शनिवार, 29 नवंबर 2008

जला रहे थे आशियानों को

वो जवान थे, आंखों में धधकती आग थी
जला रहे थे आशियानों को
हमने नहीं की थी दुश्मनी
तो फिर किससे थी
किसने भरा ऐसा जहर उनके दिमाग में
एक सवाल, जो कौंधता है
खोजता है
उन जहरीले बीजों को
जो पनप रहे हैं, होंगे कहीं इसी धरती पर
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लेकिन उनका क्या हो
जो पनप रहे, इसी देश में
हमारे-आपके बीच
बांट रहे जहर, मीठी बातों से
गरम चाय के प्यालों के साथ
और हम हैं कि होते जा रहे कमजोर
आतंकवाद के एड्स के साथ
दिन ब दिन
जिसकी अभी तक नहीं बना दवा
और जहर बन गयी है खुली हवा
उन धुओं से
जो आशियानों के जलाने से उठे हैं
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शायद ये सवाल वहां भी उठता होगा
जहां से वे आये थे
धूल का गुबार जब होगा शांत
पानी जब होगी साफ
हम न चाहते हुए भी भूल जायेंगे
दोहरायेंगे फिर वही कहानी पुरानी
कंधारवाली
क्योंकि हमारे नेता सुधरेंगे नहीं
क्योंकि वे नशे में हैं
पावर के, इस गुमान में कि देश है
एक भारत
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पर ये तो जल रहा है
पल-पल, हर पल
बिना रुके

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

इस दुखद और घुटन भरी घड़ी में क्या कहा जाये या किया जाये - मात्र एक घुटन भरे समुदाय का एक इजाफा बने पात्र की भूमिका निभाने के.

कैसे हैं हम??

बस एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खुद के सामने ही लगा लेता हूँ मैं!!!

युग-विमर्श ने कहा…

कविता पसंद आई.