बुधवार, 31 दिसंबर 2008

क्या बात है, लाजवाब हैं ये तस्वीर


हमारे एक पारिवारिक मित्र कुछ दिनों पहले गये थे हांगकांग। वहां के Giant Buddha/Po Lin Monastery, Hong Kong की कुछ खास तस्वीरें खींचकर भेजी हैं। जो यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।



HAPPY NEW YEAR





रविवार, 28 दिसंबर 2008

नारी स्वतंत्रता के नाम पर अंधी बहस

स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर वैचारिक मंथन का दौर जारी है। शायद एक खास ब्लाग ने इस मामले में अच्छा-खासा जोर लगा दिया है। मामला ये है कि आप आधे भरे ग्लास को आधा खाली या आधा भरा हुआ कह सकते हैं। एक बात कहना चाहूंगा कि स्त्री को आप मूल रूप से कब स्वतंत्र कहेंगे, जब वह बाहर घर की देहरी लांघ उन सारे मामलों का दायित्व संभाले, जो एक पुरुष समाज में संभालता है। या फिर घर में होम मैनेजर की भूमिका में परिवार के भविष्य को सकारात्मक और सुरक्षित दिशा देने का काम करे। (क्योंकि हर व्यक्ति की दृष्टि में स्वतंत्रता के मायने अलग-अलग हो सकते है।)

ये स्पष्ट है कि आज के दौर में अब ऐसा कोई पद नहीं बचा, जहां महिलाएं जिम्मेदारी नहीं संभालती हैं। आज वे सफलता की सीढ़ियां चढ़कर नयी कहानियां लिख रही हैं।

जब स्त्री स्वतंत्रता को लेकर पहला आंदोलन हुआ होगा, तब से लेकर आज तक गंगा में काफी पानी बह चुका है और साथ ही इसे लेकर की जा रही बहस अब पुरानी हो चली है। अगर आप हिन्दी ब्लाग जगत में की जा रही बहसों पर गौर करें, तो आपको कम से कम ये जरूर लगेगा कि यहां की मानसिकता अभी भी प्री मैच्योर (यानी परिवक्वता की शुरुआती अवस्था) में है। ये हो सकता है कि इस नाम पर स्थापित मंच अपनी खास पहचान बना ले, लेकिन इस पर की जा रही बहस को फिर से पुरानी अवस्था में ये मोड़ने जैसा है।

आज की स्थिति काफी भिन्न है। आज पुरुष और स्त्री की स्थिति बराबरी वाली है। हां,ये कहा जा सकता है कि समाज में बेटी और बेटे को किया जा रहा फकॆ थोड़ा ज्यादा जरूर है। जिसने एक खासा असंतुलन पैदा कर दिया है। लेकिन थोड़ा नजरिया बदलें, तो इसे कम जरूर किया जा सकता है। अब जहां तक पुरुषों के साथ नारी की बराबरी करने का सवाल है, तो इसके लिए वैसी आक्रामकता की जरूरत नहीं है, जिसका उपयोग पुरुषों के खिलाफ किया जा रह है। यह तो स्वस्थ बहस, संतुलित दृष्टिकोण और सकारात्मक नजरिये से ठीक किया जा सकता है।

जहां महिलाओं द्वारा पुरुषों के व्यवहार को लेकर जतायी जा रही आपत्तियों की बात है, तो इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है। लेकिन ये जरूरी नहीं, महिलाएं पुरुषों की शैली की नकल कर ही अपने वचॆस्व की बात को साबित करे। कई तरीके हैं। हमारे हिसाब से अपनी योग्यता को बढ़ाना और समाज में व्याप्त कमजोरियों को दूर कर ही समस्या का समाधान किया जा सकता है। ये तो ऐसा मुद्दा है कि इस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है।

दूसरी ओर हम ये जरूर कहना चाहेंगे कि नारी स्वतंत्रता के नाम पर जिस प्रकार के खुलेपन की आस की जा रही है या जो कुछ समाज में परिवतॆन हो रहा है, उसने सामाजिक बिखराव में काफी योगदान दिया है। संयुक्त परिवार का टूटना, एकल मातृत्व और अकेले हो गये वृद्धों के पीछे कहीं न कहीं एक ऐसी निरंकुश होती जा रही मानसिकता का योगदान है, जिसने हमारे जेहन पर प्रहार कर ब्रेनवाश करने का काम किया है। जरूरत ये है कि नारी स्वतंत्रता के मुद्दे पर जब बहस हो, तो संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाये, नहीं तो ये एक ऐसी अंधी खाई की ओर बढ़ना होगा, जहां से निकलना आसान नहीं होगा।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

इनके लिए फोटोग्राफी जुनून है

Hello my Friend,sanjay has posted few photogeaphs.

as sanjay told me- Here are few pics of his freinds house.Recently he invited him to the House Warming Ceremony of this newly built one. he liked the tastefully decorated house. please tell us how did u like them. your remarks would encourage us.








गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

टूटते रिश्तों की डोर संभालना जरूरी

हमारे रिश्ते में एक व्यक्ति का बेटा दूर दिल्ली में रहता है। बातचीत में किसी ने कहा-भाई, उसने तो खुद शादी कर ली। बिहार और झारखंड में उतना खुलापन नहीं रहने के कारण हम इन बातों को सहज में नहीं लेते। क्योंकि अब तक भी हम यहां अंतरजातीय विवाह या कहें खुद के चुनाव से मान्यता देने में हिचक महसूस करते हैं। वैसे इन दिनों इस मामले ने जोर पकड़ा है और काफी लोग इसके पक्षधर हैं। बात यहां बच्चों द्वारा माता-पिता से दूर रहकर उनसे दूरी बनाकर खुद के जीवन के फैसले लेने को लेकर है। आज की पीढ़ी ज्यादा स्वतंत्र है। उनके पास जीने के लिए वह सबकुछ है, जो एक आम आदमी को चाहिए। इस क्रम में समाज में खुलापन के नाम पर एक ताजी हवा भी बह निकली है। इस क्रम में खुद से लिये जानेवाले फैसलों ने माता-पिता, चाचा-चाची को अलग-थलग कर दिया है। उन्हें खुद के बेटे या भतीजे पर विश्वास नहीं है और न रह गया है। वे हमेशा एक अनिश्चितता का भाव लिये जीते रहते हैं। आज के ज्यादातर युवा महानगरों में नौकरी के लिए जाने को मजबूर हैं। इस कारण उनका घर से संपकॆ काफी कम रहता है। टेलीफोन पर बातचीत होती तो है, लेकिन मन की दूरी बढ़ गयी होती है। इस मामले ने सामाजिक समीकरणों के जिस ताने-बाने को बिगाड़ा है, उसने काफी हद तक निरंकुशता को बढ़ावा दिया है। क्या ये संभव नहीं है कि युवा नागरिक खुद के फैसले लेने से पहले माता-पिता को भी अवगत करा दें और उनकी अनुमति से ही पहल करें। शायद ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमले जैसा होगा, लेकिन मेरा मानना है कि इससे टूटते सामाजिक ताने-बाने को रोकने में मदद मिलेगी। वैसे आज की पीढ़ी खुद ही काफी समझदार है।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी, ये फासला क्यों?

क्या किसी लंबे सफर पर जाने के समय हमेशा उत्तेजना या कहें उल्लास को कायम रखा जा सकता है? क्या किसी सृजन के लिए लंबा समय नहीं चाहिए। क्या कोई भी प्रतिमा या कहें रचना कुछ पलों में तैयार हो सकती है। नहीं, कभी नहीं। ऐसे में इसके लिए एक खास चीज एकाग्रता की आवश्यकता होती है। जब महाभारत की रचना की जा रही होगी, तो उसके लेखक के मन में गीता और कृष्ण की छवि जरूर केंद्र में होगी। तभी महाभारत की रचना हुई। गीता बिना महाभारत सिफॆ एक कहानी है। वैसे रामायण में राम और रावण की भूमिका और उनके कमॆ ही प्रेरणा के मुख्य स्रोत हैं, बाकी सब कहानी है। इसमें अगर हम तथाकथित ऊब को लक्ष्य कर उसकी विवेचना करें, तो ये एक ऐसे तिलिस्म में हाथ डालने जैसा होगा, जहां सारे रहस्य, सारी विद्वता और सारे तकॆ बेजान हो जाते हैं। क्योंकि रचना के शुरू में कोई ये भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि ये क्लासिक हो जायेगा। या ये चीज ऐसी कहानी या इतिहास लिख जायेगी, जो जन्म जन्मांतर तक सुनायी जाती रहेगी। शायद फेस बुक या गुगल के शुरुआती दिनों में ऐसी ही बात होगी। उस समय खुद इसे शुरू करनेवाले ये नहीं जानते थे कि ये सोशल नेटवरकिंग या सरचिंग नेटवकॆ एक दिन ऐसा विशाल आकार ले लेगा, जहां से सारी इंटरनेट की गतिविधियां संचालित होंगी। एडिशन साहब ने जब बिजली पैदा की होगी, तो ये वे भी नहीं जानते होंगे कि इन्होंने मानव सभ्यता की रातों को उजाले में बदल दिया है। ज्यादा बूढ़ा नहीं हुआ हूं, लेकिन ये जानता हूं कि इस धरती पर हम निमित मात्र हैं। आप जो कमॆ करते हैं, वह भी लिखा हुआ और प्रेरणा स्वरूप होता है। शायद आप माने या न माने, लेकिन ये सही है। पुरानी पीढ़ी शुरू से नयी पीढ़ी को थोड़ा अलग मानती है। पुरानी फिल्मों में भी पिता अपने पुत्र को नयी पीढ़ी के अंहकार से मुक्त होने को कहता है और आज भी आजादी के ६० सालों बात वही कहानी दोहरायी जाती है। इसे ही शायद विशेषग्य कम्युनिकेशन गैप कहते हैं। नयी पीढ़ी, जैसे संघषॆ से होकर गुजर रही है, उसमें कोई दो राय नहीं कि वह ज्यादा परिरपक्व है। पुरानी पीढ़ी में थोड़ी जडता जरूर थी, जिसने आजादी के ४० सालों तक उन परंपराओं को ढोया, जिन्हें बदल देना चाहिए था। गौर करिये, २० सालों में इस देश ने जितने फासले तेजी से तय किये हैं, उतने शायद आजादी के बाद के ४० सालों में नहीं किये। जरूरत ये है कि तटस्थ होने या आलोचक की भूमिका अपनाने को छोड़ कर पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी के साथ कदम ताल करते हुए चले। पुरानी पीढ़ी के सिद्धांत कुछ और होंगे, नयी पीढ़ी के सिद्धांत कुछ और हैं। पुरानी पीढ़ी एक पत्र पाने के लिए महीनों इंतजार करती थी, लेकिन आज की पीढ़ी तकनीक के सहारे कुछ सेकेंड में इमेल के जरिये पत्र पा लेती है। बस एक सकारात्मक नजरिया चाहिए, चीजों को समझने के लिए।

रविवार, 21 दिसंबर 2008

पॉश कॉलोनी, आम लोग और खास नजरिया

आज रविश जी की पोस्ट पढ़ी। इसमें दिनेश राय द्विवेदी जी ने अपनी टिप्पणी में दो शब्दों में सारी बातों को उतार दिया है। उन्होंने कहा-खंबे को खड़े होने के लिए एक गड्ढा चाहिए। खड़े होते ही वह भूल जाता है कि उस के पांव गड्ढे में ही दबे हुए हैं।

हम यहां बिहार-झारखंड में पॉश कॉलोनियों के नाम पर रांची के अशोक नगर और पटना की पाटलिपुत्र कॉलोनी के बारे में जानते थे। बड़े हुए, तो पता चला कि इनमें समाज के उस तबके के लोग रहते हैं, जिन्होंने प्रशासनिक मशीनरी को अपनी उंगलियों पर नचाया था। इस संदभॆ में इतनी बातें कही और सुनायी जाती हैं कि आप किताबें लिख डालें।

खैर, बात वो नहीं है, बात है हमारी अपनी मानसिकता की। हम आज तक खास कर बिहार में इन बातों से प्रभावित हैं। वैसे बिहार में रहनेवालों के मन में विरोधाभासी नजिरयां रखनेवाली मानसिकता कुछ ज्यादा ही है। इसलिए यहां प्रशासनिक पदों को लेकर एक खास तरह का आकषॆण है। ये आकषॆण इन कॉलोनियों में रहनेवाले उन लोगों को देखकर भी पैदा हुआ होगा, जो कभी भारतीय प्रशासनिक मशीनरी के अंग हुआ करते थे।

अब रविश जी की पोस्ट से ये भी पता चल गया कि दिल्ली में रहनेवाले लोग भी इसी मानसिकता के शिकार हैं। कोई इलाका रहन-सहन के हिसाब से ज्यादा बेहतर रहता है, तो इसके पीछे कारण प्रशासन द्वारा उस इलाके के प्रति खास नजरिया रखना भी होता है। इसे लेकर वहां के आसपास के लोगों में आत्ममुग्धता की स्थिति भी घर करती जाती है। हमारा नजरिया ये होना चाहिए कि कौन कहां रहता है, उससे अलग, हम जहां हैं, वहां कैसे चीजों को और बेहतर करें। वैसे आज कल ये खास संस्कृति पनप रही है कि लोगों को उनके पहनावे और रहने के स्थान से तौला जाता है, न कि उनके विचारों से। ये उभरते उपभोक्तावाद का वह विकृत चेहरा है, जिसकी चाह ने ऐसे विवाद पैदा कर दिये हैं, जिनका राज ठाकरे जैसे फायदा उठा रहे हैं। जरूरत इन खास टिप्पणियों या सलाहों को नजरअंदाज कर स्वस्थ मानसिकता को प्रश्रय देने की होनी चाहिए।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

एक सफल भारतीय महिला-चंदा कोचर

मैंने जब सुना कि चंदा कोचर आइसीआइसीआइ बैंक की नयी सीइओ होंगी, तो मुझे एकबारगी लगा कि जो बहस भारतीय नारी की समाज में पोजिशन को लेकर अब तक चलायी जा रही है, क्या वह उचित है? हमारे देश की राष्ट्रपति एक महिला है, कांग्रेस पाटीॆ की अध्यक्ष महिला है। आइसीआइसीआइ बैंक की नयी सीइओ चंदा कोचर है। न जानें और कितनी ही सफल महिलाएं हैं। सूची लंबी है। अब मन में एक संतोष है कि कम से कम भारतीय महिला की पोजिशन को लेकर आगे साथॆक बहस होगी। भारतीय महिला अब काफी आगे बढ़ चुकी है। अखबारों में चंदा कोचर के नये सीइओ बनने की खबरें अटी पड़ी हैं। ये कोई एक दिन में हासिल की हुई उपलब्धि नहीं है, बल्कि एक ऐसी सफलता है, जो लगातार परिश्रम, धीरज और लगन से मिली है। आज सफल भारतीय नारी की पहचान के रूप में चंदा कोचर का नाम स्थापित हो चुका है। चंदा कोचर आइसीआइसीआइ बैंक की नयी सीइओ होंगी। वह अब तक ज्वाइंट एमडी और सीएफओ थीं। काफी लंबे समय से सीइओ रहे केवी कामथ अप्रैल ०९ में अपने पद से रिटायर हो रहे हैं। कोचर ने बैंक के रिटेल बिजनेस को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी है। उनके नेतृत्व में बैंक ने चार सालों तक बेस्ट रिटेल बैंक का अवाडॆ जीता। अमेरिका की प्रसिद्ध बिजनेस मैगजीन फाच्यूॆन ने ०७ में कारोबार जगत की सबसे शक्तिमान महिला की सूची में उन्हें ३३ वें पायदान पर रखा था। मंदी के दौर में बैंक का नेतृत्व संभालने जा रही कोचर के कामों को देखना काफी दिलचस्प होगा। चंदा कोचर को उनकी इस उपलब्धि पर बधाई।

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

सम्मानजनक रिटायरमेंट लें द्रविड़


राहुल द्रविड़ मेरी ही उम्र के हैं। इंडियन टीम के सबसे सीनियर खिलाड़ियों में हैं। हाल के मैचों में उनके परफारमेंस को लेकर चिंता जतायी जा रही है। सीधे सपाट शब्दों में उम्र का खेल पर हावी होना साफ झलकता है। सचिन, गांगुली और द्रविड़ भारतीय क्रिकेट जगत के अनमोल हीरे हैं। सचिन ने इग्लैंड के खिलाफ शतक मारकर अपनी कायम क्षमता का परिचय भी दे दिया है। गांगुली रिटायर हो चुके हैं। तीनों ही समान उम्र के हैं और इन्होंने भारतीय क्रिकेट को काफी कुछ दिया है। इनकी अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन जो सवाल मन में है, उसे कहने को इच्छुक हूं। मन ये कहता है कि क्या किसी खिलाड़ी को एक खास पड़ाव पर, लोकप्रियता के शिखर पर ही सम्मानजनक विदाई नहीं लेनी चाहिए? एक महत्वपूणॆ सवाल है? जो आनेवाले क्रिकेटरों और खिलाड़ियों को भी प्रभावित करेगा। भारतीय क्रिकेट जगत काफी उतार-चढ़ाव के बाद फिर मजबूती ओर बढ़ रहा है। लेकिन सवाल वही, क्या ज्यादा उम्र के खिलाड़ी टीम के साथ रहें उचित है। इन खिलाड़ियों का दबदबा शायद उन नये खिलाड़ियों के मौकों को दरकिनार कर दे रहा है, जो इन सीनियर खिलाड़ियों के नहीं रहने से उन्हें मिलता। किसी भी खेल में कम से कम एक खास समय की सीमा होनी चाहिए। गांगुली दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जरूर टिके रहे, लेकिन आखिरकार रिटायरमेंट ले ली। इस उम्र में अगले १५-२० सालों तक इन खिलाड़ियों में कम से कम इतनी फिजिकल फिटनेस जरूर रहती है कि ये यंग जेनरेशन को गाइड कर सकें। अपना समय खेलने से ज्यादा यंग जेनरेशन के खिलाड़ियों को दे सकें। ये जरूरी भी है। खेलों में मिल रहे पैसे और प्रसिद्धि का मोह शायद उन्हें खुद को रिटायर घोषित करने से रोकता है। लेकिन इस मोह का त्याग करना जरूरी है।

क्या आपने हंसी चिड़ियां देखी है?

क्या आपने हंसी नामक चिड़ियां देखी है? यह सवाल इसलिए कि लोगों की मुरझायी, पथरीली और उदासीन आंखों में मुझे उस उल्लास, उमंग की तलाश है, जो इस हंसी चिड़ियां को देखने से आती होगी। हंसी नाम की चिड़ियां न भी हो, तो भी कम से कम कोयल की कुक तो सुनने को मिल ही जाये। सुनते हैं कि कोयल की कुक सुनकर मन शांत और साफ हो जाता है। मेरे घर की चारों ओर कंक्रीट के जंगल हैं, पेड़ तो हैं नहीं। न तितलियां आती हैं, न कोयल और न मैना। कहते हैं या पढ़ता आया हूं कि मानव सभ्यता ने काफी तरक्की की है। लेकिन इस मानव को खुद के बनाये शीशे के घर को हमेशा पत्थर से बचाने की फिक्र लगी रहती है। मुझे लगता है कि ६० फीसदी लोगों ने सुबह का सूरज कई सालों से न देखा होगा। क्या इस घोर जंजाल में हंसी नाम की चिड़ियां मिलेगी? मैं हर दिन उन दो-चार बच्चों से मिलता हूं, जो अनाथ हो चुके होते हैं। उनकी सुनी आंखों में उस उल्लास और निश्छल प्रेम को खोजता हूं, जो आज कहीं खो गया है। मशीनी जिंदगी में दादा-दादी को पोते-पोतियों के साथ खेलने की आस को धुएं में खोता देखता हूं। सुना है, हम तरक्की कर गये, लेकिन ये कैसी तरक्की है, जिसने हंसी नाम की चिड़ियां को जिंदगी से दूर कर दिया है। सुना है, ऐसे-ऐसे हथियार हैं, जो एक बार में हजारों गोलियां बरसाते हैं। लेकिन ऐसे हथियार अब तक क्यों नहीं बने, जिनसे हंसी की फुलझड़ियां निकलती हों। मुंबई पर हमले के बाद भी मैंने हंसी नाम की चिड़ियां की काफी खोज की। लेकिन लगता है, वो हमसे रूठ गयी है। ये दिसंबर महीना भी बीतने को है। साल खत्म हो जायेगा। क्या अगले साल हंसी नाम की चिड़ियां मिलेगी?

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

ये मत कहना- बेटा औकात में रहियो

ज्ञानदत्त पाण्डेय सर कहते हैं-उस दिन शिवकुमार मिश्र ने यह बताया कि "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई" या "ऐ गनपत चल दारू ला” जैसी भाषा के गीत फिल्म में स्वीकार्य हो गये हैं तो मुझे बहुत विचित्र लगा। थाली की बजाय केले के पत्ते पर परोसा भोजन तो एक अलग प्रकार का सुकून देता है। पर कचरे के ढ़ेर से उठा कर खाना तो राक्षसी कृत्य लगता है। घोर तामसिक।

लेकिन एक बात है कि ये गीत हमारे समाज में क्यों स्वीकायॆ हो रहे हैं, क्या इसके बारे में हमने कभी सोचा?
जिस समाज में संस्कृत जैसी भाषा को बिसार दिया गया और हिंगलिश का प्रचलन बढ़ गया हो,वहां इस स्तर की भाषा का इस्तेमाल क्या नहीं होगा?

अब जरा किसी दोस्त यार से आप संवाद कर लें, तो शराब पीने के नाम पर वह जरूर कहेंगे- भाई एक पैग मार आता हूं या दारू बड़ी मस्त थी यार।

अब यहां आप फिर उलझन में होंगे कि यार ये दारू के साथ मस्त शब्द कहां से आ गया। अब मैं जब भोपाल के लोगों से बात करता हूं, तो वे अपने की जगह अपन का प्रयोग करते हैं।

बिहार में हम सब या यू कहें एक रुपया दे दो
की जगह एगो रुपया दे दो बोलते दिखाई पड़ेंगे।


भाषा की शुद्धता की अहमियत कहां रह गयी है।
जब आप पोते से बोलते होंगे-बेटा डोंट क्राय (मत रो), तो फिर पोता आगे चल कर
मैं क्राय (रोता) नहीं करता ही बोलेगा,
यह थोड़े ही बोलेगा कि मैं रोता नहीं हूं।

भाषा को छनने दीजिये। कम से कम हिन्दी को तो छनने ही दिया जाये। हो सकता है कि एक दिन अंगरेजी की ही तरह ब्रिटेन की हिन्दी, इंडियन हिन्दी, तमिल हिन्दी का अलग-अलग वरगीकरण करना पड़े। क्योंकि भाषा को जितना सवॆव्यापी और सहज बनने देंगे, उतना ही लोगों का इससे जुड़ाव रहेगा।

पुरानी पीढ़ी के लोगों को ये बात खटकती होगी, लेकिन जब बात तनाव घटाने की होती हो, तो ये कहना अच्छा लगता है

"ऐ गनपत चल दारू ला

गोली मार भेजे में भेजा शोर करता है...

अब इतना लिखने के बाद ये मत कहना- बेटा औकात में रहियो

हम तो कहेंगे-डोंट बी सिली यार, ऐता तो चलता है।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

अनुनाद जी आपकी बात मन को छू गयी

कभी-कभी कोई टिप्पणियों में कही गयी बातें मन को छू जाती है। चलिये हिंदी ब्लागिंग को श्रेष्ठ बनायें शीषॆकवाली पोस्ट में अनुनाद सिहं जी ने काफी गंभीर, ध्यान खींचनेवाला और सामयिक टिप्पणी की है। ये गंभीर बातें टिप्पणियों की भीड़ में खो न जायें, इसलिए मैंने इसे इसे पोस्ट के रूप में डालना उचित समझा। सोचता हूं कि ये बातें वृहद् स्तर पर लोगों के सामने आनी चाहिए। अनुनाद जी की टिप्पणी काफी बेहतर,मागॆदशॆन करनेवाली और हिन्दी ब्लाग जगत की बेहतरी के लिए है।

उन्होंने कहा था-

आपने बहुत ही महत्व का विषय उठाया है; इसके लिये साधुवाद।

किन्तु मेरे खयाल से आप हिन्दी ब्लागजगत को श्रेष्ठतर बनाने के लिये आवश्यक सबसे महत्वपूर्ण बाते नहीं कह पाये हैं। इस सम्बन्ध में मैं आपसे अलग विचार रखता हूँ ।

मेरा विचार है कि हिन्दी ब्लागजगत में विषयों की विविधता की अब भी बहुत कमी है। ज्यादातर 'राजनीति' के परितः लिखा जा रहा है। तकनीकी, अर्थ, विज्ञान, व्यापार, समाज एवं अन्यान्य विषयों पर बहुत कम लिखा जा रहा है।

दूसरी जरूरत है आसानी से सहमत न होने की। इमर्शन ने कहा है कि जब सब लोग एक ही तरह से सोचते हैं तो कोई नहीं सोच रहा होता है। उसने यह भी कहा है कि हाँ-में-हाँ मिलाना सभ्यता के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक सम्यक प्रकार से विचारों का विरोध/अन्तर नहीं होगा तब तक न नये विचार जन्म लेंगे न विचारों का परिष्कार होगा।

हाँ एक चीज और जरूरी है कि जो लोग अब भी अंग्रेजी में लिखने का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं, उन्हे हिन्दी में लिखने के लिये निवेदन किया जाय, उकसाया जाय, प्रेरित किया जाय|

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

चलिये हिन्दी ब्लागिंग को श्रेष्ठ बनायें

मेरा ब्लाग से परिचय अपने घनश्याम जी (घन्नू झारखंडी जी) www.jharkhandighanshyam.blogspot.com के माध्यम से हुआ। नेट, जो दो-तीन साल पहले तक अंगरेजी के जानकारों तक ही सीमित था, उसकी हिन्दी में उपलब्धता को देखकर एक सुकून और आनंद की लहर दौड़ पड़ी थी। ब्लाग बनाने के चक्कर में न जाने कितने घंटे गुजारे। अखबार में काम करता हूं। डेस्क पर हूं। लिखने से ज्यादा लिखी चीजों को छांटने-काटने का काम करता हूं। ब्लॉग को देखकर लगा कि कम से कम इसमें अपने विचारों और मन की उड़ान को जगह मिल जायेगी। मिली भी, अब पांच महीने होने को हैं, लगातार लिख रहा हूं।

लेकिन इस ब्लागिंग की दुनिया में वैसा कोई मापदंड नहीं है, जिससे किसी रचना की श्रेष्ठता मापी जा सके। अगर कहें कि टिप्पणी को मापदंड माना जाये, तो वैसे में जिस ब्लॉग से सबसे ज्यादा लोगों का भावनात्मक लगाव होता है, उन्हें ज्यादा टिप्पणियां मिलती हैं। ऐसे में भावना के जुड़ जाने से ये मापदंड खत्म हो जाता है। यहां मेरे हिसाब से प्रयास लोगों को बेहतर लेखन की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करने की है। लिखने के साथ-साथ ज्यादा पढ़ने, जानने और खुद को बेहतर करने की कोशिश हो।

ऐसा न हो कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ आग उगलने की बात हो, तो आप-हम उन सारी गंदी चीजों की उलटी करें, जो हमारी सामान्य जिंदगी में नहीं होना चाहिए। ब्लॉग को एक स्वस्थ मंच बनाने की दिशा में पहल होनी चाहिए। कुछ ऐसा हो, जिसका हम सब पालन करें।

जैसे- किसी प्रकार की अनचाही और गलत बातों को टिप्पणी में न डालें
दूसरों के प्रति संबोधन में उनकी इज्जत का ख्याल करें
दूसरों के व्यक्तिगत जीवन का उल्लेख करने से पहले उनकी सहमति ले लें।
दूसरे लोगों को अच्छा और बेहतर लिखने के लिए प्रोत्साहित करें
खुद को बेहतर बनाने की कोशिश हो, लगातार


हमारा मकसद किसी व्यक्ति विकास केंद्र की स्थापना का नहीं है, बल्कि अपनी सोच को ऐसी धार देने की है, जिससे हिन्दी ब्लागिंग पर भी श्रेष्ठता का मुहर लग सके। ज्यादातर बातचीत में महसूस होता है कि ब्लाग जगत के बारे में लोगों में अच्छी राय नहीं है। लोगों का कहना है कि ब्लाग जगत आक्षेप और निंदा की जगह हो गयी है। लेकिन अगर हम प्रयास करें, तो इसे सुधार सकते हैं। पिछली एक पोस्ट में भी मैंने इन बातों का उल्लेख किया था।

ब्लाग को मन की डायरी है। इसमें हमारा पूरा स्वरूप झलकता है। इसलिए इस आईने को कम से कम साफ-सुथरा रखना हमारा कतॆव्य है। जिससे जो भी एक बार यहां आये, यहां का होकर रह जाये।

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

मुरगे की टांग, अपशगुन और मेरी जिंदगानी


भाई मानिये या न मानिये ब्लागिंग के चक्कर में बाहरी दुनिया से कट सा गया था। संयोग से घर में भी काफी दिनों बाद अकेला था। वैसे नौकरी और घर के चक्कर में किसी प्रकार समय निकाल कर ब्लागिंग कर ही लेता हूं।

इस नशे का क्या कहें, जो हमेशा कुछ पोस्ट डालने के लिए कुनमुनाता रहता है। इधर पिछले दो हफ्तों से मुंबई और आतंक, इन्हीं दो शब्दों ने जिंदगी और सोच का ताना-बाना गड़बड़ा दिया था। गुरुवार को अवकाश रहता है। इसलिए इस बार सोचा जमकर मस्ती की जाये।

११ बजे उठा, मुंह धोया और कुछ देर आदतन ब्लागिंग करने के बाद चला गया मेन रोड। मानिये या न मानिये काफी मस्ती का मूड था। सोचा अकेला हूं, मुरगे की टांग तोड़ी जाये। लेकिन दिमाग में ऐसी कोई जगह नजर नहीं आ रही थी, जहां जाकर मजा लिया जाये मुरगे की मसालेदार टांग का। वैसे बडॆ फ्लू के चक्कर के बारे में फिर सुन रहा हूं। एहतियातन पहले इन खबरों के कारण मुरगे की टांग तोड़ने पर परिवार में रोक लगा दी जाती है।

लेकिन जीभ था कि मान ही नहीं रहा था।

मेन रोड में ही एक जगह खुले में मुरगे की टांगों के मसालेदार तरीके से पकाया बनाया जाता है। कभी बाहर के खाने में इन्फेक्शन के डर से खाता नहीं था, लेकिन इस बार जीभ ने दिल को मात दे दी। और २५ रुपये में रोटी और मुरगे की टांग तोड़ने के लिए बैठ गये। ओह क्या जायका था.... वैसे मेरे हिसाब से फाइव स्टार में बैठकर भी ऐसे खाने का आनंद नहीं ले पाइयेगा। वहां एक मित्र भी मिल गये। उन्हें भी बैठा लिया था।

अब खाते-खाते दिन के तीन बजे। निकल पड़े स्कूटर पर घर के लिए। पर रास्ते में एक बूढ़े रिक्शेवाले गये टकरा। गिरते-गिरते बचे। लगा, बेचारे मुरगे की नजर लग गयी। याद आया, पिछले सप्ताह एक सीनियर ने समझाया था, शनिवार और मंगलवार को दाढ़ी मत काटना, हनुमान जी नाराज हो जाते हैं। लेकिन हमने कहा, भाई स्माटॆ बनना मेरी फितरत है। बिना शेविंग किये मैं नहीं रहता। लेकिन उस रिक्शेवाले के अड़ंगा डालने के बाद सोचा, कहीं दाढ़ी काटने और मुरगे की टांग को गुरुवार को खाने के कारण जीवन का गणित तो नहीं गड़बड़ा रहा। फिर क्या था, कुछ देर तक सोचते रहे। फिर सोचा, चलो आधा दिन तो बीत गया, अब आगे देखा जायेगा।

शाम को बनवाया आमलेट दुकान पर और ब्रेड के साथ भोजन कर दूध पी बैठ गया ब्लाग लिखने। इस समय साढ़े नौ बज रहे हैं। दो घंटे बाद सोने चला जाऊंगा।
मुरगे की टांग की बुरी नजर को हिम्मत और दरियादिली से हरा दिया। किसी ने सच ही कहा है पोजिटिव थिंकिंग से कुछ भी जीता जा सकता है। इसलिए अगली बार अवकाश में बिना किसी नजर या अपशगुन की परवाह किये फिर मजे लूंगा मुरगे की मसालेदार टांग का।

निवेदन- कृपया नानवेज खानेवाले ही पढ़ें

ये तस्वीर कुछ बोलती है



टैगोर हिल रांची में रवींद्रनाथ टैगोर की जिंदगी से जुड़ा है। कहते हैं टैगोर की जिंदगी के कुछ हिस्से इस पहाड़ी से भी जुड़े हैं। रांची की धरोहरों में एक ये टैगोर हिल प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। टैगोर हिल के प्रवेश द्वार को कैमरे की नजर में कैद किया है मेरे मित्र संजय बोस ने।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

एक किनारे ज्ञानदत्त जी, समीरजी......और दूसरे किनारे हैं महान एनोनिमस जी

कुछ दिनों पहले हमने पोस्ट डाली थी परिवारवाद का विरोध हो और एक-दो पोस्ट प्रतिक्रियावादी होकर लिखी। लेकिन उसके बाद अपने कुछ मित्रों को भी वही कहते हुए पाया, जिनके बारे में मैंने पोस्ट में जिक्र किया। उन साथियों का कहना था कि ब्लॉग जगत निंदा, कटाक्ष और गैर-जरूरी बहस का मंच बन गया है। लेकिन इन सबके अलग सोचता हूं कि क्या प्रतिक्रियावादी होकर हम सब इन चीजों को सुधार सकते हैं।

बताते हैं कि पहले कुछ ही ब्लाग थे और आज उनकी तुलना में कई गुना ज्यादा हैं। खुशी होती है। यहां यह कहना महत्वपूणॆ होगा कि इसी ब्लॉग जगत में ऐसे विद्वत जन भी हैं, जो आपको अपनी बड़प्पन का बिना कुछ कहे एहसास करा जायेंगे। याद होगा, शुरुआत में समीरलाल जी के टिप्पणी देने के अनुरोध के मुद्दे पर काफी विवाद नजर आया था। लेकिन समीरलाल जी ने अपनी लेखनी में कभी इन चीजों का एहसास नहीं होने दिया। फिर हाल के दिनों में ज्ञानदत्त पांडे जी से भी परिचय ब्लॉग के जरिये हुआ। इनकी टिप्पणियों और सही-सटीक बातों से जैसा मागॆदशॆन मिलता है, उससे तो ऐसा ही लगता है कि प्रतिक्रियावादी होना व्यथॆ है। मुझे लगता है (व्यक्तिगत रूप से) कि इन्होंने ब्लॉग जगत को अपनी लेखनी से एक अलग सोच दी है। अब कोई इन्हें ब्लॉग जगत का महानायक कहे या नायक।

हमारा मानना है कि जब चारों ओर गंदगी हो, तो गंदगी की जगह साफ जगह को तरजीह देने की कोशिश होनी चाहिए। प्रतिक्रियावादी होकर हम किसी का विचार नहीं बदल पायेंगे। हां, ये जरूर होगा कि हमारी पोस्ट काफी पढ़ी जायेगी। और जैसा कि माननीय एनोनिमस भाई साहब करते आये हैं, उनका एक अजब-गजब कमेंट जरूर आयेगा।

माननीय एनोनिमस भाई ने मुहल्ला ब्लॉग में गांव रहने लायक नहीं बचा... और मीडिया?" शीषॆकवाली पोस्ट में कुछ ऐसी ही टिप्पणी की,

हे हे...वाह बेटा... 13 साल तक तो मलाई चाट रिये थे और एनडीटीवी के हर कर्म का गुणगान कर रिये थे... अब नौकरी छूटी तब कमियां याद आयी... वाह रे भोथरी पत्रकारिता के पैने शहसवार :) जब तक पैंसो कि थैली मिली, जबान पर दही जम रिया था इनके... अब बोटी नहीं मिलती तो खोटी-खोटी बक रिये हैं...
हा हा सही बोले पंगेबाज भैये ...


जाहिर है विवाद व्यथॆ का रहेगा। जिसकी अपनी जिद होगी, वह वैसा ही रहेगा। हमारे-आपके सोचने से कुछ होगा भी नहीं। इसमें सही रास्ता यही होगा, जैसा हमारे वरिष्ठ ब्लॉगर साथी (एनोनिमस भाई साहब नहीं) कहते रहते हैं-जो पसंद आये उसे पढ़ो, अच्छा लिखो, बाकी सब कहानी है।

ज्यादा लफड़ा या झंझट में पड़ने की बजाय हम एक-दूसरे को अच्छा पोस्ट और लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित करें, ये जरूरी है। क्योंकि सहयोग से ही प्रेम भावना बढ़ती है और उससे ही समाज का विकास होता है। ब्लॉगरों में कुछ अधिकारी होगा, कोई व्यवसायी, तो कोई पत्रकार। सबकी अपनी विशेष शैली और अनुभव होंगे। अगर उनके अनुभवों से हम कुछ सीखें या सीखने की कोशिश करें, तो उससे हमारे व्यक्तित्व का विकास ही होगा। अब ज्यादा क्या लिखना, बस भिड़े रहना है,
वो जुमला याद है ना-

लगे रहो इंडिया

रविवार, 7 दिसंबर 2008

एसएमएस के गुलाम होते लोग


सामने चाय रखी हो और आप पीने की इच्छा रखते हों, तो आप पीयेंगे जरूर। सामने मोबाइल रखी हो, तो क्या आप मोबाइल पर उंगलियां टिपियायेंगे नहीं? करेंगे ही,कमबख्त ये आदत ही ऐसी है कि किसी प्रोग्राम में एमएसएस के लिए अपील देखी नहीं की, शुरू कर देते हैं टिपियाना। इस टिपियाने के नशे ने औसत आदमी की आमदनी का बेड़ा गकॆ करके रख दिया है। जब तक उसके मन का लाल बटन उसे ऐसा करने से रोकता है, वह एसएमएस कर चुका होता है।

पहले पत्र लिखते समय, न जाने क्या-क्या चिंतन, भाषा और छंदों का इस्तेमाल होता था, लेकिन इस शॉटॆ मैसेज सरविस ने उन सारी कलाओं को मृत कर दिया। धन्य हो ये ब्लॉग जगत, कम से कम लेखनी, वह भी खुल कर लेखनी को इसने ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां से अब सिफॆ सूयॆ का उदय दिखता है।

करोड़ों के खेलवाले एमएमएस गेम को समझने काफी आसान है। आधा तेरा और आधा मेरा की तजॆ पर चैनलवाले एसएमएस करवाते हैं। घाटा तो दशॆकों का ही होता है। यहां तक शहादत जैसी बातों में भी शोक जताने के लिए एसएमएस कराये जाते हैं। लोग जताते भी हैं। पांच-सात रुपये का खचॆ ज्यादा नहीं लगता। लेकिन किसी-किसी के लिए ये जैसे नशा जैसा हो गया है। आखिर तत्काल सेवा के जमाने में इच्छा पर नियंत्रण जैसी चीज को बेमानी कर दिया है। इसलिए आगे से भाई अगर एसएमएस करने जाओ, तो दो ग्लास पानी जरूर पी लेना कि कहीं सही जगह तो करने एसएमएस करने जा रहे हो।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

इनके लिए फोटोग्राफी शौक नहीं जुनून है

फूल खिलते हैं कभी-कभी

देखो ये चांद निकल आया


संजय बोस हमारे बचपन के मित्र हैं। इनके लिए फोटोग्राफी शौक नहीं जुनून है। अपने कैमरों से प्रकृति की हर छटा को कैद करने की चाहत में कुछ अलग सा फोटो हमारे सामने आये हैं। उन्हें आपके साथ बांटने का मन करता है।



रांची के टैगोर हिल की एक शाम

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

क्या एक सेलिब्रिटीज को विरोध का हक नहीं?

क्या किसी सेलिब्रिटिज द्वारा आतंकवाद का विरोध करना सिफॆ दिखावा है? क्या मुंबई के हौसले को जंग लग गयी है? क्या ताज पर हमले के कारण ही इतना बड़ा बवाल हुआ? क्या किसी छोटे शहर में ऐसी घटना होने पर बवाल नहीं होता?

ऐसे कई प्रश्न हैं, जिन पर लोगों ने कई लेख लिख डाले हैं। चिंतन किया है और आक्रोश जाहिर कर रहे हैं। ये जाहिर है कि इस बार मुंबई में हमले ने उस अभिजात्य वगॆ या कहें पूंजी की दृष्टि से मजबूत उस तबके को झकझोर दिया है, जो एअरकंडीशंड रूम में बैठे जमीन की सच्चाई से अलग होकर जिंदगी जीता है। एक चिंतक ने वतॆमान व्यवस्था पर प्रहार करते हुए कहा-हमारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है। लोग एकाकी जीवन जी रहे हैं। लोगों का एक-दूसरे से संपकॆ खत्म हो रहा है। पूवॆ की सामाजिक व्यवस्था में निगहबानी आसान थी, लेकिन आज के हालात में जब पड़ोसी एक-दूसरे से अनजान रहते हैं, तो फिर किसे क्या कहें।

नामी-गिरामी लोगों या कहें फिल्मी दुनिया के लोगों द्वारा विरोध की बात को मध्यम वगॆ मजाक के रूप में लेता है। वह कहता है-इनका विरोध करने से क्या मतलब रहता है। यह सच भी है। क्योंकि भारत के मध्यम वगॆ की परेशानियों से उन्हें मतलब नहीं होता। गरीबी किसे कहते हैं, ये जानते नहीं और रोटी उनके लिए कोई समस्या नहीं होती।

एक बात और ध्यान देने की है कि नक्सलियों के हमलों से देश का बड़ा तबका अनजान है। फिर एक सवाल उभरता है कि बाहरी आतंकवाद के बारे में तो सब जान चुके हैं, लेकिन हमारी जनता क्या आंतरिक आतंकवाद से पूरी तरह परिचित है? इस सवाल पर भी अजीब सी खामोशी छायी रहती है।

आक्रोश सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है। लेकिन ये भ्रष्टाचार कोई एक दिन में पनपा तो नहीं है। ये कोई तुरंत खत्म होनेवाला भी नहीं है। सिस्टम को गाली देनेवालों में शामिल होने से बेहतर मैं तो समझता हूं कि सिस्टम को बदलने का बीड़ा उठानेवालों में शामिल होइये। हम लोगों में से ही अधिकांश अपने काम कराने के लिए जेबें ढीलीं करने के लिए तुरंत तैयार हो जाते हैं। हमने अपनी मानसिकता ही इस कदर बना ली है कि इस बदल चुके सिस्टम को स्वीकार कर चुके हैं।

ज्वार की तरह उफने आक्रोश को ज्यादा दिन तक झेलने की इस सिस्टम को आदत हो चुकी है।

इस क्रम में कम से कम जब कोई फिल्म स्टार आक्रोश जताता है, तो हमें उनके प्रति सहानुभूति जरूर होनी चाहिए कि उन्होंने सामने आने की हिम्मत तो की। अधिकांश समय सामाजिक सच्चाइयों से दूर रहनेवाले ये लोग अगर सामने आकर अपनी संवेदना जताते हैं, तो इसमें हजॆ किया है। उनकी इस पहल की हमें प्रशंसा करनी चाहिए। क्योंकि एक छोटी पहल कब बड़ी बन जाये, कौन जानता है।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

चीन से टकराने की बात क्यों नहीं करते?

देश में शांति चाहिए। किसी ने कहा था कि अगर शांति चाहिए, तो युद्ध के लिए तैयार रहो। लेकिन क्या हम युद्ध के लिए तैयार हैं? आज भारतीय सेना की हालत खराब है। सैन्य उपकरण पुराने हो चुके हैं। सुरक्षा तंत्र बेहाल है। नये युवक सेना में जाना नहीं चाहते। उन्हें तो मैनेजर की नौकरी में लाखों मिल जाते हैं, तो भला वे सेना में क्यों जायें? कहा ये जा रहा है कि पाकिस्तान पर सीधे आक्रमण कर दो। लेकिन क्या आप चीन पर आक्रमण की बात कर सकते हैं? नहीं, क्योंकि चीन आपको नानी याद दिला देगा। आपसे विचार, पैसे और आबादी तीनों में चीन आपसे ज्यादा ताकतवार है। इसलिए जरूरत अपनी जमीन को और मजबूत करने की है, न कि एक-दूसरे को आरोपी बनाने का।

वैसे आपके चिंतन के लिए................


Peace, in the sense of the absence of war, is of little value to someone who is dying of hunger or cold. It will not remove the pain of torture inflicted on a prisoner of conscience. It does not comfort those who have lost their loved ones in floods caused by senseless deforestation in a neighboring country. Peace can only last where human rights are respected, where people are fed, and where individuals and nations are free.

-- The XIVth Dalai Lama

बाबरी मसजिद ध्वंस-क्या हुआ था-माकॆ टुली की रिपोटॆ

ये देश आज घोर आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है। समय खुद के अंतरमन को खंगाल डालने का है। गलतियां कहां हुई। कहां चूक हूं। हम इस कंफ्यूजन के दौर में कैसे आये। ज्यादा क्या कहूं। बाबरी मसजिद मामले की जानकारी लेने के प्रयास में बीबीसी के पूवॆ दक्षिण एशिया संवाददाता माकॆ टूली की रिपोटॆ पर नजर पड़ी, जो कि घटना के प्रत्यक्ष गवाह थे। एक घटना जिसने भारतीय इतिहास को उस अंधेरी सुरंग की ओर मोड़ दिया, जहां से निकलने की छटपटाहट आज भी बरकरार है। इसे यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं।

ये रिपोटॆ बीबीसी से साभार है।


On 6 December 1992, I was standing on the roof of a building with a clear view of the Babri Masjid in Ayodhya.

This was the day the Bharatiya Janata Party (BJP) and other organisations supporting it were to begin work on building the temple, but they had given a commitment to the government and the courts that it would only be a symbolic start, a religious ceremony and no damage would be done to the mosque.



I saw young men clambering along the branches of trees... and rushing towards the mosque

A vast crowd, perhaps 150,000 strong, had gathered and was listening to speeches given by BJP and right-wing Vishwa Hindu Parishad (VHP) leaders.

Among those present were LK Advani and Murli Manohar Joshi, now senior figures in the BJP-led government.

Trouble first broke out in the space below us when young men wearing bright yellow headbands managed to break through the barriers.

Journalists beaten

The police stood by and watched, while some men wearing saffron headbands and appointed by the organisers to control the crowd did try to stop them.

They soon gave up, however, and joined the intruders in beating up television journalists, smashing their cameras and trampling on their tape recorders.


Many Hindu activists wore saffron as they approached the site

Encouraged by this, thousands charged towards the outer cordon of police protecting the mosque.

Very quickly, this cordon collapsed and I saw young men clambering along the branches of trees, dropping over the final barricade, and rushing towards the mosque.

Crowd carried away

The last police retreated from the mosque, their riot shields lifted to avoid being hit by stones the crowd was throwing at them, and two young men scrambled on top of the mosque's central dome and started hacking away at the mortar.


Security forces were unable to stop the destruction

They were soon joined by others.

As telephone lines had been cut, I drove to Faizabad to file my story for the BBC and then tried to return to the site.

Before I could reach there, I and the Hindi-language journalists with me were threatened and then locked in a room by kar sevaks (Hindu volunteers).

We were kept there for several hours before we were rescued by a local official assisted by the head priest of one of Ayodhya's best known temples.

But by then the Babri Masjid had been totally demolished.

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

ये तो हमारा घोर अपमान है- डॉग ग्रुप सोसाइटी

रात के १२ बजे जब अपने प्रेस से घर वापस आ रहा था, तो रास्ते में कुत्तों का वृहद् सम्मेलन देखकर ठिठक गया। विश्वास दिलाता हूं कि मैं कुत्तों की भाषा समझ सकता हूं। लेकिन दुख है कि कुत्तों की तरह बोल नहीं सकता। बहस बिलकुल सामयिक और रोचक चल रही थी।

मुद्दा नेताओं द्वारा उनके अपमान का था।

यहां नेताओं के लिपिस्टिक प्रसंग से लेकर एनएसजी के शहीद कमांडो के परिवारवालों के प्रति दी गयी टिप्पणियों पर जोरदार बहस चली। अंत में सवॆसम्मति से निंदा प्रस्ताव पारित हुआ।


प्रस्ताव - कुत्तों की वफादारी को नजरअंदाज करना कुत्तों का अपमान है। आज दुनिया के हर राष्ट्राध्यक्ष के समारोह स्थल पर पहुंचने से पहले ही कुत्ता पहुंचता है और सुरक्षा सुनिश्चित करता है। कुत्ता जिसका नमक खाता है, उसके प्रति आजीवन वफादार रहता है। वह ऐसे नेताओं से काफी ऊंचा है, जो सिफॆ स्वाथॆ और पुश्त दर पुश्त के लिए धन इकट्ठा करने के पीछे लगे रहते हैं। हम जैसे हैं, वैसे ही ठीक हैं। हम ऐसे नेताओं की घोर निंदा करते हैं, जो हमें हीन भावना से देखते हैं और हमारी तौहीन करते हैं।

भारी मन से कुत्तों के समूह द्वारा पारित प्रस्ताव सुनकर घर आया।

उद्वेलित हूं।
क्या आप कुछ कहेंगे?

अल्बटॆ पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?

यहां दरिया में आग लगी है और पूछते हो कि ये बोलनेवाले कौन हैं। शायद यही हाल है कि हमारे नेताओं का। उन्होंने गुस्साये लोगों के खिलाफ भड़ास निकालने का यही तरीका अपनाया है कि कुछ भी बोल दे रहे हैं। सुना है कि नकवी साहब ने माफी भी मांग ली है। लेकिन भाई ये कहां का सिस्टम है कि आप टाइ-कोटॆ पहनने और लिपिस्टिक लगाने पर आपत्ति जताना शुरू कर दें। शायद अब नकवी साहब के हिसाब से धोती-कुरता और साड़ियों में ही सिफॆ भारतीय होने का मुहर लग पायेगा।

आज पूरी जमात गुस्से में है। गुस्से में क्यों नहीं हो, दो सौ जाने आतंकी आकर सरेआम ले लेते हैं और तीन सौ को घायल कर देते हैं। मुंबई शहर और पूरा सिस्टम असहाय हो जाता है। इसके बाद यदि जनता में से सात लोग ही एक जगह खड़े होकर मोमबत्ती जलाते हुए सिस्टम को चलाने का रौब झाड़नेवाले नेताओं से सवाल-जवाब करते हैं, तो इसमें आपत्ति की क्या बात है? आतंकी ताज होटल को इतना नुकसान कर गये हैं कि उसकी भरपाई करने में सालों लग जायेंगे। विनाश का खेल आंखों के सामने हैं। किसी का बाप सर पीट रहा है, तो किसी की मां की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। आक्रोश, दुख और हताशा का ऐसा समन्वय भारतीय इतिहास में शायद ही कभी देखा गया होगा। उसमें अगर लोगों में गुस्सा उबाल पर है, तो गलत क्या है? रोम जल रहा था, तो नीरो बांसुरी बजा रहा था। आज ये देश जल रहा है, तो ये नेता शायद यही कर रहे हैं। इस्तीफे की नौटंकी कर कितनी जानें और कितने घायलों के ददॆ को ये नेता समेट सकेंगे।

नकवी साहब हमारी तो ये सलाह है कि अगर आप शिकायतों और आपत्तियों को सुनने की हिम्मत नहीं करते हैं, तो फिर राजनीति करना छोड़ दें। अब देश में कोई नकवी साहब के हिसाब से शोक मनाने के लिए नहीं जायेगा। एक अकेला आदमी भी चाहे तो विरोध जता सकता है, कहीं भी।

भाई नकवी साहब, आक्रोश को समझिये, ठंडे दिमाग से। अभी जनता गुस्से में है। आपसे नहीं,इस सिस्टम से, जिसे आपकी पाटीॆ भी पाने की कोशिश में लगी हुई है। वैसे नकवी साहब की छवि एक साफ-सुथरी नेता की रही है। अगर वे अपना संतुलन खो रहे हैं, तो दूसरे नेताओं से तो मीडिया दूर से ही बात करेगी।