मनुष्य को सबसे ज्यादा डर मृत्यु से लगता है। हमारे ख्याल में मृत्यु तो आत्मा की स्वंतत्रता के लिए राह आसान बनाती है। लेकिन निरभीक मन की हर दिन होती मौत के बारे में आपका क्या ख्याल है? जब भी आप टीवी खोलेंगे, तो इंश्योरेंस कंपनी के एड आपको ख्याल दिला जायेंगे कि आपका जीवन छोटा है।
आप ४० के हैं, तो पैसे जमा कराइये, बीमा कराइये, बुढ़ापा ठीक से कटेगा। बुढ़ापा, वैसी उम्र, जब आप मदद के मोहताज होते हैं। आपको बताया जाता है कि हो सकता है कि आपकी संतानें आपकों न देखें, आपकी देखभाल न करें, इसलिए पेंशन प्लान ले लें। कल रोड पर जाते समय दुघॆटना के शिकार हो जायें, इसलिए पांच लाख का बीमा करा लें।
एक असुरक्षा की ऐसी भावना कतरा-कतरा कर मन की परत पर जमायी जा रही है कि पूरी पीढ़ी डर में जीने को विवश है। इस डर ने जीवन की राह बदल दी है। एक भय का एहसास हमेशा पीछा करता रहता है। मानिये न मानिये बीमा कंपनियों के भय मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि उनके आप कायल हो जायेंगे। बच्चे से पूछा जाता है कि अगर आपके पापा गुम हो जायेंगे, तो आप क्या करेंगे।
कोई बच्चा , जो एड देखता होगा, उस पर उस संदेश का क्या प्रभाव पड़ता होगा? मनोवैग्यानिक, विशेषग्य और समाजशास्त्री जरूर इस चीज को गौर कर रहे होंगे। समाज में जीवन के संघषॆ से टकराने का हौसला करने की बजाय उसे सुरक्षा के काल्पनिक कैद में बांधने की असफल कोशिश की जा रही है।
कल, कौन सा रूप लेकर आयेगा कौन जानता है? बचत करना अच्छी बात है, लेकिन मन मारकर, कल की असंभावित और काल्पनिक असुरक्षा के नाम पर असुरक्षित और मरे मन से बचत करना क्या उचित है, जरा सोचिये। इस डर के मैनेमेंट से मिसमैनेज न होकर, उससे सीखने की जरूरत है। साथ ही इस चेष्टा को हतोत्साहित भी करने की जरूरत है। वैसे भी कहा गया है-मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
2 टिप्पणियां:
आपकी पोस्ट की भावना से पूर्णत: सहमत! सुन्दर पोस्ट!
बहुत सही आलेख..आपसे पुरी तरह सहमत हूँ...
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