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बुधवार, 3 मार्च 2010

नारीवादी समर्थकों से सवाल है कि उनका मुहं तब क्यों नहीं खुलता, जब खुद नारी ही नारी की शोषक होती है।

नारी समर्थकों और सौंदर्य समर्थकों की नोक-झोंक के बीच में बेनामी महाराज का कूदना, कुछ ऐसा लगा जैसे नारद मुनि देवलोक से उतर आये  हों। पिनका-पिनका कर बहस को आगे बढ़ा रहे थे। सारे दोस्तों ने दामिनी नामक फिल्म जरूर देखी होगी। दामिनी एक महिला रहती है। उसी महिला के फिल्म में डायलॉग रहते हैं कि मां की छाती से बालक दूध निचोड़ कर पीता है और बड़ा होता है। मां के पेट में जीवन जन्म लेती है। ये भी प्रकृति की अद्भुत देन है कि स्त्री ही मां भी बन सकती है। दुर्गा सप्तशती में एक जगह मां से ऐसी पत्नी देने की प्रार्थना की जाती है, जो इस भवसागर को पार करा दे। स्त्री के कई रूप होते हैं-मां, बहन, भाभी, दोस्त आदि। उन्मुक्त होते समाज में शायद बहस की धार में ये संबंध खोते मालूम होते हैं

कहते हैं कि जब पेट की आग शांत रहती है, तभी सेक्स प्रकरण की समझ भी दिमाग में घुसती है। वैसे में जब संतुष्टि के स्तर से ऊपर उठकर व्यक्ति सोचना शुरू करता है, तभी दैहिक सुंदरता के बारे में भी सोच विकसित होती है। सवाल ये है कि हम कहां रहते हैं या रहना पसंद करते हैं। जंगल में जंगल के कानून के साथ या परिवार में शिष्टाचार के दायरे में।

जब हम कहते हैं कि फलां-फलां अभिनेत्री ने कहा कि हममें सेक्स अपील है, तो क्या हम इस बात का उल्लेख पारिवारिक दायरे में कर सकते हैं। यही से सवाल उपजते हैं कि हम कितने खुले हैं। अगर हम खुले हैं, तो हममें एड्स जैसे विषय पर बात करने में संकोच क्यों रहता है? जब एड्स जैसे विषय या बीमारी को लेकर बहस करेंगे और बात चलाएंगे, तो एक ऐसा व्यापक फलक उभरेगा कि आप उसमें भुतला जाएंगे। क्योंकि ये कोई सिर्फ बीमारी नहीं है, बल्कि समाज के बिगड़ते समीकरण का वह जीवंत दस्तावेज है, जहां से हमारी बुनियाद दरकनी शुरू हो गयी है। ये हमें हमारे समाज की सही तस्वीर उपलब्ध कराती है

 शायद अरविंद जी ने एक जगह सवाल उठाया था कि किसी अभिनेत्री ने कहा है कि हमें सेक्सी कहलाना अच्छा लगता है। सवाल ये है कि क्यों अच्छा लगता है। सेक्स अपील क्या है? क्या सेक्स अपील, किसी को सहज तौर पर आकर्षण है या कुछ और। उसी तरह सुंदरता, ताजा हो या बासी, सुंदरता होती है। मर्यादा में सुंदरता के मायने कुछ और होते हैं। संदर्भ के साथ कही गयी चीजों के मायने कुछ और होते हैं। हम लौटकर वहीं आते हैं कि हमारी बहस की निजता क्या  ब्लाग के दायरे में है? हम मानसिक स्तर पर इतने गरीब हैं कि कमेंट्स के दौरान व्यक्तिगत सीमा के पार जाने से भी नहीं हिचकते।

हमने बहस के लिए जरूरी वैचारिक अमीरी को खो दिया है। अरविंद जी ने कहा-वी आर कन्फ्यूज्ड अ लॉट। या सर वी आर कन्फ्यूज्ड। वी आर कन्फ्यूज्ड बीकॉज वी डोंट नो हाउ वी शुड आरगु, सो दैट ए कंक्रीट रिजल्ट शुड अराइव। हमारी बहस हमारी नहीं होती। उसमें एक आवेग होता है। हम विषय की गहराई में नहीं जाना चाहते। हम ये नहीं जानना चाहते हैं कि सेस्कुअल फंतासी की दुनिया गोवा जैसे राज्य में क्या हाल कर रही है? न जाने कितनी सामाजिक वर्जनाएं रोज ब रोज टूट रही हैं। 

नारीवादी समर्थक उन तमाम दिक्कतों और समस्याओं को लेकर भी आग उगलें, जिसके कारण स्त्री को मात्र वस्तु मानकर छोड़ दिया गया है। पुरुषों को नैतिकता का पाठ पढ़ाकर कितनों में सुधार लाया जायेगा। नारीवादी समर्थकों से सवाल है कि उनका मुहं तब क्यों नहीं खुलता, जब खुद नारी ही नारी की शोषक होती है। प्रश्न गंभीर है। बस बात वही है कि हमें बस कुछ कहना है, तो हम कह देते हैं। हमारे सामने विषयवस्तु की संपूर्ण रेखा साफ नहीं होती। वैसे नारीवादी समर्थक भी सोचेंगे जरूर।