मंगलवार, 18 नवंबर 2008

कहां गये वे , जो पानी में आग लगाते थे?

रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं मन को राह दिखाती हैं। सोयी हुई आत्मा को जगाती है। इस अनोखी दुनिया में आज फिर उन्हीं कविताओं का सहारा दिखता है। जहां से घोर अंधेरे में एक उजियारा दिखता है।

रामधारी जी की ये कविता काफी भाती है। सोचा, आपके लिए पेश करूं। आपने पढ़ा भी होगा, लेकिन इन्हें बार-बार पढ़ने का मन करता है।

जनता जगी हुई है।
क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिंता से ठगी हुई है।
कहां गये वे , जो पानी में आग लगाते थे?
बजा-बजा दुंदुभी रात-दिन हमें जगाते थे?
धरती पर है कौन? कौन है सपनों के डेरों में?
कौन मुक्त? है घिरा कौन प्रस्तावों के घेरों में?
सोच न कर चंडिके! भ्रमित हैं जो, वे भी आयेंगे।
तेरी छाया छोड़ अभागे शरण कहां पायेंगे?

जनता जगी हुई है
भरत भूमि में किसी पुण्य पावक ने किया प्रवेश।
धधक उठा है एक दीप की लौ सा सारा देश।
खौल रहीं नदियां, मेघों में शंपा लहर रही है।
फट पड़ने को विकल शैल की छाती दहल रही है।
गजॆन, गूंज, तरंग, रोष, निघोॆष, हांक हुंकार।
जानें, होगा शमित आज क्या खाकर पारावार।

जनता जगी हुई है?
ओ गांधी के शांति सदन में आग लगानेवाले।
कपटी, कुटिल, कृतघ्न, असुरी महिमा के मतवाले?
वैसे तो, मन मार शील से हम विनम्र जीते हैं,
आततायियों का शोणित, लेकिन, हम भी पीते हैं।
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार
सावधान! ले रहा परशुधर फिर नवीन अवतार।

जनता जगी हुई है।
मूंद-मूंद वे पृष्ठ, शील का गुण जो सिखलाते हैं,
वज्रायुध को पाप, लौह को दुगॆण बतलाते हैं।
मन की व्यथा समेट, न तो अपनेपन से हारेगा।
मर जायेगा स्वयं, सपॆ को अगर नहीं मारेगा।
पवॆत पर से उतर रहा है महा भयानक व्याल।
मधुसूदन को टेर, नहीं यह सुगत बुद्ध का काल।

जनता जगी हुई है
नाचे रणचंडिका कि उतरे प्रलय हिमालय पर से
फटे अतल पाताल कि झर-झर झरे मृत्यु अंबर से
झेल कलेजे पर, किस्मत की जो भी नाराजी है
खेल मरण का खेल, मुक्ति की यह पहली बाजी है।
सिर पर उठा वज्र, आंखों पर ले हरि का अभिशाप।
अग्नि स्नान के बिना नहीं धुलेगा राष्ट्र का पाप।

2 टिप्‍पणियां:

seema gupta ने कहा…

ओ गांधी के शांति सदन में आग लगानेवाले।
कपटी, कुटिल, कृतघ्न, असुरी महिमा के मतवाले?
वैसे तो, मन मार शील से हम विनम्र जीते हैं,
आततायियों का शोणित, लेकिन, हम भी पीते हैं।
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार
सावधान! ले रहा परशुधर फिर नवीन अवतार।
"acche lgee pdh kr"
Regards

Manish Kumar ने कहा…

रामधारी सिह दिनकर की कविताएँ स्कूल के जमाने से ही मन में जोश भरती आई हैं। जन जागरण की ऍसी ही भावनाओं से जुड़ी एक कविता हिमालय मुझे अत्यंत प्रिय है और हाल में ही उसे सबके साथ बाँटा भी था।
आपके द्वारा प्रस्तुत कविता पहली बार पढ़ी। यहाँ प्रस्तुत करने का आभार। और हाँ ये भी मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि अपने शहर का कोई शख्स ब्लॉगजगत से जुड़ गया है।