैं कि मां की छाती से बालक दूध निचोड़ कर पीता है और बड़ा होता है। <b><span class="Apple-style-span" style="color: #38761d;">मां के पेट में जीवन जन्म लेती है। ये भी प्रकृति की अद्भुत देन है कि स्त्री ही मां भी बन सकती है। दुर्गा सप्तशती में एक जगह मां से ऐसी पत्नी देने की प्रार्थना की जाती है, जो इस भवसागर को पार करा दे। स्त्री के कई रूप होते हैं-मां, बहन, भाभी, दोस्त आदि। उन्मुक्त होते समाज में शायद बहस की धार में ये संबंध खोते मालूम होते हैं</span></b>।<br />
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कहते हैं कि जब पेट की आग शांत रहती है, तभी सेक्स प्रकरण की समझ भी दिमाग में घुसती है। वैसे में जब संतुष्टि के स्तर से ऊपर उठकर व्यक्ति सोचना शुरू करता है, तभी दैहिक सुंदरता के बारे में भी सोच विकसित होती है। सवाल ये है कि हम कहां रहते हैं या रहना पसंद करते हैं। जंगल में जंगल के कानून के साथ या परिवार में शिष्टाचार के दायरे में।<br />
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जब हम कहते हैं कि फलां-फलां अभिनेत्री ने कहा कि हममें सेक्स अपील है, तो क्या हम इस बात का उल्लेख पारिवारिक दायरे में कर सकते हैं। यही से सवाल उपजते हैं कि हम कितने खुले हैं। <b>अगर हम खुले हैं, तो हममें एड्स जैसे विषय पर बात करने में संकोच क्यों रहता है? जब एड्स जैसे विषय या बीमारी को लेकर बहस करेंगे और बात चलाएंगे, तो एक ऐसा व्यापक फलक उभरेगा कि आप उसमें भुतला जाएंगे। क्योंकि ये कोई सिर्फ बीमारी नहीं है, बल्कि समाज के बिगड़ते समीकरण का वह जीवंत दस्तावेज है, जहां से हमारी बुनियाद दरकनी शुरू हो गयी है। ये हमें हमारे समाज की सही तस्वीर उपलब्ध कराती है</b>।<br />
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शायद अरविंद जी ने एक जगह सवाल उठाया था कि किसी अभिनेत्री ने कहा है कि हमें सेक्सी कहलाना अच्छा लगता है। सवाल ये है कि क्यों अच्छा लगता है। सेक्स अपील क्या है? क्या सेक्स अपील, किसी को सहज तौर पर आकर्षण है या कुछ और। उसी तरह सुंदरता, ताजा हो या बासी, सुंदरता होती है। मर्यादा में सुंदरता के मायने कुछ और होते हैं। संदर्भ के साथ कही गयी चीजों के मायने कुछ और होते हैं। हम लौटकर वहीं आते हैं कि हमारी बहस की निजता क्या ब्लाग के दायरे में है? हम मानसिक स्तर पर इतने गरीब हैं कि कमेंट्स के दौरान व्यक्तिगत सीमा के पार जाने से भी नहीं हिचकते।<br />
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हमने बहस के लिए जरूरी वैचारिक अमीरी को खो दिया है। <b>अरविंद जी ने कहा-वी आर कन्फ्यूज्ड अ लॉट। या सर वी आर कन्फ्यूज्ड। वी आर कन्फ्यूज्ड बीकॉज वी डोंट नो हाउ वी शुड आरगु, सो दैट ए कंक्रीट रिजल्ट शुड अराइव। हमारी बहस हमारी नहीं होती। उसमें एक आवेग होता है। हम विषय की गहराई में नहीं जाना चाहते। हम ये नहीं जानना चाहते हैं कि सेस्कुअल फंतासी की दुनिया गोवा जैसे राज्य में क्या हाल कर रही है? न जाने कितनी सामाजिक वर्जनाएं रोज ब रोज टूट रही हैं। </b><br />
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<b></b>नारीवादी समर्थक उन तमाम दिक्कतों और समस्याओं को लेकर भी आग उगलें, जिसके कारण स्त्री को मात्र वस्तु मानकर छोड़ दिया गया है। पुरुषों को नैतिकता का पाठ पढ़ाकर कितनों में सुधार लाया जायेगा। नारीवादी समर्थकों से सवाल है कि उनका मुहं तब क्यों नहीं खुलता, जब खुद नारी ही नारी की शोषक होती है।<b> प्रश्न गंभीर है। बस बात वही है कि हमें बस कुछ कहना है, तो हम कह देते हैं। हमारे सामने विषयवस्तु की संपूर्ण रेखा साफ नहीं होती। वैसे नारीवादी समर्थक भी सोचेंगे जरूर।</b>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-30263407696618637502010-03-02T20:55:00.000-08:002010-03-02T20:55:57.144-08:00क्या किसी ब्लाग पर विषय से अलग महिला की तस्वीर लगाना उचित है?क्या किसी ब्लाग पर विषय से अलग महिला की तस्वीर लगाना उचित है?<br />
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पूरी स्थिति जानने के लिए आप<a href="http://aavajyadavki.blogspot.com/2010/03/blog-post.html"> इस लिंक </a>पर जा सकते हैं।<br />
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इसमें व्यवस्था पर प्रहार तो किया गया है, लेकिन महिला की तस्वीर को पोस्ट में लगाना कहीं से उचित नहीं मालूम पड़ता है। क्या ये भी ब्लाग की टीआरपी बढ़ाने का कहीं हिस्सा तो नहीं।<br />
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हमने पोस्ट में टिप्पणी भी दी थी, शायद मॉडरेटर उसे प्रकाशित न करें। हमने उन्हें लिखा कि महिला की तस्वीर और विषय में कोई संबंध नहींष ब्लाग एक सार्वजनिक मंच है। क्या इसका उचित इस्तेमाल नहीं होना चाहिए?प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com42tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-33338383748710522512010-03-01T04:47:00.000-08:002010-03-01T04:47:54.010-08:00शशि थरूर जी आपका अगला बयान क्या है?<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj80n6K5ONVrKG1YXD9r2uYdm-loxHEc1g8T26kL0UWCJToeFaEn2fFs-uXncHWqk2odo5-q8v8nt76eYPFFmEN1hOcu4Yt_-kjwYI0k5UZsTn09RaXt6wNIW3sQ3wg9DSqPUePg-JH6c0/s1600-h/shashi-tharoor.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj80n6K5ONVrKG1YXD9r2uYdm-loxHEc1g8T26kL0UWCJToeFaEn2fFs-uXncHWqk2odo5-q8v8nt76eYPFFmEN1hOcu4Yt_-kjwYI0k5UZsTn09RaXt6wNIW3sQ3wg9DSqPUePg-JH6c0/s320/shashi-tharoor.jpg" /></a></div><br />
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शशि थरूर क्या हैं और कौन हैं, सब जानते हैं। उनकी संयुक्त राष्ट्र में बतौर अधिकारी की पारी को भी हम गर्व से याद करते हैं। अहा जिंदगी में शशि की जिंदगानी की कहानी को पढ़ा था। उसमें उन्होंने बताया था कि वह पढ़ने में काफी तेज थे। काफी तेज। उनके संयुक्त राष्ट्र में व्यापक अनुभव के बाद हम लोग भी मंत्रमुग्ध थे। अब भी हैं, लेकिन शशि के बयानों ने उनके विरोधियों के तेवर सख्त कर दिये हैं। कभी-कभी लगता है कि शशि थरूर थ्री इडियट्स के रैंचो हैं। उनके पास हर समस्या का समाधान है। बताइये, उन्होंने सऊदी अरब से मध्यस्थता कराने की बात कर दी। विदेश नीति के बात करनेवाले थरूर सीधे तौर पर तीसरे पक्ष की भागीदारी की बात कर रहे हैं। क्या गजब का खेल है? एक अमेरिका और चीन ही विदेश नीति को प्रभावित करने के लिए काफी हैं, वहीं अब तीसरी पार्टी के रूप में सऊदी अरब की बात कर क्या मुसलिम देशों की गुटबंदी को मजबूत करने की ओर कदम बढ़ाने की वकालत नहीं है। थरूर उस राजकुमार सरीखे लगते हैं, जो सोने की चमच्च के साथ पैदा हुए और जिन्हें व्यावहारिक दुनिया का जरा सा भी भान नहीं है। वैसे थरूर में कुछ है। कभी-कभी लगता है कि वे सिस्टम से हटकर बातें करते हैं। वे समाधान की बात सामान्य तरीके से हटकर करते हैं। शायद वे जिस अभिजात्य शैली में शासकीय और डिप्लोमैसी के गुण सीखकर आये हैं, उसमें राजनीतिक दृष्टिकोण का तरीका अलग है। वे टि्वट करते हैं। खुलकर कह जाते हैं। दिल की बात करते हैं। एक बात कहें, तो शशि भारतीय राजनीति एक अलग क्रांति कर रहे हैं। अनायास ही वे लीक से हटकर बयान देकर बहस को वह मंच प्रदान कर रहे हैं, जहां असलियत खुद परदे से बाहर आ जाती है। भारतीय राजनेता तो मीठी जुबान और परदे की राजनीति करने में माहिर हैं, लेकिन शशि सीधे और सपाट बोल जाते हैं।<br />
असलियत बोल जाते हैं। वे कैटल क्लास विवाद में भी सही बात बोल गए थे। बात वही है कि असलियत सामने आ जाती है। ऐसे में थरूर को गलत भी कह सकते हैं या सही भी। वैसे अब वे भारतीय राजनीति के राजकुमार सरीखे हो गये हैं, जिन पर आधी मीडिया का ध्यान हैं। एक शब्द में कहें, तो अब थरूर के अगले बयान का इंतजार है।प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-92066132311109929122010-02-28T04:31:00.000-08:002010-02-28T04:31:48.893-08:00ये होली खुशियां लाये...<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqpK7JMv_MVqVEYBAkpzA0XuUJZ3eBYYsuxQSRHaXlyES5iIrwlxTE6P2UUlunqt8kzqcxI_mBGM9z6jdMZ17k1D4WOHZrW_9A16ht37JtBqq6g6cT-8am8mMNRozd-jlBaSezESYBZco/s1600-h/happy+holi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqpK7JMv_MVqVEYBAkpzA0XuUJZ3eBYYsuxQSRHaXlyES5iIrwlxTE6P2UUlunqt8kzqcxI_mBGM9z6jdMZ17k1D4WOHZrW_9A16ht37JtBqq6g6cT-8am8mMNRozd-jlBaSezESYBZco/s320/happy+holi.jpg" width="320" /></a></div><span class="Apple-style-span" style="color: #333333; font-family: Georgia, serif; font-size: 13px; line-height: 20px;">ये होली खुशियां लाये। दुख के काले रंगों पर खुशी के हजारों रंगों के छींटे पड़ें। आपकी जिंदगी रंग-बिरंगी हो, रहे और ये जिंदगी गुजरती रहे</span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-13294214710617645792009-12-03T09:21:00.000-08:002009-12-03T09:28:09.250-08:00मुझे तुमसे मोहब्बत... है... , क्या कहें, क्या करें...<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4QmRJOJQZ57KRyUhHIFH2iVxkxRXXxReUuBeOmRoKkg91jvdB1W_s9j0s9w4VqxdNmVFMMEI6gI-FwM3L0IrKumDDDQd8oxZdFKuy-elDQ2wIRH6REg8V7uiLmgTUShh78ZclvmU_GG0/s1600-h/de-dana-dan.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 242px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4QmRJOJQZ57KRyUhHIFH2iVxkxRXXxReUuBeOmRoKkg91jvdB1W_s9j0s9w4VqxdNmVFMMEI6gI-FwM3L0IrKumDDDQd8oxZdFKuy-elDQ2wIRH6REg8V7uiLmgTUShh78ZclvmU_GG0/s400/de-dana-dan.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5411062737750795234" /></a><br /><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;font-size:small;">कैटरीना कैफ और अक्षय कुमार पर फिल्माया गया गाना मुझे तुमसे मोहब्बत... है... , क्या कहें, क्या करें... वाला हाल है। निश्चित रूप से हॉल में दर्शक खींचने के लिए बनाया गया है। ठीक है...। बेटा फिल्म का गाना माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर पर फिल्माया गया, वह भी काफी बेहतर संगीत, नृत्य और सेंसिटीवनेस को लिये हुए था। गीतों की पैकेजिंग होती है। गीत और उसकी लय फिल्मों का भविष्य बताती हैं। फिल्म चलेगी या नहीं, ये सभी बातें गीत बता देती है। इन सब चीजों से अलग एक बात सोचनेवाली होगी कि गीत के माध्यम से लोगों के दिलों में उतरने की कोशिश कैसी होती होगी? कैसी? रोमांचित करती होगी... या फिर उनमें प्रोफेशनलिज्म होता होगा। कोई आदमी अगर दिल से काम न करे, तो शब्द, तेवर और लय की ट्यूनिंग सेट हो ही नहीं पायेगी। बिंदास अंदाज भी होना चाहिए। बिंदासपन, जिसमें सेंसिटीवनेस हो, लेकिन उन्मुक्तता की चरमता नहीं। उन्मुक्त होने के बाद भी मॉडरेट या थोड़ा सभ्य लगे। कहना नहीं चाहिए, कैटरीना के पास ये सबकुछ है। सबकुछ जो कि टॉप पर रहनेवाली हीरोइनों में होना चाहिए। ऐसा नही होता तो, आमिर भी उनके साथ गुरुदत्त-वहीदा की जोड़ी की नकल करने के लिए आगे नहीं आते। हेलेन की नजाकत की आज तक कोई नकल नहीं कर पाया और न ही नृत्य की उनकी तेज शैली को उतार पाया। अंदाज में बिंदासपन था, लेकिन लय ऐसी कि आप सौम्यता की प्रतिमूर्ति माने। कम से कम मुझे तुमसे मोहब्बत है... गीत और उसकी शैली प्रभावित तो करती ही है। दे दना दन के हिट होने के लिए पहली सीढ़ी साबित होगी या हो चुकी है.। दे दनादन...</span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-37354666587366396802009-11-26T23:40:00.000-08:002009-11-26T23:41:25.725-08:00हमरा लेख जनसत्ता में<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiEUf3WfTXSSrLptkDN_jdvRmJc6FsfwztbmZDcMWdJNw6ghF4JHpDqvIP68PjjVt9iVzi9cUEcCWx5AyNK5RULy-xEZ3Cwv4tuMLBRB-D3g7OvbvPQiQFKWO1Ayc2r2wjFomOiTQwBBM/s1600/ham-logon-ki-duniya-blog-print.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 275px; height: 400px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiEUf3WfTXSSrLptkDN_jdvRmJc6FsfwztbmZDcMWdJNw6ghF4JHpDqvIP68PjjVt9iVzi9cUEcCWx5AyNK5RULy-xEZ3Cwv4tuMLBRB-D3g7OvbvPQiQFKWO1Ayc2r2wjFomOiTQwBBM/s400/ham-logon-ki-duniya-blog-print.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5408685226207825090" /></a>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-37199513760432917872009-11-22T03:45:00.000-08:002009-11-22T04:06:54.358-08:00आज भी कंपा जाती है वह रात... (श्रद्धांजलि लेख मृतकों के नाम)<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkR-xcOm0AUbF0QA2UxWcdBB4S1S8N19jgMDQDXDJIS_oQfaXB6qSK-0Y0DvwOIWFulRF_4Sa-Pl-Gp7ePnY9_ONFOtxV4t4UQEmWNFfPObLU60dymPX1X2EiwW5MLIeHh_323hyqTdiE/s1600/mumbai-taj-420-420x0.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 336px; height: 400px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkR-xcOm0AUbF0QA2UxWcdBB4S1S8N19jgMDQDXDJIS_oQfaXB6qSK-0Y0DvwOIWFulRF_4Sa-Pl-Gp7ePnY9_ONFOtxV4t4UQEmWNFfPObLU60dymPX1X2EiwW5MLIeHh_323hyqTdiE/s400/mumbai-taj-420-420x0.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5406897846587636962" /></a><br /><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;font-size:small;"><i>ठीक एक साल पहले, २६ नवंबर की रात ११ बजे काम के बाद घर को विदा होने को थे। शांत रात, सर्द मौसम और सिकुड़ता देह बता रहा था कि शरीर कंबल की गरमी पाने को बेचैन है। तभी न्यूज चैनल पर मुंबई में गोली चलने की आवाज सुनाई पड़ी थी। बस यूं ही उत्सुकता बस मुरिया उठा के देखे कि क्या मामला है? शुरू में मामला सतही लगा। सतही बिलकुल सतही. ये नहीं पता था कि उस गोली की आवाज हिन्दुस्तान के शरीर में नासूर के जख्म देने जा रही है। जिसका दर्द आज तक एक साल के बाद साल रहा है। आधे घंटे बाद घर आया, तो चैनलों पर तूफान मचा था। तूफान, ऐसा तूफान, जिसे आतंकवाद का सुनामी कहें, तो अच्छा होगा। ताज होटल के कोरिडोर और रेलवे स्टेशन पर आतंकियों द्वारा गोलियों की बौछार की खबर धड़कनें तेज कर दे रही थी। पूरी रात या यूं कहें भोर के चार बजे तक पूरी कहानी देखते रह गए। वह काली स्याह रात कभी भी जेहन से नहीं मिटेगी। मन आज भी धिक्कारता है। धिक्कारता है-बार-बार कि इस देश के लोग किस तरह के हो गए। ये दुनिया किस तरह की हो गयी। उसके बाद बयान, पलट बयान का सिलसिला चलता रहा। जो आज तक जरूरी है। </i></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap;font-size:small;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;font-size:small;"> उस रात लिखी गयी मेरी पोस्ट... </span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;font-size:small;"> <b><a href="http://gap-shapkakona.blogspot.com/2008/11/blog-post_26.html">WEDNESDAY, NOVEMBER 26, 2008 </a></b></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;font-size:small;"><b><a href="http://gap-shapkakona.blogspot.com/2008/11/blog-post_26.html"><span class="Apple-style-span" style="color:#000000;">मुंबई-२६ नवंबर-रात के डेढ़ बजे-आतंकी हमला</span></a></b></span></div><div><ul><li><span class="Apple-style-span" style=" font-weight: bold; white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;"><a href="http://gap-shapkakona.blogspot.com/2008/11/blog-post_26.html"><span class="Apple-style-span" style="color:#000000;"> आफिस से लौटा हूं। ११ बजे के बाद से मुंबई में आतंकी हमलों की खबरों ने होश उड़ा कर रख दिया है। मुंबई में हुई आतंकी घटना हमारे मुंह पर एक तमाचा है। तमाचा उन पॉलिटिशियन्स के मुंह पर भी, जिन्होंने मालेगांव बम विस्फोट के आगे-पीछे के सारे दूसरे विस्फोटों को दरकिनार कर दिया था। तमाचा उन संगठनों पर जो साध्वी प्रकरण को लेकर ऐसी हाय-तौबा मचा रहे थे कि जैसे वे भूल गये हैं कि पिछले दो सालों में बड़े शहरों में हुए बम विस्फोटों में कितने लोग मारे गये। हिन्दू आतंकवाद के नाम का ढिंढोरा पीटकर जिस प्रकार संकुचित मानसिकता का परिचय दिया जा रहा था, उससे आम जनमानस हतप्रभ था और है। मुंबई, देश का इकोनॉमिक कैपिटल है। वहां आतंकी होटलों में तांडव मचाते हैं। खून की होली खेलते हैं और पुलिस की जीप को कब्जे में कर भागने की कोशिश करते हैं। हालात ऐसे बन गये हैं कि मुंबई में सेना को बुलाने की बात हो रही है। शमॆ, शमॆ, शमॆ... सिफॆ यही बात मुझे अपने इस तंत्र के लिए कहने को रह गयी है। देर रात डेढ़ बजे तक ६० लोगों की मौत की खबर थी। इन हालातों के बाद अब देश की केंद्र सरकार के पास जवाब देने के लिए कौन सी बात रह गयी है। मैं बेचैन हूं। मुंबई में एसीपी अशोक काम्टे और हेमंत करकरे की मौत की खबर थी। बताया जा रहा था कि कई एटीएस के अधिकारी भी इस आतंकी मुठभेड़ में घायल हुए हैं। ये सरकार और हमारे सुरक्षा तंत्र की विफलता है। ये सरकार जब मुंबई में सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती है, तो पूरे देश की रक्षा की बात करना बेमानी है। आतंकवाद का कोई धमॆ नहीं होता। इसे इस सरका<span><span></span></span>र को जान लेना चाहिए। सिफॆ हिन्दू आतंकवाद के नाम पर आतंकवाद की अन्य घटनाओं को नजरअंदाज कर देना ही सुरक्षा तंत्र को विफलता के घेरे में पहुंचाने के लिए काफी है। ये आतंकवाद सीमा पार से आया है या देश के अंदर से, इसे पहचान कर उसे खत्म करने की जरूरत है। इस बार होटलों और आम लोगों को खुलेआम निशाना बनाया गया है। आपका और हमारा मुंबई असुरक्षित हो गया है। इस मुंबई को सबसे बड़ा खतरा राजनीतिक उदासीनता से लग रहा है। राजनीतिक उदासीनता ऐसी है कि यहां के पॉलिटिशियन्स को सिफॆ और सिफॆ अपने स्वाथॆ नजर आता है। २६ नवंबर की रात आतंकियों ने पुलिस को अपाहिज कर दिया। मुंबई पुलिस कुछ नहीं कर सकी। अपने होनहार अफसरों को खो दिया। होटलों में लगातार धमाकों के बाद आतंकियों ने देश की आत्मा को झकझोरा है।</span> प्रस्तुतकर्ता PRABHAT GOPAL पर 12:19 PM </a></span></li></ul><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><b><span class="Apple-style-span" style=" ;font-size:small;"><span class="Apple-style-span" style="color:#003300;">मैं आतंकियों की गोली के शिकार हुए लोगों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे</span></span><span class="Apple-style-span" style=" font-weight: normal; font-size:small;">।</span></b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style=" ;font-size:small;"><b><a href="http://gap-shapkakona.blogspot.com/2008/11/blog-post_27.html">एक होनहार युवक, जिसकी आतंकियों की गोली ने ले ली थी जान. </a></b><a href="http://gap-shapkakona.blogspot.com/2008/11/blog-post_27.html">(इसे २७ नवंबर की रात लिखा गया था।)</a></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Trebuchet, 'Trebuchet MS', Arial, sans-serif;font-size:100%;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 20px;font-size:13px;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style=" white-space: normal; line-height: 20px; font-family:Trebuchet, 'Trebuchet MS', Arial, sans-serif;font-size:13px;">आज मेरा अवकाश था। लेकिन मुंबई में आतंकवादी घटनाओं के बाद दफ्तर में बुला लिया गया। खबरों की बाढ़ और बेहतर अखबार छापने का जुनून हर पत्रकार के चेहरे पर हमसाया था। विचलित मन, कठोर दिमाग और मुट्ठियां भिंचकर पल-पल खबरों की टीवी से जानकारी लेते हुए सब अपने काम में लगे हुए थे। इसी में एक खबर मेरी नजर से होकर गुजरी। आदत के अनुसार सरसरी तौर पर खबर को पढ़ डाला। लेकिन वह सरसरी भरी निगाह एक युवक की मुंबई में मौत की खबर पढ़कर चौकन्नी हो गयी। फिर घबराहट,विकलता और व्याकुलता का दौर १४-१५ मिनट तक दिल और दिमाग पर हावी रहा। क्या करें, क्या नहीं, समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि जिस युवक की मौत हुई थी, वो मेरे परिचित का बेटा था। नाम था मलयेश बनरजी। खुद मेरे गुरु रहे डॉ मान्वेंद्र बनरजी का बेटा था। डॉ बनरजी स्थानीय रांची कॉलेज के ख्यातिप्राप्त शिक्षक हैं। उस लड़के की छह दिसंबर को शादी होनेवाली थी। बुधवार को जब घर में उसकी मौत की खबर मिली, तो कोहराम छा गया। मलयेश एक होनहार युवक था। वह एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। अपने माता-पिता की एकमात्र संतान मलयेश काफी तेज छात्र था। उसने आइआइटी खड़गपुर से इंजीनियरिंग और उसके बाद मैनेजमेंट की पढ़ाई की थी। बुधवार को होटल ताज में कंपनी के उच्चाधिकारियों के साथ बैठक करने के बाद मलयेश अपने तीन दोस्तों के साथ होटल के सामने स्थित नरीमन प्लाइंट पर कॉफी हाउस में गया था। इसी बीच अचानक आतंकियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। एक गोली मलयेश की जांघ में लग गयी। पहले उसे एक अस्पताल और बाद में जेजे अस्पताल ले जाया गया, लेकिन काफी खून बह जाने के कारण उसकी मौत हो गयी। इस आतंकी हमले ने एक होनहार युवक को हमारे बीच से छीन लिया। इस आतंकी हमले का असर अब हमारे जीवन पर साफ नजर आ रहा है। आज रात मुझे नींद नहीं आयेगी। पिछले ४८ घंटे इसी आत्ममंथन में बीत गये हैं कि इन नेताओं के जुमले सुन-सुनकर क्या हम इसी तरह जीते चले जायेंगे।<br />इस हमले में जो जवान शहीद हुए और जो निदोॆष मारे गये, उन लोगों की आत्मा की शांति के लिए प्राथॆना करता हूं। प्राथॆना ताज होटल के जीएम और उनके परिवार के लिए भी करता हूं, जिन्हें आतंकियों ने अपनी गोली का शिकार बना डाला। ये आतंक का खेल कब रुकेगा, समझ में नहीं आता। मेरी आंखें भर आयी हैं। अब चाहे इस हमले का हम कितना भी विश्लेषण कर लें, लेकिन उस मां को क्या उसके दो बेटे दिला पायेंगे, जो कि इस हमले में मारे गये हैं। भावनाएं उमड़ रही हैं, लेकिन इन भावनाओं को नियंत्रित करना ही होगा। चलिये शहीदों और मारे गये लोगों की आत्मा की शांति के लिए फिर से प्राथॆना करें।<br /><br /><em>घर लौटा, तो मलयेश की शादी के काडॆ पर नजर पड़ी। उस काडॆ पर मेरे हाथ स्वतः चले गये। ये उस शादी का काडॆ था, जो कभी नहीं होगी। बस ये याद दिलायेगी कि एक आतंकी हमले ने एक ऐसी जिंदगी छीन ली, जो किसी के घर या किसी मुहल्ले को रौशन करता था। पता नहीं.... इस देश के लोगों को क्या-क्या झेलना होगा।</em><div style="clear: both; "></div><div id="lws_0"><div class="linkwithin_outer" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; clear: both; "><div class="linkwithin_inner" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; width: 358px; "></div></div></div></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Trebuchet, 'Trebuchet MS', Arial, sans-serif;font-size:100%;color:#333333;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 20px;font-size:13px;"><i><br /></i></span></span></div></div><div><span class="Apple-style-span" style=" color: rgb(51, 51, 51); font-family:Trebuchet, 'Trebuchet MS', Arial, sans-serif;font-size:13px;"></span></div>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-54421693961439994282009-11-18T11:56:00.000-08:002009-11-18T11:57:38.035-08:00पहल तो खुद से ही करनी होगी।<span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; white-space: pre-wrap;">घुघूती बासूती नेट के दुष्प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। नेट के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जायज है। आज-कल इसे लेकर एक सब चिंता जाहिर कर रहे हैं। हालिया इंडिया टुडे के अंक में इस पर विशेष रपट भी है। लेकिन जब हर पांच घरों में से एक में नेट उपलब्ध हों, तो अब इस पर चिंता जाहिर करना चाय पीने पर चिंता जाहिर करने जैसा लगता है। हमें याद है कि नेट के आने से पहले या इ-क्रांति से पहले ऐसी पत्रिकाओं की भरमार रहती थी या कहें जंगल बाजार था, जिनसे बच्चों को दिग्भ्रमित होने के पूरे मौके होते थे। शायद अब भी होते होंगे, लेकिन नेट क्रांति ने उनका बाजार समेट कर रख दिया है। चिंता इस बात को लेकर जाहिर की जाती है कि नेट पर बच्चे कहीं किसी गलत चीज या सूत्र पर तो हाथ नहीं डाल रहे। लेकिन चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि आज-कल के मां-बाप के पास अपनी संतान के लिए वक्त क्यों नही है? सामाजिकता के दायरे में बंधने से बच्चों को रोकने की पहल क्यों की जाती है? नेट को बस वर्किंग कल्चर तक समेटने तक ठीक है, लेकिन जिस दिन ये सामान्य जीवनचर्या को प्रभावित करने लगता है, उस दिन ये समझ लेना चाहिए कि पानी सर से ऊपर गुजर चुका है। हमें ये नहीं समझ में आता कि सामान्य बच्चे को नेट डेढ़-दो घंटे से ज्यादा समय बिताने की अनुमति कैसी दी जा सकती है? वैसे मामला सामाजिक सुरक्षा का भी है। कुकुरमुत्ते की तरह उग आये साइबर कैफे निगरानी की जद से बाहर रहते हैं। ऐसे में उन पर निगहबानी उतनी आसान नहीं रहती। इसलिए जरूरत नेट पर निर्भरता को कम करने के साथ-साथ कैफे जैसी जगहों पर भी नजर रखने की है कि कहीं आपका लाल बिगड़ तो नहीं रहा। खतरा है, पर खतरे को बढ़ाने के जिम्मेदार भी माता-पिता हैं। वे बच्चों के प्रति हद से ज्यादा लगाव के शिकार हैं, जिससे बच्चे अनुशासनहीन और बिगड़ैल होते जाते हैं। बाप या मां की कड़ी नजर प्रभावित नहीं करती और वे नेट पर दो से बढ़ाकर चार-पांच घंटे तक दिन के ज्यादातर समय बिताते हैं। पहल तो खुद से ही करनी होगी। </span></span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-14219870767530390722009-11-17T11:26:00.000-08:002009-11-17T11:27:26.216-08:00पान दुकान भी सुनसान नजर आने लगे हैं<span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; font-size: small; white-space: pre-wrap; ">जब से टीवी कल्चर आया है। हर परिवार आधुनिकता के पायदान पर चढ़ता जा रहा है। इसमें पान खाने की संस्कृति में गिरावट ही आयी है। हमारे मिथिला में तो पान संस्कृति जड़ में समायी रहती है। लेकिन हमारे जैसे लोग, जो लगातार बाहर रहे, उन्होंने पान की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। पान दुकान कल्चरल सेंटर हुआ करती थी। हर मुहल्ले की पान दुकान उन सो कॉल्ड लोगों की अड्डेबाजी या टाइम पास का स्थान हुआ करता था, जो निठल्ला चिंतन किया करते थे। घर में बैठे-बैठे समय नहीं कटता था, तो पान की दुकान पर बतकही कर आते थे। ये भी अपने आप में जीवनशैली का खासा अंग हुआ करता था। लेकिन जब से आधुनिक होते जा रहे समाज का रंग बदलने लगा है, अब पान दुकान भी सुनसान नजर आने लगे हैं।पान दुकान पर सचिन की बल्लेबाजी से लेकर साहित्य और अमेरिकी चुनाव तक की चर्चा हो जाया करती थी। वहां से गुजरते हुए न जाने कितने रश्ते या तो नए हो जाया करते थे या नए बन जाते थे। पान की दुकान उन चुनिंदा जगहों में शामिल हुआ करती थी, जहां गप्पबाजी अपने चरम पर होती थी। वहां गूंजती ठहाकों और बहसों की आवाज कार की पों-पों का शोर दब जाता था। पान दुकान के मालिकों के रौब के तो क्या कहने? वे गहरे सामाजिक सरोकार रखनेवाले शख्सियत के रूप में तब्दील हो जाते थे। क्योंकि पान की दुकान पर गरीब, अमीर से लेकर छात्र तक हरे रंग की पत्ती का स्वाद चखने आया करता था। अब भी पान की दुकान चौक-चौराहों पर लगती है, लेकिन उनमें वो रौनक गायब है। या तो पान खानेवाले कम हो गए हैं या इसके कई विकल्प तलाश लिये गये हैं। पान खाने की संस्कृति में बदलाव हमारे संस्कारों में बदलाव को बयां करता है। कैसे, ये तो शोध का विषय है। वैसे भी घर में आये लोगों का स्वागत सिर्फ चाय से करने की लत ने तो खेल को और बिगाड़ डाला है।</span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-75389853439432715222009-11-16T21:38:00.000-08:002009-11-16T21:41:33.130-08:00अभिव्यक्त करो, लेकिन अंदाज बदल कर<span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;font-size:12px;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaEN-ZZx-gm0A6IdADiI26m4vxQXXSbZkAanX4dLNTLpeHbJCwzPpqkntkf1vlaf4jcN_NhVMPDb_IRIEl6cX0HoaSGH09wfxVKvUyDhNPMofAkDkCg8dATbvmiZNXwDzwrfyvFNC-vmw/s1600/flower.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaEN-ZZx-gm0A6IdADiI26m4vxQXXSbZkAanX4dLNTLpeHbJCwzPpqkntkf1vlaf4jcN_NhVMPDb_IRIEl6cX0HoaSGH09wfxVKvUyDhNPMofAkDkCg8dATbvmiZNXwDzwrfyvFNC-vmw/s320/flower.gif" /></span></a><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></div><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">आज-कल एक एडवर्टाइजमेंट में लड़की के चेहरे पर साटी गयी मूंछ उसके पुत्र के जन्म के समय तक जारी रहती है। यानी जन्म-जन्म का साथ देता प्रोडक्ट बताता है कि उसकी चिपकाहट में इतनी ताकत है कि वह छूटती ही नहीं। यहां बताने का तरीका भा जाता है।</span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;color:#FF0000;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br /></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span style="color:red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">वे आफ एक्सप्रेशन एक कला है।</span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> किसी चीज को आप कैसे बताते हैं? अभिव्यक्ति, सुंदर अभिव्यक्ति सबके बस की बात नहीं है। </span><span style="color:#38761d;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">लोग कहते काफी कुछ हैं, बस सिर्फ अंदाज काफी कुछ बदल देता है।</span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> उस अंदाज में जो बदलाव की शक्ति होती है, वह ये बताने के लिए काफी होती है कि आखिर इस अभिव्यक्ति का उद्देश्य क्या है? टारगेट क्या है? </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">कभी-कभी कोई अपने मन की बात कहने के लिए मौत तक का इंतजार करते रह जाते हैं, वहीं कोई-कोई इस मामले में रनों की झड़ी लगा देते हैं। उनकी बातें लोगों को लुभा जाती हैं। मामला ये है कि आखिर ये गुणवत्ता आती कहां से है? कहां से</span><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">।</span></span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br /></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="color:#351c75;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">जिंदगी भर तकिये पर आराम से सर टिका कर सोचते रहने से तो नहीं ही आती। </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">थोड़ी बुद्धि भिड़ाइये, तो पायेंगे कि इसके कुछ सूत्र आपके आसपास ही हैं। </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span style="color:#741b47;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">कभी पानी में </span></span><b><span style="color:#741b47;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">छपाक-छपाक</span></span></b><span style="color:#741b47;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> की आवाज संगीतकारों के लिए संगीत बन जाती है, तो हमारे लिये सर दर्द... बस मामला वही सोचने भर का है कि कैसे आप सोचते हैं? किस स्तर पर सोचते हैं? हम जो सोचते हैं कि अंततः वही तो हमें अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है। </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> बच्चों से बात करते समय हम बच्चों के स्तर पर सोचते हैं क्या? शायद नहीं। हम बस उन्हें अपनी अवस्था के समकक्ष मानकर अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य करते हैं। वहां भी दबिश के सहारे स्वतंत्र अभिवयक्ति को दबाने की कोशिश होती है। </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;color:blue;"><span style="white-space: pre-wrap;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></b></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;color:#0000FF;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br /></span></b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><b><span style="color:blue;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">अभिव्यक्ति तो नदी की अविरल धारा के समान है, जिसे यदि रोकने की कोशिश हुई, तो वह प्रदूषित ही होगी। इसलिए उसे रोकना गुनाह है। उसे बहने दीजिए। धीरे-धीरे ही सही, वह जब आकार लेगा, तो उसकी चमक देखकर आप खुद चौंधिया जाएंगे।</span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></b></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></b></span></span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br /></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;"><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><b></b></span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><b><span style=" font-weight: normal; white-space: normal;font-family:'Times New Roman';"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर किसी को मिलनी चाहिए।..</span></span></b></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWylDqnpFwydaEY1UXrKE6c_R-HuH9eBODGN9VzbtpszQLgot5-vCmcQmRrUWNA3jdD1TMSig1frPLkexiFjkGI-39h1D55zSHzm6UJ4tVoUM824IiJ3eb6uno8gYE3_wJs90eqAyjs_w/s1600/rain-drop.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWylDqnpFwydaEY1UXrKE6c_R-HuH9eBODGN9VzbtpszQLgot5-vCmcQmRrUWNA3jdD1TMSig1frPLkexiFjkGI-39h1D55zSHzm6UJ4tVoUM824IiJ3eb6uno8gYE3_wJs90eqAyjs_w/s320/rain-drop.jpg" /></span></a><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></div><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">लेकिन इसी स्वतंत्रता का दुरुपयोग जब लोग करने लगते हैं, तो माहौल में ऋणात्मक ऊर्जा का समावेश हो जाता है। लोगों की विचारधारा उलट जाती है। दुनिया बदरंग हो जाती है। मेघ काले हों, तो नहीं बरसने तक डरावने लगते हैं, लेकिन बरसात शुरू हो जाने के साथ हमारा डर खत्म हो जाता और हम उस रिमझिम बारिश में आनंद उठाना चाहते हैं। जिंदगी का मजा लेना चाहते हैं। यही तो भावना, प्रेम या कहें अपने अंदर के दर्शन को जताने का एक बहाना होता है। </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span><span style="font-family:Mangal;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br /></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap; font-family:monospace;"><span style=" white-space: pre-wrap;font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">फिल्में भी विरह की आग में जल रहे नायक-नायिका के मिलन के लिए इन्ही बरसाती रिमझिम का सहारा लेती हैं। न जाने कितनी बार, कितने तरीके से बारिश के दृश्य फिल्माये गये हैं। अब तो आमिर भी करीना के साथ परदे पर भींगते नजर आये हैं। तूफान मचा है, मचने दो, होने दो, जो होता है, वाला नजरिया इनमें अभिव्यक्त होता है। यानी वही अंदाज सबकुछ बदल देता है। अंदाज हमें भी बदल देता है। कभी थोड़ा-कभी ज्यादा</span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:monospace;font-size:100%;"><span class="Apple-style-span" style=" line-height: 15px; white-space: pre-wrap;font-size:12px;"><br /></span></span></div></div>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-41475340528934301222009-11-14T18:45:00.000-08:002009-11-14T18:48:50.369-08:00ये शख्स परेशान सा क्यूं है?<span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; font-size: small; white-space: pre-wrap; ">एक शख्स खुद की जिंदगी पर किताब लिखे जाने से परेशान है। जाहिर है कि किताब भी किसी खास व्यक्तिगत संबंध रखनेवाले व्यक्ति ने लिखी होगी। वह शख्स मशहूर है। उसकी जिंदगी की कुछ ऐसी बातों को दुनिया के सामने लाया गया है, जो कि मीडिया या कहें लोगों में रुचि पैदा करती हैं। मैं व्यक्तिगत स्तर पर सोचता हूं कि क्या मैं खुद के बारे में किसी को कुछ लिखने की अनुमति दूंगा। किसी ऐसे शख्स को भी नहीं, जिसके साथ मेरे काफी व्यक्तिगत संबंध हैं। हर व्यक्ति की जिंदगी उसकी अपनी होती है। आदमी के जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। उसमें लोग जीते हैं, मरते हैं और गलतियां करते हैं। कुछ दिनों पहले आंद्रे अगासी ने बीते वक्त की कुछ बातों को उजागर किया था, जो ठीक नहीं था। लेकिन ऐसा कर क्या व्यक्तिगत जिंदगी को व्यक्तिगत रहने देने के उस पहलू का आप उल्लंघन नहीं कर रहे हैं, जिस पर सभ्यता का अनुशासन और विचारधारा की नींव टिकी है। निष्पाप कोई नहीं होता, शायद भगवान भी नहीं। उसमें किताबों के सहारे किसी की जिंदगी या खुद की जिंदगी को जगजाहिर करना कुछ ऐसा है, जैसे तकिया के चिथड़े उडा़कर रूई को बिखेर देना। बीती जिंदगी तो उस तकिया के सामान है, जिस पर हम अपनी यादों का बोझ आराम से रखकर आगे की जिंदगी सुकून से जीते हैं। उस सुकून में कंकड़ फेंकने की कोशिश कुछ नागवार गुजरती है। किसी की व्यक्तिगत जिंदगी को व्यक्तिगत रहने देने के हम हिमायती हैं। हम किसी के राजदार या हमराज हो सकते हैं, लेकिन उसकी जिंदगी के किस्से को चटखारे लेकर परोसना गलत है। क्यों किसी की जिंदगी को चर्चा का विषय बनाएं? क्यों? मकसद तो सिर्फ एक ही नजर आता है, पैसा और नाम कमाना। निजता का सम्मान सबसे बड़ा सम्मान है। किसी की जिंदगी उसकी अपनी होती है। उसे भी उस अपनी जिंदगी को सरेबाजार नीलाम करने का हक नहीं। अब अगर कोई कर बैठे, तो आंसुओं के सैलाब में खुद को डूबा लें, ये दुखद तो है ही।</span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-62818642459276367842009-11-13T23:09:00.000-08:002009-11-13T23:19:08.450-08:00माया कैलेंडर, दुनिया की २०१२ में तबाही और डरना मना है...<span style="font-style:italic;"><span style="font-style:italic;"><span style="font-weight:bold;"><span style="font-style:italic;"><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIofZSKuM9qe5oIbWcTQ1zdH-z7xuHW-CUzhWM7kutOr5FgR7B6yl_9toFVYcB0TatG4FwILqGICwsxab6pS9Ljf96XzThAfHttilwGZjT69f2yCEX-xrykhxAztkYbHxNYY01gCt9RvA/s1600-h/2012_tsr_500.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 270px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIofZSKuM9qe5oIbWcTQ1zdH-z7xuHW-CUzhWM7kutOr5FgR7B6yl_9toFVYcB0TatG4FwILqGICwsxab6pS9Ljf96XzThAfHttilwGZjT69f2yCEX-xrykhxAztkYbHxNYY01gCt9RvA/s400/2012_tsr_500.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5403853644585589826" /></a><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><b><i><br /></i></b></span><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">माया सभ्यता के कैलेंडर के हिसाब से २०१२ में दुनिया का खात्मा हो जायेगा। हालीवुड में एक फिल्म इसी पर </span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">बनी</span></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;"> है। दहशत, विनाश और सृष्टि के खात्मे की कहानी रोमांचित करती है। हम कल्पनाएं करते हैं, डरते हैं और एक डर को जीते रहते हैं। हमारे भीतर का डर हमें हमेशा से आगे बढ़ने से रोकता है। फिल्मों के सुपर हीरो हमें विनाश से बचाते रहे हैं</span><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">।</span></span></span></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;"><br /></span></span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">८०-९० का दौर एलियंस से भयभीत रहनेवाला दौर था। न जाने कितने रिसर् पेपर प्रस्तुत हो गए होंगे। हर पत्रिका में एलियंस या कहें अंतरिक्ष से आये लोगों के बारे में लेख मिला करते थे। हम डरते रहे। इस पर भी हॉलीवुड में फिल्में बनीं और धरती को बचाने की कसमें खायी जाती रहीं। हमारे फिल्मकारों ने हमारे भय को समझ लिया है, खासकर हालीवुडवालों ने। उन्होंने इसका एक विशेष बाजार बनाया है और उस पर करीब एक हजार करोड़ की लागत तकवाली फिल्में बना रहे हैं।</span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;"><br /></span></span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">चैनल माया कैलेंडर के हिसाब से विनाश की कहानी उकेर कर अपनी टीआरपी बढ़ाते चलते हैं। ये तो हम भी नहीं जानते कि कब क्या होगा? लेकिन जब माया कैलेंडर के हिसाब से दुनिया २०१२ में खत्म हो जाएगी, तो उसके हिसाब से डर की अनोखी दुनिया स्वतः तैयार हो रही है। डर की जिंदगी जीते हम घुप्प अंधेरे में २०१२ की त्रासदी देखेंगे। जिन लोगों ने सुनामी देखा या महसूस किया होगा या मुंबई की बरसात को झेला होगा, उनके लिए वह फिल्म रिएलिटी के करीब होगी। लेकिन प्रकृति या नेचर की इस दुश्मनी के लिए क्या हम जिम्मेवार नहीं हैं, क्या हमें भी खुद को दोषी नहीं मानना चाहिए। हमने पूरी सृष्टि की काया को पलटने की जोर लगा रखी है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ इस कदर है कि अंटार्कटिका जैसे प्रदेश पर खतरा मंडरा रहा है।</span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;"><br /></span></span></span></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:Mangal;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;"><span class="Apple-style-span" style="font-style: normal;"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">मौत के करीब पहुंचती हमारी जिंदगी सभ्यता के विनाश की कहानी को नहीं झेल सकती है। वह इस माया के साथ जिंदा रहना चाहती है कि उसकी समृद्धि को उसके पोते-परपोते भोगें। लेकिन मेरा मानना है कि भगवान ने इस प्रकृति या सृष्टि को क्षमा करने की अनोखी क्षमता है। वह हमारी हर गलती को क्षमा करती रही है। २०१२ की फिल्मी कहानी फिल्मी ही रहेगी और हम ऐसे ही जीते रहेंगे। हमारा यही मानना है, डर की दुनिया को बाय-बाय करने से</span> <span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">पहले हम तो यही बोलेंगे-डरना मना है</span><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal;">।</span></span></span></span></div><span style="font-style:italic;"></span></span><span style="font-style:italic;"></span></span></span></span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-20700269236003089692009-11-13T19:10:00.000-08:002009-11-13T19:18:53.107-08:00कृपा करके अपनी अंगरेजी सुधारें, खुद को सुधारें और नाहक विवाद ना करें<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">वंदे मातरम गाने को लेकर बहस जारी है। एक भाई साहब </span><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; white-space: pre-wrap; "><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">ने अपनी पोस्ट का शीर्षक दिया है </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">कि एक भी भारतीय मुसलमान देशभक्त नहीं है। </span><a href="http://hamarianjuman.blogspot.com/2009/11/no-indian-muslim-is-patriostic.html"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">उनकी अंगरेजी पर जरा गौर करें पैट्रियोटिक को पैट्रियोस्टिक लिख डाला। (no-indian-muslim-is-patriostic) </span></a><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><span class="Apple-style-span" style="color:#009900;">भाई साहब आपने ये क्या कर डाला</span>? भाई साहब फरमाते हैं..<br /><br /></span><span class="Apple-style-span" style="color:#CC0000;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">जो लोग वन्दे मातरम को लेकर इतना शोर कर रहे है उनमें से किसको "वन्दे मातरम" मुंह ज़बानी याद है??? किसको उसका अर्थ याद है??? भारत के किस शख्स ने "वन्दे मातरम" के अर्थ को अपनी ज़िन्दगी मे उतारा है??? "वन्देमातरम" हो, "जन गण मन" हो, या "सारे जहां से अच्छा" कौन इनके ऊपर अमल कर रहा है??? सबको बस हराम का पैसा चाहिये एक छोटा सा डाकिया भी कोई ज़रुरी कागज़ देने के लिये बीस से तीस रुपये मांगता है और जब भी कोई बेवकुफ़ उलेमा कोई फ़तवा देता है तो यही लोग देशभक्त और देशप्रेमी बनकर खडे हो जाते है गाली देने के लिये!<br /></span></b></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><br /></span><b><span class="Apple-style-span" style="color:#009900;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">यहां किसी प्रकार के विवादों से अलग सिर्फ ये सवाल करना है कि आप कैसे पूरे जनसमूह में से या कहें पूरी जमात में से ये सर्वे कर बैठे हैं कि किसे वंदेमातरम, जन गण मन या सारे जहां से अच्छा याद है </span></span></b><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; white-space: pre-wrap; "><b><span class="Apple-style-span" style="color:#009900;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">या नहीं</span></span></b></span><b><span class="Apple-style-span" style="color:#009900;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">।</span></span></b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"> भाई साहब पूर्वाग्रह को त्यागकर साफ मन से अंदर झांकें, तो पाएंगे कि आप भी इसी मिट्टी के हैं। बाहर से लोग आये लोग जब इस हिंद के हो गए, तो आप तो इस देश के नागरिक है। </span><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">नाहक विवाद कर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का ये तरीका कुछ जमता नहीं दिख रहा है। </span></b><div><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><br />काफी सारे सवाल हैं, काफी जवाब हैं, क्या आप बता सकते हैं या सलाह दे सकते हैं कि हम इस देश में कैसे अमन और शांति बहाल कर सकते हैं। </span><b><span class="Apple-style-span" style="color:#990000;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">अबू आजमी साहब वहां महाराष्ट्र में हिन्दी के लिए जंग लड़ रहे हैं, तो वे भी इसी देश के नागरिक हैं। हिन्दी मातृभाषा है। उसके अधिकार के लिए एक संघर्ष किया जा रहा है। धर्म, भाषा के विवाद ने इस देश को बर्बाद करके रख दिया है। </span></span></b></div><div><span class="Apple-style-span" style="color:#990000;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><br /></span></b></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">हमें तो एक बात जानने की बार-बार इच्छा होती है कि क्या किसी धर्म में ये बताया जाता है कि आप दूसरे पर लगातार दोषारोपण करते रहें। </span><span class="Apple-style-span" style="color:#CC0000;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">काफी दिनों से देख रहा हूं कि पसंदवाली ब्लागवाणी की सूची में विवादोंवाले ब्लाग की पट्टियां शीर्ष स्थान पर रहती हैं। अब आप ही सोचिये कि ये किस स्तर को इंगित करता है। गुजारिश यही है कि नाहक विवाद पैदा न करें। जिद ना ही करें, तो अच्छा है। क्योंकि हम सब भाई हैं और रहेंगे। </span></b></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="color:#CC0000;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><br /></span><div style="text-align: right;"><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(0, 0, 0); font-weight: normal; "><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">जय हिंद</span></span></div></b></span></div>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-61739627900908879122009-11-13T11:14:00.000-08:002009-11-13T11:16:56.902-08:00बचपन की तस्वीर कई मायनों में अलग हो गयी हैआज बाल दिवस है। स्कूलों में कार्यक्रम होंगे। एक साल फिर बीत जाएगा। २-३ साल के बच्चे स्कूल जाना शुरू कर रहे हैं। उनसे उनकी जिंदगी छीनी जा रही है। फ्लैट सिस्टम में रहते हुए कोई कम्युनिकेशन सिस्टम नहीं विकसित होता है। बच्चे अपने आप में बड़े हो रहे हैं। हम अपनी कॉलोनियों के इर्द-गिर्द कॉलोनियां बसते देखते हैं। देख रहे हैं कि जहां पहले सात-आठ मैदान थे बच्चों के खेलने के लिए, आज वहां कंक्रीट के जंगल हैं। बच्चों से प्यार जताने की औपचारिकता से ऊपर उठकर सोचनेवाले लोग कम हो गए हैं। बच्चे समय से पहले बड़े हो जा रहे हैं। शोधों में पाया जा रहा है कि बचपन और जवानी की दहलीज के बीच की किशोरावस्था गायब हो जा रही है। व्यावहारिक होते जा रहे बच्चों में सादगी नहीं दिखती। स्वकेंद्रित होते जा रहे बच्चे कल किस रूप में दिखेंगे, ये ये सोचकर ही डर लगता है। हमने बचपन के ज्यादातर समय इन्ही जद्दोजहद में बीता दिये कि हम बड़े होकर क्या बनेंगे। हमारे पास विकल्प कम थे। कंचे खेलते और टायर चलाते दुनियादारी से दूर होते हुए आम चोरी करने में समय बीत गया। आज-कल के बच्चे ज्यादा सोफिस्टिकेडेट या कहें, सभ्य हैं। सैकड़ों चैनलों के बीच वे अभी से भविष्य की योजनाएं बनाते हैं। उनके पास हजारों विकल्प हैं। पढ़ने से लेकर आगे काम करने तक के। लेकिन उसके बाद भी तनाव बरकरार है। खुशी गायब है। मैदान खाली नजर आते हैं। उनमें खेलनेवाले बच्चे अड्डेबाजी के शौकीन हो चले हैं। जो चीजें किशोरावस्था से आती थीं, वे बचपन से ही दिखाई देने लगी हैं। तंग गलियों में क्रिकेट का शोर नहीं गूंजता और न ही रबड़ की गेंदों से फुटबॉल खेले जाते हैं। गिल्ली-डंडा तो गायब ही हो गया। बचपन की तस्वीर कई मायनों में अलग हो गयी है।प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-60754203380689576842009-11-12T20:58:00.000-08:002009-11-12T21:02:14.901-08:00पलायन पर आधारहीन चिल्लपों<span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; font-size: small; white-space: pre-wrap; ">पलायन ये शब्द आज-कल कानों में करंट दौड़ाता है। बिहार, यूपी के लोगों के दूसरे राज्यों में जाने को लेकर हंगामा मचता है। वास्तविकता क्या है? वस्तुस्थिति क्या है, इस पर शोध किये बिना राजनीतिक दलों के लोग चिल्लपों मचते-करते हैं। रोजगार कैसे पनपेगा, ये सोचिये। आमदनी कैसे बढ़ेगी, ये सोचिये। जब रुपए का आदान-प्रदान होगा, लोग खरीद-बिक्री करेंगे, तभी व्यवसाय भी बढ़ेगा। अगर एक क्षेत्र के लोग उसी जगह सिमटे रहें, तो जरूरत कैसे पैदा होगी, ये सोचिये।<a href="http://www.thehindu.com/2009/10/27/stories/2009102753310900.htm"> Senior Assistant Country Director, UNDP, K. Seeta Prabhu. द हिन्दू में एक साक्षात्कार में माइग्रेसन के मसले पर बताती हैं कि</a> In India, the estimated number of internal migrants moving from one State to the other is 42 million; those who reside at a place other than their place of birth is as high as 307 million. Studies in Andhra Pradesh and Madhya Pradesh indicate that poverty rates fell by 50 per cent between 2001-02 and 2006-07 for households which had at least one migrant. बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों के नाम पर जो कोहराम मचा है, उसके पीछे संकीर्ण सोच ही है। यहां झारखंड तक में बाहरी-भीतरी की राजनीति होती है। बात ये है कि जो ऊपर के पॉलिसीमेकर हैं, उन्होंने कभी संतुलित विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया। वैसे बिहार-उत्तरप्रदेश भी इसके लिए दोषी हैं। भारत जैसे देश में जब एक देश, एक वेश-भूषा की बात लोग करते हैं, तो अलग-अलग कोनों से उठते विवाद कंपा देते हैं। आपके पास विकास के नाम पर कोई मुद्दा नहीं रहता। क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा के नाम पर जब राज्यों का निर्माण किया गया, तभी से इन गलत विचारधारा की नींव पड़ गयी थी। उस नींव पर खड़ी दीवार आज हमारे एक देश की अवधारणा को चोट पहुंचा रही है। व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार देश के विकास को बाधित करता है। लोग नक्सल समस्या, पिछड़ापन और विवादों की वजह से पलायन करते हैं। वे जाएं, तो कहां जाएं। अगर दिल्ली में कभी शीला दीक्षित बिहारियों के आने को लेकर सवाल उठाती हैं और चौहान साहब मध्यप्रदेश में ऐसा ही सवाल करते हैं, तो उलटा सवाल इनकी पार्टियों के आलाकमान से पूछा जाना चाहिए कि आपकी पार्टियां इन क्षेत्रों के विकास के लिए क्या करती हैं या कर रही हैं? मुद्दा पूरा का पूरा उसी विकास पर आ टिकता है। आप अपने नेताओं को विकास के लिए कैसे ट्रेंड करेंगे। अगर शिव सेना भाजपा को केंद्र में समर्थन देती है, वह सवाल पूछे कि बिहार या झारखंड में आपके द्वारा समर्थित या शासित दलों का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है? जिस दिन राजनीतिक दलों के लोग इस एक पैमाने पर सवाल-जवाब करने लगेंगे, तो ये क्षेत्रीय राजनीति खात्म की ओर होगी। अगर असम में आदिवासियों पर हमले होते हैं और बिहार में रेलगाड़ियों पर हमले किये जाते हैं, तो ये महसूस करना होगा कि प्रभावित सब होंगे। जब कोड़ा चार हजार करोड़ रुपए घोटाले के आरोपी पाए जाते हैं, तो ये सोचना होगा कि क्षेत्र का विकास कैसे होगा? लूट की मानसिकता ने कुछ राज्यों को विनाश के गर्त पर धकेल दिया है। झारखंड में दस से ज्यादा जिले नक्सल प्रभावित हैं और एनएच खत्म हो रहे हैं। व्यवस्था प्रभावित हो रही है, तो ये जाहिर है कि लोग जीविका और सुरक्षा के लिए पलायन करेंगे ही। सवाल पूरे देश के स्तर पर पूछने का है। नहीं तो हमारा देश भी पाकिस्तान बन जाएगा और हम बस ताली बजाते रह जाएंगे एक-दूसरे को गरियाते हुए।</span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-9336111491600713692009-11-09T20:43:00.000-08:002009-11-09T20:44:17.124-08:00अगर जरूरत पड़े, तो जरूर सोचियेगा<span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; font-size: small; white-space: pre-wrap; "><span class="Apple-style-span" style="color:#3333FF;">कल बातें हो रही थीं, चर्चा का विषय था जीवन में हमारा उद्देश्य। कर्म करना मात्र उद्देश्य हो, उपभोग या कुछ ऐसा देकर जाना, जिसे लोग याद करें। कुछ दिनों पहले एक किताब पढ़ी था-द मांक हू सोल्ड हिज फेरारी। एक किताब जिसमें एक सफल बेचैन वकील के फिर से स्वयं के पुनरुद्धार की कहानी है। जब हाइली पैड एग्जीक्यूटिव जीवन के बारें में या टारगेट के बारे में भाषण देता है, तो लगता है कि वह हमारे साथ छल कर रहा है। हम कहते हैं कि जीवन क्या बस उस खास टारगेट के लिए बना है। महानगरीय जीवन में जब सुबह के नौ बजे से शाम के आठ बजे तक की ड्यूटी के बारे में सुनता या सोचता हूं, तो मन ये कहता है कि ये उन तमाम सुविधाओं, जिसे कि उन्होंने घरों में पैसों के बल पर समेटा है, कैसे और किस समय उपयोग कर पाएंगे। आपाधापी में खुद के लिए दो पलों की फुर्सत नहीं और जहां सुधारने की बातें करते चलते हैं। जब शाहरुख बताते हैं कि थोड़ा और विश करो, तो गुमान होता है कि चलो थोड़ा और विश कर अपनी लाइफ स्टाइल और बेहतर बना देते हैं। लेकिन यही थोड़ा, जिंदगी के बेजरूरत के संघर्ष को कठिनतम बनाने की ओर अग्रसर होता है। ये भी सच है कि हम आज खुद को जिंदा रखने के लिए फास्ट लाइफ स्टाइल में ढल गए हैं। कई लोगों की ये मजबूरी हो गयी है कि वे इसे अपना लें, नहीं तो उनके सामने रोजी-रोटी का संकट हो जाएगा। लेकिन जब करोड़ों की कमाई के बाद भी आपके पास फुर्सत नहीं हो और जीवन के स्तर को मेंटेन करने के चक्कर में अपनी पूरी जिंदगी गुजार दें, तो ये सोचना पड़ता है कि हमारे मशीन बनने के पीछे के कारण क्या हैं? क्या ये हमारी क्षुद्र या लालची मानसिकता नहीं है। हम कभी खुलकर नहीं जीते, हम हिचकते हैं। विचारों के समुद्र में गोता लगाते से डरते हैं। इसलिए शायद अब तक बंगाल, झारखंड में होता उत्पात उतना मनःस्थिति को खराब नहीं करता, जितना खुद के स्वार्थ पर प्रहार होने से होता है। हमने भी आज तक के जीवन में खुद से सुधार की शुरुआत करनेवाले बिरले ही देखे हैं। किसी सेल्स एग्जीक्यूटिव को दरवाजे से टरकाने के पहले क्या हम उसकी मजबूरियों के बारे में सोचते हैं, शायद नहीं। हम खुद से आगे नहीं बढ़ बातें। ये बातें शायद उपदेशात्मक लगे, ऐसा लगे कि महात्मा के नए अवतार ने जन्म लिया है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि ३४ साल की जिंदगी से लेकर अगर ५० साल की उम्र तक सिर्फ बुढ़ापे के लिए बचाने के लिए जंग लड़ा जाए, तो हम उस जंग को किसके लिए माने। अपने लिये, या उस अगली पीढ़ी के लिए, जो हमारे बाद आयेगी। लेकिन वह अगली पीढ़ी भी तो खुद अपना रास्ता अख्तियार करेगी। हमारा यहां थोड़ा खुद के लिए स्वार्थी होने से भी मतलब है। खुद से स्वार्थी होना यानी खुद अपने जीवन के बारे में सोचना, सिर्फ आर्थिक पहलू से नहीं, बल्कि जीवन जीने के पहलू। जहां बेटा या बेटी हमारी झप्पी का इंतजार करता मिले। और जहां कुछ समय हम अपने और परिवार के लिए दें। मेरा ये मानना है कि जिंदगी की खुशी कोई राह चलती मुसाफिर नहीं, जिसे जब चाहा बुला लिया, उसे भी पास जाकर विनती और अनुग्रह के साथ बुलाना पड़ता है। क्योंकि जिंदगी भी प्यार मांगती है। एक प्यार, जिसे आप पैसे या कहें उस आभासी तरक्की के नाम पर ठुकरा रहे हैं, जो आपका कभी नहीं होनेवाला है। अगर जरूरत पड़े, तो जरूर सोचियेगा। ---,</span></span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-31454596488742146692009-11-08T11:04:00.000-08:002009-11-08T11:05:50.768-08:00हम तो साइलेंट मोड में मोबाइल को रखने के पक्षधर हैं<span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; font-size: small; white-space: pre-wrap; ">मुझे कुछ दिन पहले रिंग टोन रखने का चस्का लगा था, तरह-तरह के रिंग टोन्स। अरे कहां जा रिया है, या भाई साहब आपका फोन आया है, जैसे रिंग टोन्स। खोपड़ी भी पूरी खाली हो गयी है ऐसा लगता है इन्हें सुनकर। अगर जिंदगी बेमजा हो गयी है, तो इन रिंग टोन्स का उपयोग करके देख सकते हैं। इनकी बदौलत आप कितने रिएक्शन पा जाएंगे। कोई गरियाएगा, कोई पुचकारेगा और कोई ब्लू टुथ के सहारे आपकी रिंग टोन्स को अपनाएगा। तकनीकी की दुनिया ने व्यक्तित्व की परिभाषा बदल दी है। रिंग टोन्स बताते हैं कि फलाना आदमी लफ्फुआ या बाजारू किस्म का है या कुछ सीरियस। फिल्मी गीतोंवाले रिंग टोन्स की बात ही निराली होती है। कोई धुन आपको कभी शांत माहौल में उस जन्नत की सैर कराएगा, जहां से आप कभी लौटना नहीं चाहेंगे। कुछ कानफोड़ू किस्म को टोन्स दिमाग को भन्ना डालते हैं। बाजार में रिंग टोन्स भी स्टेटस सिंबल बन गए हैं। वे बताते हैं कि आपका मोबाइल किस टाइप या ब्रांड का है। स्टीरियो साउंड के सहारे आपकी मोबाइल की गुणवत्ता आंकी जाती है। जब मोबाइल लटक वस्तु बन ही गए हैं, तो रिंग टोन्स का भी जिंदगी से जुड़ाव उतना ही सच हो गया है। इसे दरकिनार कैसे किया जाए। हमने तो अपने फिल्मी गीतोंवाले रिंग टोन्स बदल डाले। क्योंकि इन रिंग टोन्स ने अब चिड़चिड़ापन भी लाना शुरू कर दिया है। बाथरूम में रहिएगा, तो बज उठेगा गली में आज चांद निकला। भैया चांद तो बाद में निकलेगा, लेकिन अपनी तो इंप्रेशन खाली-पीली मिट्टी में मिल गयी। हम तो साइलेंट मोड में मोबाइल को रखने के पक्षधर हो गए हैं। न तो किसी को परेशानी होगी और न कोई टोकेगा। लेकिन अगर सब साइलेंट मोड में मोबाइल यूज करने लगें, तो रिंग टोन्स के बाजार का क्या होगा? ये भी रिसर्च का विषय है। वैसे रिंग टोन्स है रोचक विषय वस्तु।</span>प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-82302448831892239862009-11-05T11:24:00.000-08:002009-11-05T11:27:25.160-08:00आज तक नहीं भूला जावेद मियांदाद का वह छक्का<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEis3Wq04_JOY1-GTcK-Ue-tr23sx1LSkY42kyExWPXKZAOIP2A9xdfRyYYHxPiUAJCB78oEpn5lvZaU1_Co1bks8tEWNIZejOKXh6qmEeGPFfNgmsuWRJ6Zml7j8pLHeUWwU2s1Pvw8BiU/s1600-h/match.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 286px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEis3Wq04_JOY1-GTcK-Ue-tr23sx1LSkY42kyExWPXKZAOIP2A9xdfRyYYHxPiUAJCB78oEpn5lvZaU1_Co1bks8tEWNIZejOKXh6qmEeGPFfNgmsuWRJ6Zml7j8pLHeUWwU2s1Pvw8BiU/s400/match.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5400703063091078354" /></a><br />क्रिकेट के खेल को अनिश्चितता का खेल कहा जाता है। कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। शरजाह कप में चेतन शर्मा की उस आखिरी गेंद का आज तक नहीं भूला पाया हूं, जिस पर कि जावेद मियांदाद ने छक्का मारा था। भाग्य कब साथ दे जाये और कब दगा,हम नहीं जानते। उस गेंद के बाद चेतन शर्मा भी लाइम लाइट से दूर होते चले गए। चेतन शर्मा को आज की आस्ट्रेलिया और भारत के एक दिवसीय मैच की समीक्षा करते हुए पाने के बाद उस आखिरी गेंद की भी याद हो आयी। उस आखिरी गेंद को टीवी पर करते देखना मेरे भाग्य में नहीं था। हुआ था यूं कि एक बॉल पर शायद छह रन बनाने में थे, मैं भारत की जीत को सुनिश्चित मान पानी पीने चला गया और सोचा सेलिब्रेट करेंगे, इतने में फिर लौटकर आने के बाद पूरी सीन ही बदली मिली थी। पाकिस्तानी खिलाड़ी ऊपरवाले को शुक्रिया अदा कर रहे थे। हमने भी सोचा क्या बात हो गयी और जब रिप्ले देखा, तो धत, तेरे की। वैसे ही ३४४ स्कोर को पीछा करते देखते भारत को लेकर आस बंधी थी कि शायद किसी आखिरी गेंद पर कोई एक छक्का लग जाए, पर यहां तो ऊपरवाले सीधे तौर पर ना कर दिया। वैसे मामला रोमांचक रहा। और अंत भी दिलचस्प। एक बढ़िया क्रिकेट देखने को मिला काफी दिनों के बाद। वाटसन की सधी गेंदबाजी के भी हम कायल हो गए।प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-9253727283315611852009-01-26T03:06:00.000-08:002009-01-26T03:09:19.093-08:00कौन कहता है कि गजनी हिंसक फिल्म है?गजनी फिल्म को लेकर जब बहस शुरू हुई, तो देखने की तीव्र इच्छा हुई। देखा और आमिर का कायल हो गया। कायल इस सेंस में आमिर ने १५ मिनट ही बातों को यादों को रख सकनेवाले इंसान के किरदार को जीवंत कर दिया। कहा जा रहा है कि गजनी हिंसक फिल्म है। लेकिन इससे ज्यादा हिंसा तो हम रोज टीवी पर आंखें फाड़ कर देखते हैं। गजनी जो कि फिल्म का विलेन है, हर शख्स के दिलोदिमाग में तब तक पीछा करता रहता है, जब तक फिल्म का नायक उसे मार नहीं देता। अवचेतन मान आमिर के साथ सड़कों पर दौड़ता चला जाता है सरपट बिना सोचे। गजनी सच मायने में कहें, तो आमिर से ज्यादा आसिन की फिल्म है। फिल्म की नायिका जो चुलबुली होने के साथ समाज के प्रति संजीदा है। दूसरों की मदद के लिए हमेशा खड़ी रहती है। और यही उसकी आदत उसके जीवन में ऐसी कठिनाइयां पैदा करती हैं कि उसका टकराव माफिया गजनी से होता है। गजनी उसका खून कर देता है और नायक को ऐसी चोट देता है कि एक बिजनेस अंपायर का मालिक बदले की भावना का गुलाम हो जाता है। फिल्म की नायिका के किरदार में एक सादगी है। एक ऐसी छाप है, जो हम देश की लड़कियों में देखना चाहेंगे। फिल्म की नायिका द्वारा राह चलते अंधे व्यक्ति को सही रास्ते तक पहुंचाना, विकलांग लड़कियों की मदद करना फिल्म के नायक के दिल को बदल डालता है। और वह उसे एक मध्य वगॆ का युवक बनकर पाना चाहता है। उसे बिना बताये फ्लैट गिफ्ट में देना और एक साथ नये फ्लैट में यानी होनेवाले घर में प्रवेश करना फिल्म के यादगार पल हैं। ज्यादातर लेखों में फिल्म के इन पक्षों का वणॆन नहीं किया गया है। हर कोई आमिर की बाजू की ताकत की बात करता है। हिंसा की बात करता है। लेकिन सुनहरे पक्ष को दरकिनार कर गजनी को हिंसा से भरी हुई फिल्म बताकर एक सकारात्मक छुअन और एहसास को गुजर जाने देता है। मेरे अवचेतन मन ने फिल्म में आमिर के साथ सड़कों पर दौड़ते हुए नायक के जीवन की थाह को पाने की कोशिश की। लेकिन लगा उस ऊंचाई को नहीं छू पाऊंगा। क्योंकि उसके स्तर को छूने के लिए जो पैमाना चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। गजनी की तारीफ और कितनी करूं, समझ में नहीं आता है। वैसे गजनी ने तीन घंटे में अच्छा मनोरंजन किया।प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-62895974832776049612009-01-19T09:44:00.000-08:002009-01-19T09:52:03.396-08:00ब्लॉगर यानी चिट्ठाकार उर्फ मानाशाह ... मन की ताकत के बादशाहहम कौन हैं<br />पूछा गया<br />तो जवाब<br />नहीं आया<br />सब मौन।<br /><br />ब्लॉगर<br />मीडियाकर्मी<br />प्रिंट से या<br />इंटरनेट से।<br /><br />जाल में हैं<br />हम नेट के।<br /><br />नेट खुद <br />जाल ही है<br />हम नेट के<br />जाल में हैं।<br /><br />हम मौन नहीं<br />मनन में हैं<br />चिंतन में हैं<br />विमर्श में हैं<br />परामर्श में हैं<br />निष्कर्ष में होते<br />हुए उत्कर्ष में हैं।<br /><br />सबके मन में हम<br />हम सबके मन हैं<br />ब्लॉगर नहीं हैं<br />मानाशाह हैं हम<br />तानाशाह यानी<br />तन की ताकत<br />और मानाशाह ...Unknownnoreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-42531727738339571302009-01-08T10:50:00.000-08:002009-01-08T10:59:24.529-08:00भय मैनेजमेंट से बिगड़ रहा चिंतनमनुष्य को सबसे ज्यादा डर मृत्यु से लगता है। हमारे ख्याल में मृत्यु तो आत्मा की स्वंतत्रता के लिए राह आसान बनाती है। लेकिन निरभीक मन की हर दिन होती मौत के बारे में आपका क्या ख्याल है? जब भी आप टीवी खोलेंगे, तो इंश्योरेंस कंपनी के एड आपको ख्याल दिला जायेंगे कि आपका जीवन छोटा है। <br /><br />आप ४० के हैं, तो पैसे जमा कराइये, बीमा कराइये, बुढ़ापा ठीक से कटेगा। बुढ़ापा, वैसी उम्र, जब आप मदद के मोहताज होते हैं। आपको बताया जाता है कि हो सकता है कि आपकी संतानें आपकों न देखें, आपकी देखभाल न करें, इसलिए पेंशन प्लान ले लें। कल रोड पर जाते समय दुघॆटना के शिकार हो जायें, इसलिए पांच लाख का बीमा करा लें।<br /><br /> एक असुरक्षा की ऐसी भावना कतरा-कतरा कर मन की परत पर जमायी जा रही है कि पूरी पीढ़ी डर में जीने को विवश है। इस डर ने जीवन की राह बदल दी है। एक भय का एहसास हमेशा पीछा करता रहता है। मानिये न मानिये बीमा कंपनियों के भय मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि उनके आप कायल हो जायेंगे। बच्चे से पूछा जाता है कि अगर आपके पापा गुम हो जायेंगे, तो आप क्या करेंगे।<br /><br /> कोई बच्चा , जो एड देखता होगा, उस पर उस संदेश का क्या प्रभाव पड़ता होगा? मनोवैग्यानिक, विशेषग्य और समाजशास्त्री जरूर इस चीज को गौर कर रहे होंगे। समाज में जीवन के संघषॆ से टकराने का हौसला करने की बजाय उसे सुरक्षा के काल्पनिक कैद में बांधने की असफल कोशिश की जा रही है।<br /><br /> कल, कौन सा रूप लेकर आयेगा कौन जानता है? बचत करना अच्छी बात है, लेकिन मन मारकर, कल की असंभावित और काल्पनिक असुरक्षा के नाम पर असुरक्षित और मरे मन से बचत करना क्या उचित है, जरा सोचिये। इस डर के मैनेमेंट से मिसमैनेज न होकर, उससे सीखने की जरूरत है। साथ ही इस चेष्टा को हतोत्साहित भी करने की जरूरत है। वैसे भी कहा गया है-मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9060084557009097854.post-20995306317408637852009-01-06T11:16:00.000-08:002009-01-06T11:27:57.995-08:00रामखिलावन दूध में पानी क्यों मिलाता है?भाई, <a href="http://www.readers-cafe.net/nc/2009/01/06/article-on-hindi-blogging-in-newspapers-like-personal-matters/">मीठी जुबान से तीखी मिचॆ उड़ेल कर क्यों किसी का दिल दुखाते हो?</a> अगर दो-चार ब्लागों का ही अखबारों में उल्लेख होता है, तो आप अपने ब्लाग को बेहतर ब्लागों के बारे में बताने का माध्यम बनायें। अखबार क्या और कितना ब्लागों के बारे में बतायेंगे। वैसे भी अखबारों में वही छपता है, जो बिकता है। गौर करने की बात ये है कि इस ब्लाग जगत में खुद को खुद ही शाबासी देने की परंपरा कायम हो गयी है। (इसे देखते हुए मैंने भी कुछ वैसा ही क्या होगा, लेकिन आज कल कलम की ताकत को मजबूत करने की कोशिश कर रहा हूं। देखना ये है कि इस अंदाज के प्रशंसक कितने होते हैं।) <br />साथ ही दोस्त-यार बन गये साथियों से भावनात्मक लगाव जताते हुए समथॆन दिखाना इस मंच की अहमियत को खत्म कर दे रहा है। होना ये चाहिए कि बहस में शामिल होकर हम तकॆ के साथ विषय को आगे बढ़ायें। कल्पना कीजिये, जिस दिन हिन्दी में ब्लागों की संख्या एक लाख पार कर जाये, उस दिन आप कितना अपनापन रख पायेंगे। यहां संबंध निभाने की परंपरा जो बन गयी है, उसने ही सारी स्वस्थ मानसिकता का सत्यानाश कर दिया है। किसी को गरिया दीजिये, तो सबसे ज्यादा पठनीय होंगे और अगर किसी ब्लाग में गंभीर लेख (पाकिस्तान पर आरोप लगानेवाले को छोड़कर) होंगे, तो उन्हें दरकिनार कर दिया जायेगा। जैसा कि कहा जाता है कि ब्लाग तो आन लाइन डायरी है, बेलाग बात कहने के लिए। अगर हमको-आपको ये लगता है कि फलां-फलां ब्लाग बेहतर लिख रहा है, तो हम अपने ब्लाग में उसका वणॆन कर उस ब्लाग की लोकप्रियता में इजाफा करें। यही उचित है।प्रभात गोपाल झाhttp://www.blogger.com/profile/13379808707342432341noreply@blogger.com6