शनिवार, 29 नवंबर 2008

भाई पाटिल साहब सोचकर बोलिये

महाराष्ट्र के गृह मंत्री हैं पाटिल साहब। याद कीजिये राहुल राज एपिसोड में उनका बयान-गोली का जवाब गोली। एक होम मिनिस्टर का बयान, जो कि एक महत्वपूणॆ राज्य का मंत्री है। ऐसा बयान जैसे कि उन्होंने किसी विदेशी आतंकवादी को मारा हो। राहुल राज विदेशी नहीं, बल्कि उन्ही के देश के एक राज्य का बाशिंदा था। फकॆ यही था कि वह भटका हुआ था। २९ नवंबर को फिर पाटिल साहब एक महागलती कर गये। कहा-२६ नवंबर की आतंकी घटना एक छोटा-मोटा हादसा है और ऐसा होता रहता है। फिर खुद बताया कि आतंकवादियों का मकसद पांच हजार लोगों को मारने का था। जीभ का फिसलना पाटिल साहब के लिए मानो सामान्य सी बात हो गयी है। आखिर इस तरह की गलती कैसे हो जा रही है। सोचने की बात है। भाई पाटिल साहब, बोलें, तो थोड़ा संभल कर, बोलें। वैसे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया जो छिछालेदार डायरेक्ट टेलीकास्ट कर रही है, वैसा तो हम नहीं कर रहे। लेकिन ऐसी गैर-जिम्मेदाराना बयानबाजी आखिर क्या संदेश दे रही है। आप ही बतायें...

जला रहे थे आशियानों को

वो जवान थे, आंखों में धधकती आग थी
जला रहे थे आशियानों को
हमने नहीं की थी दुश्मनी
तो फिर किससे थी
किसने भरा ऐसा जहर उनके दिमाग में
एक सवाल, जो कौंधता है
खोजता है
उन जहरीले बीजों को
जो पनप रहे हैं, होंगे कहीं इसी धरती पर
---------------------
लेकिन उनका क्या हो
जो पनप रहे, इसी देश में
हमारे-आपके बीच
बांट रहे जहर, मीठी बातों से
गरम चाय के प्यालों के साथ
और हम हैं कि होते जा रहे कमजोर
आतंकवाद के एड्स के साथ
दिन ब दिन
जिसकी अभी तक नहीं बना दवा
और जहर बन गयी है खुली हवा
उन धुओं से
जो आशियानों के जलाने से उठे हैं
-----------------------------------
शायद ये सवाल वहां भी उठता होगा
जहां से वे आये थे
धूल का गुबार जब होगा शांत
पानी जब होगी साफ
हम न चाहते हुए भी भूल जायेंगे
दोहरायेंगे फिर वही कहानी पुरानी
कंधारवाली
क्योंकि हमारे नेता सुधरेंगे नहीं
क्योंकि वे नशे में हैं
पावर के, इस गुमान में कि देश है
एक भारत
----------------------------
पर ये तो जल रहा है
पल-पल, हर पल
बिना रुके

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

ये है ब्लॉग पर लाइव कवरेज

२६ नवंबर रात ११ बजे ---

टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज -
मुंबई में.. मुंबई में आतंकवादी घुस गये हैं... कहां से... .समुद्री रास्ते से... देखिये विस्फोट हुआ।

अखबार का दफ्तर -
धत तरे कि. ... अरे यार वो वाला चैनल लगाओ सबसे तेज...
देखो गोलियां चलीं।

पुलिस कमिश्नर का बयान - हम आतंकवादियों पर काबू पा लेंगे। पूरी पुलिस फोसॆ लगी है....

तेज चैनल -

लाइव कवरेज .... हो रहा है.. घटनास्थल से मैं फलां,,.... फलां... फलां...


दशॆक -
अरे तीन लोग मारे गये....

कौन-कौन.... पुलिस अधिकारी हैं.... क्या? ..... बाप रे ये क्या हो गया.....

पाटिल कहां...... कौन पाटिल..... गृह मंत्री शिवराज पाटिल.....

नजर नहीं आ रहे .... चलो यार दूसरा चैनल लगाओ.....

संवाददाता........भाई साहब क्या हो रहा है.... आप कैसे बचे... टीवी कैमरा फोकस करो....
धांय.... धांय... .चारों ओर से गोलियां चल रही हैं, कुछ बताना मुश्किल है....

२७ नवंबर ----

सेना बुलायी गयी है.... .कमांडो..... लगाये गये हैं.....

धांय-धांय...

अब ये आतंकी नहीं बचेंगे....

क्या लाशें मिल रही हैं.... क्या-क्या.. .कैसे.... ये तो नरसंहार है....

देर शाम.. अखबार का दफ्तर...... तीन सौ से ज्यादा घायल हुए, १०० से ज्यादा मरे.... चलो यही हेडिंग ठीक रहेगा... चलो...

कल टेंशन खत्म हो जायेगा...

२८. नवंबर...

मैं ताज से फलां... फलां....

ये लाइव कवरेज..... देखिये थोड़ा झुक जाइये, आपको गोली लगेगी।( और वे जो लड़ रहे हैं, उन्हें नहीं)
फिर शाम तक ...आतंकवादी मार दिये जाते हैं.....

नारेबाजी करती भीड़..... भारत माता की जय.... वंदे मातरम....

अखबार का दफ्तर -

बाप रे बड़ी टेंशन हो गया... कल से नॉमॆल रहेगा...


चैनल पर न्यूज -

पाकिस्तान से जरदारी ... हमारा आतंकवादियों से कोई संबंध नहीं....
भारतीय .... हमारा है, वे हमें मारने आये थे, हमने उन्हें मार दिया.....

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

शोक-विलाप नहीं, हिम्मत की बात करें

४८ घंटों तक लगातार दहशत को मुंहतोड़ जवाब देते मुंबई को सलाम। इस मुंबई ने कई हमले झेले, लेकिन इस बार का हमला जबरदस्त था। इसका भी मुंबई ने मुकाबला किया। फौलादी इरादों को कुचलने पूरी तैयारी से आये आतंकवादी भी इसे पार नहीं पा सके। ४८ घंटे तक पूरा देश, मीडिया और हर आम आदमी मुंबई के साथ रहा। मुंबई हमारी शान है। इस आतंकवादी हमले ने साफ जाहिर कर दिया है कि हमारी प्रगति कुछ दुश्मनों के सहन से बाहर की चीज होती जा रही है। लेकिन हम डरनेवाले नहीं हैं। ये इस हमले का मुकाबला करने के हमने साबित कर दिया है। हमारे जवान भागे नहीं, भले ही उनके पास एके-४७ रायफल नहीं था। उन्होंने अपने पुराने हथियारों के दम पर ही सामना किया। छाती पर गोली खायी, पीठ पर नहीं। बेमौत नहीं मरे, बल्कि शहीद हुए देश के लिए। ऐसी शहादत तो नसीबवालों को ही मिलती है। इस शहादत को हम सलाम करते हैं। हम यहां इस बार शोक नहीं मनायेंगे, बल्कि मुंबई के फौलादी इरादे को अपनी हिम्मत से और मजबूत बनायेंगे। विलाप नहीं करेंगे, बल्कि हादसे से सबक लेकर आतंकवाद के जुमले रटकर राजनीति नहीं करने की शपथ लेंगे। इस बार आतंकवादियों ने सामने आकर ललकारा है। इसका सामना करने से हम पीछे हटनेवाले नहीं हैं। मुंबई हम तुम्हारे साथ हैं।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

ये तो युद्ध है... जागो साथियों जागो

कल का मुंबई में आतंकी हमला आतंकवादियों के दुस्साहस की पराकाष्ठा है। हमारे फेल हो चुके सिस्टम की गवाही है। इन आतंकवादियों की हिम्मत देखिये,इन्होंने खुलेआम कहर बरपाया। आदमियों को बंधक बनाया। कल तक ये कार या स्कूटर में बम रखकर या छिपकर हमला करते थे। लेकिन इस बार हमें ललकारते हुए हमला किया। ये तो युद्ध की तरह है या कहिये युद्ध है। आतंकवादियों ने पूरी प्लानिंग कर हमला किया। ऐसी प्लानिंग की पुलिस और पूरा सिस्टम उनकी दया पर निभॆर रहा। इन हमलों के पीछे कोई ऐसा दिमाग काम कर रहा है, जो इस पूरे देश को विनाश के गतॆ में धकेल देना चाह रहा है। ये जो भी है, इसने हमें ललकारा है। सामने आकर चुनौती दी है, हमारी संप्रभुता और हमारी सुरक्षा को। यदि अब भी हम नहीं चेतेंगे, तो कल फिर ये इससे भी बड़े पैमाने पर घटना को अंजाम देंगे। अब इन आतंकियों को उनकी औकात बतानी ही होगी। क्या अब भी इस देश की सरकार और नेता आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीति करेंगे? ये एक अहम सवाल है। आतंकवाद पर इस देश में अब कोई एकतरफा बहस नहीं हो। कठोरतम कारॆवाई जरूरी है। क्या देश की समृद्धि अब इन आतंकवादियों के भरोसे रहेगी? क्या हम मुंह बाये फिर आपस में नुक्तचीनी करते हुए अगले हमले का इंतजार करते रहें? आतंकवादी इस बार समुद्री रास्ते से आये। समुद्री रास्ते के प्रति संवेदनशीलता पहले भी जतायी जा चुकी है। लेकिन देश की सरकार निश्चित रूप से आंख मूंदे हुए थी। जिस कारण ये आतंकवादी इतने बड़े पैमाने पर कारॆवाई को अंजाम देने में सफल हुए हैं। जरूरी है कि इस युद्ध को उसके नतीजे तक पहुंचाने के लिए अब हम बिना सोचें तैयार हों। अब इसके बाद भी अगर दल और नेता आतंकवाद को लेकर राजनीति करते हैं, तो ये बेहद शमॆ की बात होगी। ये साफ है कि आतंकवाद का कोई धमॆ नहीं होता। इन आतंकियों का दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि ये हमारी छाती को रौंद कर देश की आत्मा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। जागो साथियों जागो।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

लकड़ी की काठी-काठी पे घोड़ा

आज जब सुबह-सुबह निकला, तो एक छोटे बच्चे को चाकलेट खाते और अपनी मस्ती में जाते हुए देखा। जेहन में इसी के साथ मासूम वाले जुगल हंसराज की याद आ गयी। जुगल हंसराज तो अब बड़े हो गये हैं। शायद हमारी उम्र के हैं। उस समय मेरी छोटी बहन लकड़ी की काठी-काठी पे घोड़ा गीत को सुनकर इतनी खुश होती थी कि हम भी उसके साथ इसे गाते रहते थे। सारे दुख भूलकर झूमते और मस्त रहते थे। मासूम के जुगल की मासूमियत ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि जुगल आज तक इतने बड़े हो जाने के बाद भी उसके साये से नहीं निकल पाये हैं। उस मासूम चेहरे ने न जाने कितने लोगों पर जादू कर दिया था। यही कारण है कि हम आज भी उसे बार-बार याद करते हैं। मासूम के गीत तुझसे नाराज नहीं है जिंदगी, सुनकर ऐसा लगता है, जैसे ये हमारी जिंदगी के गीत हों। नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी के अभिनय ने उसमें और चार चांद लगा दिया था। ममता, पिता का स्नेह और परिवार के लिए तरसते एक बच्चे के जज्बातों को इस फिल्म में जैसा पिरोया गया, उसे आप क्लासिक की श्रेणी में जरूर रखेंगे। आज भी कितने मासूम बच्चे परिवार का स्नेह पाने के लिए मचल रहे होंगे। मासूम मेरे बचपन की यादों की सुनहरी दास्तान है। शेखर कपूर ने ऐसी फिल्म बनाकर फिल्मी दुनिया को नयी सोच दी थी। उसके लिए शेखर जी को अभी भी बधाई देने का मन करता है।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

आम आदमी क्यों नहीं बनता है मुद्दा

भारतीय राजनीति इन दिनों रोजी-रोटी के मामले को छोड़कर आतंकवाद के मुद्दे को पकड़ कर बैठ गयी है। लगता तो ऐसा ही है। इधर साध्वी प्रग्या के मामले में भाजपा खुलकर सामने आ गयी है। आडवाणी भी साध्वी प्रग्या के साथ हो रहे व्यवहार से आहत हैं। पूछते हैं कि क्या किसी साध्वी के साथ ऐसा व्यवहार होता है? मीडिया भाजपा के इस तेवर को उग्र हिंदुत्व कहती है। भाजपा कह रही है कि साध्वी को फंसाया जा रहा है। कांग्रेस भाजपा के इन दावों और बातों को गलत कह रही है। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने भी आडवाणी से फोन पर इस मुद्दे पर बात की। उन्होंने पूछा कि आतंकवाद को धमॆ से क्यों जोड़ते हैं?

उधर शिव सेना साध्वी प्रग्या के मामले में खुल कर सामने आ गयी है। उसने एटीएस को जांच से हटाने तक की मांग की है। बाबरी मस्जिद से शुरू हुआ धमॆ का विवाद अब आतंकवाद जैसे शब्द के इदॆ-गिदॆ लड़ा जा रहा है। ये है राजनीति का स्तर। जिसे मीडिया भी खुलकर हवा दे रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि पूरी प्रक्रिया भी अदालत के सामने है। उस पर खुल कर कोई ठोस नतीजे नहीं आये हैं। लेकिन आतंकवाद को लेकर एक बहस ऐसी छिड़ी है कि सारे मुद्दे गौण हो गये हैं।

इन सारी हलचलों के बीच एक रिपोटॆ जो हिन्दुस्तान के १९ नवंबर के अंक में छपी, वह यह कि अंतरराष्ट्रीय संस्था आइएफपीआरआइ (द इंटरनेशनल फुड पॉलिसी रिसचॆ इंस्टीट्यूट) की रिपोटॆ के अनुसार एमपी और झारखंड में सबसे ज्यादा भूखे लोग हैं। भारत के १७ राज्यों में भूख बड़ी समस्या है। भूख की समस्या पर संस्था ने विश्व के कुल ८८ देशों में सरवे किया है। इसके अनुसार भूख से प्रभावित देशों की सूची में भारत का नंबर २२ वां है। बिहार में भी हालात बेहतर नहीं है। वह तीसरे नंबर पर है।

काफी सवाल हैं।
मंदी के कारण कंपनियों का बंटाधार हो रहा है। मराठी-बिहारी विवाद की बजाय देश में रोजगार बढ़ाने के लिए पहल क्यों नहीं की जा रही है। कंपनियों, कारखानों और सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से निपटने के लिए कोई उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं। किसान, जो कि महाराष्ट्र और आध्रप्रदेश जैसे राज्यों में समस्याओं से परेशान हैं, उनकी समस्याओं के निराकरण के उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं।

एक राष्ट्रीय पत्रिका की ताजा रपट ने भी नौकरियों पर आफत की आशंका जतायी है। आम आदमी चिंतित, आतंकित और भविष्य को लेकर परेशान है।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि आम आदमी को उग्र हिन्दुत्व या आतंकवाद से क्या मतलब है? क्यों नहीं भावनाओं को बहानेवाले मुद्दों को छोड़ कर ये पाटिॆयां उन मुद्दों को छूती हैं, जिनसे आम आदमी की जिंदगी बदल सकती है? आम आदमी की तकदीर बदलने की सोचने की हिम्मत इन दलों में क्यों नहीं होती? टिकट की देनदारी के वक्त खुद दल के लोग ही दल की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने लगते हैं। क्या इसी प्रजातंत्र के सहारे प्रगति की उम्मीद जगायी जा सकती है?

चुनाव आने को है। इसलिए इन बातों से अलग होकर आम आदमी को भावना में नहीं बहकर सही रास्ता अख्तियार करने की जरूरत है। अब देखना ये है कि ये आम आदमी अब क्या करता है?

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

कहां गये वे , जो पानी में आग लगाते थे?

रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं मन को राह दिखाती हैं। सोयी हुई आत्मा को जगाती है। इस अनोखी दुनिया में आज फिर उन्हीं कविताओं का सहारा दिखता है। जहां से घोर अंधेरे में एक उजियारा दिखता है।

रामधारी जी की ये कविता काफी भाती है। सोचा, आपके लिए पेश करूं। आपने पढ़ा भी होगा, लेकिन इन्हें बार-बार पढ़ने का मन करता है।

जनता जगी हुई है।
क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिंता से ठगी हुई है।
कहां गये वे , जो पानी में आग लगाते थे?
बजा-बजा दुंदुभी रात-दिन हमें जगाते थे?
धरती पर है कौन? कौन है सपनों के डेरों में?
कौन मुक्त? है घिरा कौन प्रस्तावों के घेरों में?
सोच न कर चंडिके! भ्रमित हैं जो, वे भी आयेंगे।
तेरी छाया छोड़ अभागे शरण कहां पायेंगे?

जनता जगी हुई है
भरत भूमि में किसी पुण्य पावक ने किया प्रवेश।
धधक उठा है एक दीप की लौ सा सारा देश।
खौल रहीं नदियां, मेघों में शंपा लहर रही है।
फट पड़ने को विकल शैल की छाती दहल रही है।
गजॆन, गूंज, तरंग, रोष, निघोॆष, हांक हुंकार।
जानें, होगा शमित आज क्या खाकर पारावार।

जनता जगी हुई है?
ओ गांधी के शांति सदन में आग लगानेवाले।
कपटी, कुटिल, कृतघ्न, असुरी महिमा के मतवाले?
वैसे तो, मन मार शील से हम विनम्र जीते हैं,
आततायियों का शोणित, लेकिन, हम भी पीते हैं।
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार
सावधान! ले रहा परशुधर फिर नवीन अवतार।

जनता जगी हुई है।
मूंद-मूंद वे पृष्ठ, शील का गुण जो सिखलाते हैं,
वज्रायुध को पाप, लौह को दुगॆण बतलाते हैं।
मन की व्यथा समेट, न तो अपनेपन से हारेगा।
मर जायेगा स्वयं, सपॆ को अगर नहीं मारेगा।
पवॆत पर से उतर रहा है महा भयानक व्याल।
मधुसूदन को टेर, नहीं यह सुगत बुद्ध का काल।

जनता जगी हुई है
नाचे रणचंडिका कि उतरे प्रलय हिमालय पर से
फटे अतल पाताल कि झर-झर झरे मृत्यु अंबर से
झेल कलेजे पर, किस्मत की जो भी नाराजी है
खेल मरण का खेल, मुक्ति की यह पहली बाजी है।
सिर पर उठा वज्र, आंखों पर ले हरि का अभिशाप।
अग्नि स्नान के बिना नहीं धुलेगा राष्ट्र का पाप।

हिंदी ब्लागरों परिवारवाद का विरोध करो

ब्लॉग जगत को लेकर मंथन का दौर जारी है। एक पुराने वरिष्ठ ब्लागर साथी ने ब्लाग जगत में व्याप्त खेमेबाजी का विस्तार से वणॆन किया। फिर बाद में खुद को एक परिवार विशेष का बताया। लेकिन खुद को एक परिवार से जुड़े होने का बताने से ही यह साफ हो जाता है, वे खुद ही खेमेबाजी के शिकार हैं। और खास परिवार को ही तरजीह देते हैं।

लेकिन सवाल वही, क्या विचारों के प्रवाह को खेमेबाजी में बदला जा सकता है। हो सकता है कि ब्लाग की दुनिया में कई लोगों के विचार एक जैसे हों। कुछ लोग एक-दूसरे का काफी सम्मान भी करते होंगे। उनमें आत्मीयता भी बढ़ी होगी। लेकिन दूसरों के सामने उन सबको परिवार के दायरे में बताना संकुचित मानसिकता की पहचान है। अभिव्यक्ति के मंच पर हम-आप, हमारा-तुम्हारा और मेरा-तेरा जैसे किसी शब्द की कोई जगह नहीं होती है।

जब संविधान बना, तो सबसे ज्यादा अहमियत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दी गयी। अगर आप किसी की आलोचना (गलत आलोचना नहीं, बल्कि सही) को सहन नहीं कर पाते हैं, तो आपको दूसरे की आलोचना करने का भी हक नहीं है। विचारों की दुनिया में आप तभी तक जिंदा रह सकते हैं, जब तक आप दूसरे लोगों के विचारों का सम्मान करते हैं।

जब बौद्धिक जगत के लोग एक साथ जुटेंगे, तो तकॆ-वितकॆ होगा ही। कभी भी एक व्यक्ति के विचार दूसरे से नहीं मिलेंगे। अगर एक ही सिद्धांत के माननेवाले होंगे, तब भी कुछ मुद्दों पर मतभेद होगा ही। ब्लॉग भी लेखनी का एक नया जरिया ही है। कृपया इसे परिवार और खेमों में बांट कर प्रदूषित करने की चेष्टा नहीं हो। यही उचित है। हो सकता है कि कुछ ब्लॉग जगत के पुराने खिलाड़ी हों। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि परिवार और खेमों में बांटकर बहस और विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए बनाये गये मंच का माहौल ही खराब कर दिया जाये।

उम्र और अनुभव में कुछ साथियों के बड़े होने के कारण शायद उन्हें यह ठीक नहीं लगे, लेकिन पूरा मामला यही है। ब्लाग जगत को विचारों के समुद्र में गोता लगाने दीजिये। आप भी कम्युनिस्ट और पूंजीवाद विचारों का अध्ययन करें। उनके गुण-दोष जानें और हम सबको बतायें। लेखन एक स्वतंत्र विद्या है। यहां किसी के समथॆक होने या उनके विचारों को सम्मान नहीं देने का कोई सवाल नहीं है। हां असहमत या सहमत होना एक अलग बात है। उम्मीद है कि हमारे विचार से आप भी सहमत होंगे।