सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

तो शीषॆक पढ़ा-बेलगाम राज

सुबह-सुबह आईने में शक्ल देखी। मौसम में ठंड थी और
आसमान से धूप हल्की किरणों से पांव पसारने की कोशिश में थी।
अखबारों पर नजर पड़ी, तो शीषॆक पढ़ा-बेलगाम राज।


फिर वही राजनीति. वही आरोप-प्रत्यारोप। बेचैन मन ने ठंडे पानी का सहारा लिया। क्या फिर वही पुरानी कहानी दोहरायी जायेगी। ...........................

याद आया-छठ आने को है। फिर मुद्दा शायद उठे-मराठी बनाम बिहारी का। फिर वही गरजना-बरसना। फिर अगले बरस के लिए चुप हो जाना।

मन सवाल पूछता है-ये सस्ती राजनीति करनेवाले रोटी बनाने का कारखाना लगाने की क्यों नहीं सोचते?

कभी किसी ने यह पूछा है कि तुम्हारा खून लाल है या नीला। नहीं, जरूरत नहीं पड़ी होगी। दो-चार लोगों से बात होती है, तो

दो लोग कहते हैं, यार पता नहीं क्या हो रहा है?

उनमें से एक का भाई भी परीक्षा देने गया था। रातभर उन महोदय को नींद नहीं आयी भाई की चिंता से।

फिर मन पूछता है-क्या ये हम अपने ही देश में इतने बेगाने हो गये हैं कि कहीं भी कोई हमें हमारी पहचान के नाम पर पीट दे।


कुछ दिनों पहले यहां झारखंड में भी मराठियों के खिलाफ चंद नकारात्मक तत्वों ने रोड़े अटकाये थे, तब हम अखबारनवीसों ने इस मुद्दे को जमकर उछाला और इसका विरोध क्या था।

हमें तो ये समझ में नहीं आता है कि कोई व्यक्ति किसी देश के संविधान से हटकर कैसे बात कर लेता है। लेकिन टाटा के नैनो से लेकर अब तक जितनी भी घटनाएं हुई हैं, उसने मुझे खुद से सवाल नहीं पूछने को बाध्य कर दिया है। लगता है, थोड़े दिनों के बाद लोग न्यूज चैनलों को छोड़ कर फिल्म और सीरियलों का ही सहारा ले लेंगे। कम से कम वहां तो इस सामाजिक समरसता को बिगाड़नेवाली खबरें पीछा तो नहीं करेंगी।

खुलेपन के नाम पर इस देश ने अब तक क्या पाया बेलगाम राजनीति, बेलगाम मीडिया या बेलगाम उपभोक्तावाद।

मन कनफ्यूज है, क्या करना होगा, क्या करें, समझ में नहीं आ रहा है।

लगता है, इस सिस्टम को चला पाने में यहां के नेता असमथॆ हैं। इस देश में और कुछ हो न हो, कम से कम व्यवस्था तो कायम रहे, जिससे हम कहीं भी बिना डर के आ-जा सकें। यह एक अहम सवाल है। इसके लिए अपने अंदर झांकना होगा, लेकिन सबसे पहले हमारे प्रतिनिधियों को यह करना होगा, क्योंकि इस अव्यवस्था और बेचैनी के जिम्मेवार वही हैं।

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

नो स्मोकिंग प्लीज......

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.....यह जब देवानंद सिगरेट का कश लेते हुए गाते हैं, तो मन का आनंद संगीत की धुन के साथ रूमानी हो जाता है। उस दौर में शायद छात्र अपने हीरो के दिलकश अंदाज की नकल यूं ही धुएं के छल्ले हवा में उड़ाते हुए करते होंगे। वह नकल बाद में उनकी आदत बन गयी। हालात ये हो गये कि सरकारे हिन्दोस्तां को सावॆजनिक स्थलों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। नामुमकिन को मुमकिन करने की कोशिश की गयी है। कितनों की आत्मा को इस ऐलान में गरम छुरी से काट दिया होगा। कितने ब्लॉगर भाई तड़प गये होंगे। खबर है बॉलीवुड स्मोकिंग के मुद्दे पर दो गुटों में बंट गया है। बहस जारी है। जारी है मंथन। पर अब इस ऐलान के बाद कम से कम उन सभ्य सज्जनों को मौका धूम्रपान पसंद लोगों को दागदार कहने का मौका मिल गया। हीरो की फिल्मों में हीरागिरी भी शायद धूम्रपान के दृश्यों को हटा देने से कम हो जायेगी। पर इस बहस के बीच मैं एक बात पूछना चाहूंगा कि क्या मना भर कर देने से ये समस्या कम हो जायेगी? जिन्हें आदत है, वे भले ही सावॆजनिक स्थानों पर नहीं पीयेंगे, पर कोने में जाकर सुटा मारेंगे जरूर? सोचिये गुमटीवालों पर क्या गुजरेगी?

लेकिन इन बहस, शिकायतों से अलग यह हमें मानना चाहिए कि सिगरेट पीना गलत बात है। गंदी बात है। इसलिए मेरी अपील है, दोस्तों कि अच्छी बातों में साथ दें जरूर। उम्मीद छोड़ें नहीं और सरकार के इस जंग में जमकर साथ दें। अपने बेटे को इससे दूर रहने की सलाह दें। खुद भी सिगरेट पीना छोड़ें। क्योंकि सर ये कोई अच्छी बात नहीं।

वैसे भी अब हर मां अपने बच्चे को सिगरेट पीने से मना करने के लिए बोलती है-बेटा सिगरेट मत पी, नहीं तो गब्बर सिंह (सरकार के रखवाले) आ जायेगा।