गुरुवार, 20 नवंबर 2008

आम आदमी क्यों नहीं बनता है मुद्दा

भारतीय राजनीति इन दिनों रोजी-रोटी के मामले को छोड़कर आतंकवाद के मुद्दे को पकड़ कर बैठ गयी है। लगता तो ऐसा ही है। इधर साध्वी प्रग्या के मामले में भाजपा खुलकर सामने आ गयी है। आडवाणी भी साध्वी प्रग्या के साथ हो रहे व्यवहार से आहत हैं। पूछते हैं कि क्या किसी साध्वी के साथ ऐसा व्यवहार होता है? मीडिया भाजपा के इस तेवर को उग्र हिंदुत्व कहती है। भाजपा कह रही है कि साध्वी को फंसाया जा रहा है। कांग्रेस भाजपा के इन दावों और बातों को गलत कह रही है। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने भी आडवाणी से फोन पर इस मुद्दे पर बात की। उन्होंने पूछा कि आतंकवाद को धमॆ से क्यों जोड़ते हैं?

उधर शिव सेना साध्वी प्रग्या के मामले में खुल कर सामने आ गयी है। उसने एटीएस को जांच से हटाने तक की मांग की है। बाबरी मस्जिद से शुरू हुआ धमॆ का विवाद अब आतंकवाद जैसे शब्द के इदॆ-गिदॆ लड़ा जा रहा है। ये है राजनीति का स्तर। जिसे मीडिया भी खुलकर हवा दे रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि पूरी प्रक्रिया भी अदालत के सामने है। उस पर खुल कर कोई ठोस नतीजे नहीं आये हैं। लेकिन आतंकवाद को लेकर एक बहस ऐसी छिड़ी है कि सारे मुद्दे गौण हो गये हैं।

इन सारी हलचलों के बीच एक रिपोटॆ जो हिन्दुस्तान के १९ नवंबर के अंक में छपी, वह यह कि अंतरराष्ट्रीय संस्था आइएफपीआरआइ (द इंटरनेशनल फुड पॉलिसी रिसचॆ इंस्टीट्यूट) की रिपोटॆ के अनुसार एमपी और झारखंड में सबसे ज्यादा भूखे लोग हैं। भारत के १७ राज्यों में भूख बड़ी समस्या है। भूख की समस्या पर संस्था ने विश्व के कुल ८८ देशों में सरवे किया है। इसके अनुसार भूख से प्रभावित देशों की सूची में भारत का नंबर २२ वां है। बिहार में भी हालात बेहतर नहीं है। वह तीसरे नंबर पर है।

काफी सवाल हैं।
मंदी के कारण कंपनियों का बंटाधार हो रहा है। मराठी-बिहारी विवाद की बजाय देश में रोजगार बढ़ाने के लिए पहल क्यों नहीं की जा रही है। कंपनियों, कारखानों और सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से निपटने के लिए कोई उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं। किसान, जो कि महाराष्ट्र और आध्रप्रदेश जैसे राज्यों में समस्याओं से परेशान हैं, उनकी समस्याओं के निराकरण के उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं।

एक राष्ट्रीय पत्रिका की ताजा रपट ने भी नौकरियों पर आफत की आशंका जतायी है। आम आदमी चिंतित, आतंकित और भविष्य को लेकर परेशान है।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि आम आदमी को उग्र हिन्दुत्व या आतंकवाद से क्या मतलब है? क्यों नहीं भावनाओं को बहानेवाले मुद्दों को छोड़ कर ये पाटिॆयां उन मुद्दों को छूती हैं, जिनसे आम आदमी की जिंदगी बदल सकती है? आम आदमी की तकदीर बदलने की सोचने की हिम्मत इन दलों में क्यों नहीं होती? टिकट की देनदारी के वक्त खुद दल के लोग ही दल की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने लगते हैं। क्या इसी प्रजातंत्र के सहारे प्रगति की उम्मीद जगायी जा सकती है?

चुनाव आने को है। इसलिए इन बातों से अलग होकर आम आदमी को भावना में नहीं बहकर सही रास्ता अख्तियार करने की जरूरत है। अब देखना ये है कि ये आम आदमी अब क्या करता है?

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

शायद आपको पता नही होगा साध्वी प्रग्या भी एक आम आदमी है।

वैसे में आपके कहने का मतलब समझ गया आप पत्रकारों के लिये आम आदमी तो सिर्फ मुस्लमान और ईसाइ ही होता है। हिन्दु तो साले नाली का कीडा है वैसे आपके नाम से भी मुझे लगता है कि आप हिन्दु ही हो।