गुरुवार, 26 नवंबर 2009
रविवार, 22 नवंबर 2009
आज भी कंपा जाती है वह रात... (श्रद्धांजलि लेख मृतकों के नाम)
ठीक एक साल पहले, २६ नवंबर की रात ११ बजे काम के बाद घर को विदा होने को थे। शांत रात, सर्द मौसम और सिकुड़ता देह बता रहा था कि शरीर कंबल की गरमी पाने को बेचैन है। तभी न्यूज चैनल पर मुंबई में गोली चलने की आवाज सुनाई पड़ी थी। बस यूं ही उत्सुकता बस मुरिया उठा के देखे कि क्या मामला है? शुरू में मामला सतही लगा। सतही बिलकुल सतही. ये नहीं पता था कि उस गोली की आवाज हिन्दुस्तान के शरीर में नासूर के जख्म देने जा रही है। जिसका दर्द आज तक एक साल के बाद साल रहा है। आधे घंटे बाद घर आया, तो चैनलों पर तूफान मचा था। तूफान, ऐसा तूफान, जिसे आतंकवाद का सुनामी कहें, तो अच्छा होगा। ताज होटल के कोरिडोर और रेलवे स्टेशन पर आतंकियों द्वारा गोलियों की बौछार की खबर धड़कनें तेज कर दे रही थी। पूरी रात या यूं कहें भोर के चार बजे तक पूरी कहानी देखते रह गए। वह काली स्याह रात कभी भी जेहन से नहीं मिटेगी। मन आज भी धिक्कारता है। धिक्कारता है-बार-बार कि इस देश के लोग किस तरह के हो गए। ये दुनिया किस तरह की हो गयी। उसके बाद बयान, पलट बयान का सिलसिला चलता रहा। जो आज तक जरूरी है।
उस रात लिखी गयी मेरी पोस्ट...
मैं आतंकियों की गोली के शिकार हुए लोगों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
आज मेरा अवकाश था। लेकिन मुंबई में आतंकवादी घटनाओं के बाद दफ्तर में बुला लिया गया। खबरों की बाढ़ और बेहतर अखबार छापने का जुनून हर पत्रकार के चेहरे पर हमसाया था। विचलित मन, कठोर दिमाग और मुट्ठियां भिंचकर पल-पल खबरों की टीवी से जानकारी लेते हुए सब अपने काम में लगे हुए थे। इसी में एक खबर मेरी नजर से होकर गुजरी। आदत के अनुसार सरसरी तौर पर खबर को पढ़ डाला। लेकिन वह सरसरी भरी निगाह एक युवक की मुंबई में मौत की खबर पढ़कर चौकन्नी हो गयी। फिर घबराहट,विकलता और व्याकुलता का दौर १४-१५ मिनट तक दिल और दिमाग पर हावी रहा। क्या करें, क्या नहीं, समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि जिस युवक की मौत हुई थी, वो मेरे परिचित का बेटा था। नाम था मलयेश बनरजी। खुद मेरे गुरु रहे डॉ मान्वेंद्र बनरजी का बेटा था। डॉ बनरजी स्थानीय रांची कॉलेज के ख्यातिप्राप्त शिक्षक हैं। उस लड़के की छह दिसंबर को शादी होनेवाली थी। बुधवार को जब घर में उसकी मौत की खबर मिली, तो कोहराम छा गया। मलयेश एक होनहार युवक था। वह एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। अपने माता-पिता की एकमात्र संतान मलयेश काफी तेज छात्र था। उसने आइआइटी खड़गपुर से इंजीनियरिंग और उसके बाद मैनेजमेंट की पढ़ाई की थी। बुधवार को होटल ताज में कंपनी के उच्चाधिकारियों के साथ बैठक करने के बाद मलयेश अपने तीन दोस्तों के साथ होटल के सामने स्थित नरीमन प्लाइंट पर कॉफी हाउस में गया था। इसी बीच अचानक आतंकियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। एक गोली मलयेश की जांघ में लग गयी। पहले उसे एक अस्पताल और बाद में जेजे अस्पताल ले जाया गया, लेकिन काफी खून बह जाने के कारण उसकी मौत हो गयी। इस आतंकी हमले ने एक होनहार युवक को हमारे बीच से छीन लिया। इस आतंकी हमले का असर अब हमारे जीवन पर साफ नजर आ रहा है। आज रात मुझे नींद नहीं आयेगी। पिछले ४८ घंटे इसी आत्ममंथन में बीत गये हैं कि इन नेताओं के जुमले सुन-सुनकर क्या हम इसी तरह जीते चले जायेंगे।
इस हमले में जो जवान शहीद हुए और जो निदोॆष मारे गये, उन लोगों की आत्मा की शांति के लिए प्राथॆना करता हूं। प्राथॆना ताज होटल के जीएम और उनके परिवार के लिए भी करता हूं, जिन्हें आतंकियों ने अपनी गोली का शिकार बना डाला। ये आतंक का खेल कब रुकेगा, समझ में नहीं आता। मेरी आंखें भर आयी हैं। अब चाहे इस हमले का हम कितना भी विश्लेषण कर लें, लेकिन उस मां को क्या उसके दो बेटे दिला पायेंगे, जो कि इस हमले में मारे गये हैं। भावनाएं उमड़ रही हैं, लेकिन इन भावनाओं को नियंत्रित करना ही होगा। चलिये शहीदों और मारे गये लोगों की आत्मा की शांति के लिए फिर से प्राथॆना करें।
घर लौटा, तो मलयेश की शादी के काडॆ पर नजर पड़ी। उस काडॆ पर मेरे हाथ स्वतः चले गये। ये उस शादी का काडॆ था, जो कभी नहीं होगी। बस ये याद दिलायेगी कि एक आतंकी हमले ने एक ऐसी जिंदगी छीन ली, जो किसी के घर या किसी मुहल्ले को रौशन करता था। पता नहीं.... इस देश के लोगों को क्या-क्या झेलना होगा।
इस हमले में जो जवान शहीद हुए और जो निदोॆष मारे गये, उन लोगों की आत्मा की शांति के लिए प्राथॆना करता हूं। प्राथॆना ताज होटल के जीएम और उनके परिवार के लिए भी करता हूं, जिन्हें आतंकियों ने अपनी गोली का शिकार बना डाला। ये आतंक का खेल कब रुकेगा, समझ में नहीं आता। मेरी आंखें भर आयी हैं। अब चाहे इस हमले का हम कितना भी विश्लेषण कर लें, लेकिन उस मां को क्या उसके दो बेटे दिला पायेंगे, जो कि इस हमले में मारे गये हैं। भावनाएं उमड़ रही हैं, लेकिन इन भावनाओं को नियंत्रित करना ही होगा। चलिये शहीदों और मारे गये लोगों की आत्मा की शांति के लिए फिर से प्राथॆना करें।
घर लौटा, तो मलयेश की शादी के काडॆ पर नजर पड़ी। उस काडॆ पर मेरे हाथ स्वतः चले गये। ये उस शादी का काडॆ था, जो कभी नहीं होगी। बस ये याद दिलायेगी कि एक आतंकी हमले ने एक ऐसी जिंदगी छीन ली, जो किसी के घर या किसी मुहल्ले को रौशन करता था। पता नहीं.... इस देश के लोगों को क्या-क्या झेलना होगा।
बुधवार, 18 नवंबर 2009
पहल तो खुद से ही करनी होगी।
घुघूती बासूती नेट के दुष्प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। नेट के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जायज है। आज-कल इसे लेकर एक सब चिंता जाहिर कर रहे हैं। हालिया इंडिया टुडे के अंक में इस पर विशेष रपट भी है। लेकिन जब हर पांच घरों में से एक में नेट उपलब्ध हों, तो अब इस पर चिंता जाहिर करना चाय पीने पर चिंता जाहिर करने जैसा लगता है। हमें याद है कि नेट के आने से पहले या इ-क्रांति से पहले ऐसी पत्रिकाओं की भरमार रहती थी या कहें जंगल बाजार था, जिनसे बच्चों को दिग्भ्रमित होने के पूरे मौके होते थे। शायद अब भी होते होंगे, लेकिन नेट क्रांति ने उनका बाजार समेट कर रख दिया है। चिंता इस बात को लेकर जाहिर की जाती है कि नेट पर बच्चे कहीं किसी गलत चीज या सूत्र पर तो हाथ नहीं डाल रहे। लेकिन चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि आज-कल के मां-बाप के पास अपनी संतान के लिए वक्त क्यों नही है? सामाजिकता के दायरे में बंधने से बच्चों को रोकने की पहल क्यों की जाती है? नेट को बस वर्किंग कल्चर तक समेटने तक ठीक है, लेकिन जिस दिन ये सामान्य जीवनचर्या को प्रभावित करने लगता है, उस दिन ये समझ लेना चाहिए कि पानी सर से ऊपर गुजर चुका है। हमें ये नहीं समझ में आता कि सामान्य बच्चे को नेट डेढ़-दो घंटे से ज्यादा समय बिताने की अनुमति कैसी दी जा सकती है? वैसे मामला सामाजिक सुरक्षा का भी है। कुकुरमुत्ते की तरह उग आये साइबर कैफे निगरानी की जद से बाहर रहते हैं। ऐसे में उन पर निगहबानी उतनी आसान नहीं रहती। इसलिए जरूरत नेट पर निर्भरता को कम करने के साथ-साथ कैफे जैसी जगहों पर भी नजर रखने की है कि कहीं आपका लाल बिगड़ तो नहीं रहा। खतरा है, पर खतरे को बढ़ाने के जिम्मेदार भी माता-पिता हैं। वे बच्चों के प्रति हद से ज्यादा लगाव के शिकार हैं, जिससे बच्चे अनुशासनहीन और बिगड़ैल होते जाते हैं। बाप या मां की कड़ी नजर प्रभावित नहीं करती और वे नेट पर दो से बढ़ाकर चार-पांच घंटे तक दिन के ज्यादातर समय बिताते हैं। पहल तो खुद से ही करनी होगी।
मंगलवार, 17 नवंबर 2009
पान दुकान भी सुनसान नजर आने लगे हैं
जब से टीवी कल्चर आया है। हर परिवार आधुनिकता के पायदान पर चढ़ता जा रहा है। इसमें पान खाने की संस्कृति में गिरावट ही आयी है। हमारे मिथिला में तो पान संस्कृति जड़ में समायी रहती है। लेकिन हमारे जैसे लोग, जो लगातार बाहर रहे, उन्होंने पान की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। पान दुकान कल्चरल सेंटर हुआ करती थी। हर मुहल्ले की पान दुकान उन सो कॉल्ड लोगों की अड्डेबाजी या टाइम पास का स्थान हुआ करता था, जो निठल्ला चिंतन किया करते थे। घर में बैठे-बैठे समय नहीं कटता था, तो पान की दुकान पर बतकही कर आते थे। ये भी अपने आप में जीवनशैली का खासा अंग हुआ करता था। लेकिन जब से आधुनिक होते जा रहे समाज का रंग बदलने लगा है, अब पान दुकान भी सुनसान नजर आने लगे हैं।पान दुकान पर सचिन की बल्लेबाजी से लेकर साहित्य और अमेरिकी चुनाव तक की चर्चा हो जाया करती थी। वहां से गुजरते हुए न जाने कितने रश्ते या तो नए हो जाया करते थे या नए बन जाते थे। पान की दुकान उन चुनिंदा जगहों में शामिल हुआ करती थी, जहां गप्पबाजी अपने चरम पर होती थी। वहां गूंजती ठहाकों और बहसों की आवाज कार की पों-पों का शोर दब जाता था। पान दुकान के मालिकों के रौब के तो क्या कहने? वे गहरे सामाजिक सरोकार रखनेवाले शख्सियत के रूप में तब्दील हो जाते थे। क्योंकि पान की दुकान पर गरीब, अमीर से लेकर छात्र तक हरे रंग की पत्ती का स्वाद चखने आया करता था। अब भी पान की दुकान चौक-चौराहों पर लगती है, लेकिन उनमें वो रौनक गायब है। या तो पान खानेवाले कम हो गए हैं या इसके कई विकल्प तलाश लिये गये हैं। पान खाने की संस्कृति में बदलाव हमारे संस्कारों में बदलाव को बयां करता है। कैसे, ये तो शोध का विषय है। वैसे भी घर में आये लोगों का स्वागत सिर्फ चाय से करने की लत ने तो खेल को और बिगाड़ डाला है।
सोमवार, 16 नवंबर 2009
अभिव्यक्त करो, लेकिन अंदाज बदल कर
आज-कल एक एडवर्टाइजमेंट में लड़की के चेहरे पर साटी गयी मूंछ उसके पुत्र के जन्म के समय तक जारी रहती है। यानी जन्म-जन्म का साथ देता प्रोडक्ट बताता है कि उसकी चिपकाहट में इतनी ताकत है कि वह छूटती ही नहीं। यहां बताने का तरीका भा जाता है।
वे आफ एक्सप्रेशन एक कला है। किसी चीज को आप कैसे बताते हैं? अभिव्यक्ति, सुंदर अभिव्यक्ति सबके बस की बात नहीं है। लोग कहते काफी कुछ हैं, बस सिर्फ अंदाज काफी कुछ बदल देता है। उस अंदाज में जो बदलाव की शक्ति होती है, वह ये बताने के लिए काफी होती है कि आखिर इस अभिव्यक्ति का उद्देश्य क्या है? टारगेट क्या है? कभी-कभी कोई अपने मन की बात कहने के लिए मौत तक का इंतजार करते रह जाते हैं, वहीं कोई-कोई इस मामले में रनों की झड़ी लगा देते हैं। उनकी बातें लोगों को लुभा जाती हैं। मामला ये है कि आखिर ये गुणवत्ता आती कहां से है? कहां से।
जिंदगी भर तकिये पर आराम से सर टिका कर सोचते रहने से तो नहीं ही आती। थोड़ी बुद्धि भिड़ाइये, तो पायेंगे कि इसके कुछ सूत्र आपके आसपास ही हैं। कभी पानी में छपाक-छपाक की आवाज संगीतकारों के लिए संगीत बन जाती है, तो हमारे लिये सर दर्द... बस मामला वही सोचने भर का है कि कैसे आप सोचते हैं? किस स्तर पर सोचते हैं? हम जो सोचते हैं कि अंततः वही तो हमें अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है। बच्चों से बात करते समय हम बच्चों के स्तर पर सोचते हैं क्या? शायद नहीं। हम बस उन्हें अपनी अवस्था के समकक्ष मानकर अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य करते हैं। वहां भी दबिश के सहारे स्वतंत्र अभिवयक्ति को दबाने की कोशिश होती है।
अभिव्यक्ति तो नदी की अविरल धारा के समान है, जिसे यदि रोकने की कोशिश हुई, तो वह प्रदूषित ही होगी। इसलिए उसे रोकना गुनाह है। उसे बहने दीजिए। धीरे-धीरे ही सही, वह जब आकार लेगा, तो उसकी चमक देखकर आप खुद चौंधिया जाएंगे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर किसी को मिलनी चाहिए।..
लेकिन इसी स्वतंत्रता का दुरुपयोग जब लोग करने लगते हैं, तो माहौल में ऋणात्मक ऊर्जा का समावेश हो जाता है। लोगों की विचारधारा उलट जाती है। दुनिया बदरंग हो जाती है। मेघ काले हों, तो नहीं बरसने तक डरावने लगते हैं, लेकिन बरसात शुरू हो जाने के साथ हमारा डर खत्म हो जाता और हम उस रिमझिम बारिश में आनंद उठाना चाहते हैं। जिंदगी का मजा लेना चाहते हैं। यही तो भावना, प्रेम या कहें अपने अंदर के दर्शन को जताने का एक बहाना होता है।
फिल्में भी विरह की आग में जल रहे नायक-नायिका के मिलन के लिए इन्ही बरसाती रिमझिम का सहारा लेती हैं। न जाने कितनी बार, कितने तरीके से बारिश के दृश्य फिल्माये गये हैं। अब तो आमिर भी करीना के साथ परदे पर भींगते नजर आये हैं। तूफान मचा है, मचने दो, होने दो, जो होता है, वाला नजरिया इनमें अभिव्यक्त होता है। यानी वही अंदाज सबकुछ बदल देता है। अंदाज हमें भी बदल देता है। कभी थोड़ा-कभी ज्यादा
शनिवार, 14 नवंबर 2009
ये शख्स परेशान सा क्यूं है?
एक शख्स खुद की जिंदगी पर किताब लिखे जाने से परेशान है। जाहिर है कि किताब भी किसी खास व्यक्तिगत संबंध रखनेवाले व्यक्ति ने लिखी होगी। वह शख्स मशहूर है। उसकी जिंदगी की कुछ ऐसी बातों को दुनिया के सामने लाया गया है, जो कि मीडिया या कहें लोगों में रुचि पैदा करती हैं। मैं व्यक्तिगत स्तर पर सोचता हूं कि क्या मैं खुद के बारे में किसी को कुछ लिखने की अनुमति दूंगा। किसी ऐसे शख्स को भी नहीं, जिसके साथ मेरे काफी व्यक्तिगत संबंध हैं। हर व्यक्ति की जिंदगी उसकी अपनी होती है। आदमी के जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। उसमें लोग जीते हैं, मरते हैं और गलतियां करते हैं। कुछ दिनों पहले आंद्रे अगासी ने बीते वक्त की कुछ बातों को उजागर किया था, जो ठीक नहीं था। लेकिन ऐसा कर क्या व्यक्तिगत जिंदगी को व्यक्तिगत रहने देने के उस पहलू का आप उल्लंघन नहीं कर रहे हैं, जिस पर सभ्यता का अनुशासन और विचारधारा की नींव टिकी है। निष्पाप कोई नहीं होता, शायद भगवान भी नहीं। उसमें किताबों के सहारे किसी की जिंदगी या खुद की जिंदगी को जगजाहिर करना कुछ ऐसा है, जैसे तकिया के चिथड़े उडा़कर रूई को बिखेर देना। बीती जिंदगी तो उस तकिया के सामान है, जिस पर हम अपनी यादों का बोझ आराम से रखकर आगे की जिंदगी सुकून से जीते हैं। उस सुकून में कंकड़ फेंकने की कोशिश कुछ नागवार गुजरती है। किसी की व्यक्तिगत जिंदगी को व्यक्तिगत रहने देने के हम हिमायती हैं। हम किसी के राजदार या हमराज हो सकते हैं, लेकिन उसकी जिंदगी के किस्से को चटखारे लेकर परोसना गलत है। क्यों किसी की जिंदगी को चर्चा का विषय बनाएं? क्यों? मकसद तो सिर्फ एक ही नजर आता है, पैसा और नाम कमाना। निजता का सम्मान सबसे बड़ा सम्मान है। किसी की जिंदगी उसकी अपनी होती है। उसे भी उस अपनी जिंदगी को सरेबाजार नीलाम करने का हक नहीं। अब अगर कोई कर बैठे, तो आंसुओं के सैलाब में खुद को डूबा लें, ये दुखद तो है ही।
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
माया कैलेंडर, दुनिया की २०१२ में तबाही और डरना मना है...
माया सभ्यता के कैलेंडर के हिसाब से २०१२ में दुनिया का खात्मा हो जायेगा। हालीवुड में एक फिल्म इसी पर बनी है। दहशत, विनाश और सृष्टि के खात्मे की कहानी रोमांचित करती है। हम कल्पनाएं करते हैं, डरते हैं और एक डर को जीते रहते हैं। हमारे भीतर का डर हमें हमेशा से आगे बढ़ने से रोकता है। फिल्मों के सुपर हीरो हमें विनाश से बचाते रहे हैं।
८०-९० का दौर एलियंस से भयभीत रहनेवाला दौर था। न जाने कितने रिसर् पेपर प्रस्तुत हो गए होंगे। हर पत्रिका में एलियंस या कहें अंतरिक्ष से आये लोगों के बारे में लेख मिला करते थे। हम डरते रहे। इस पर भी हॉलीवुड में फिल्में बनीं और धरती को बचाने की कसमें खायी जाती रहीं। हमारे फिल्मकारों ने हमारे भय को समझ लिया है, खासकर हालीवुडवालों ने। उन्होंने इसका एक विशेष बाजार बनाया है और उस पर करीब एक हजार करोड़ की लागत तकवाली फिल्में बना रहे हैं।
चैनल माया कैलेंडर के हिसाब से विनाश की कहानी उकेर कर अपनी टीआरपी बढ़ाते चलते हैं। ये तो हम भी नहीं जानते कि कब क्या होगा? लेकिन जब माया कैलेंडर के हिसाब से दुनिया २०१२ में खत्म हो जाएगी, तो उसके हिसाब से डर की अनोखी दुनिया स्वतः तैयार हो रही है। डर की जिंदगी जीते हम घुप्प अंधेरे में २०१२ की त्रासदी देखेंगे। जिन लोगों ने सुनामी देखा या महसूस किया होगा या मुंबई की बरसात को झेला होगा, उनके लिए वह फिल्म रिएलिटी के करीब होगी। लेकिन प्रकृति या नेचर की इस दुश्मनी के लिए क्या हम जिम्मेवार नहीं हैं, क्या हमें भी खुद को दोषी नहीं मानना चाहिए। हमने पूरी सृष्टि की काया को पलटने की जोर लगा रखी है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ इस कदर है कि अंटार्कटिका जैसे प्रदेश पर खतरा मंडरा रहा है।
मौत के करीब पहुंचती हमारी जिंदगी सभ्यता के विनाश की कहानी को नहीं झेल सकती है। वह इस माया के साथ जिंदा रहना चाहती है कि उसकी समृद्धि को उसके पोते-परपोते भोगें। लेकिन मेरा मानना है कि भगवान ने इस प्रकृति या सृष्टि को क्षमा करने की अनोखी क्षमता है। वह हमारी हर गलती को क्षमा करती रही है। २०१२ की फिल्मी कहानी फिल्मी ही रहेगी और हम ऐसे ही जीते रहेंगे। हमारा यही मानना है, डर की दुनिया को बाय-बाय करने से पहले हम तो यही बोलेंगे-डरना मना है।
कृपा करके अपनी अंगरेजी सुधारें, खुद को सुधारें और नाहक विवाद ना करें
वंदे मातरम गाने को लेकर बहस जारी है। एक भाई साहब ने अपनी पोस्ट का शीर्षक दिया है कि एक भी भारतीय मुसलमान देशभक्त नहीं है। उनकी अंगरेजी पर जरा गौर करें पैट्रियोटिक को पैट्रियोस्टिक लिख डाला। (no-indian-muslim-is-patriostic) भाई साहब आपने ये क्या कर डाला? भाई साहब फरमाते हैं..
जो लोग वन्दे मातरम को लेकर इतना शोर कर रहे है उनमें से किसको "वन्दे मातरम" मुंह ज़बानी याद है??? किसको उसका अर्थ याद है??? भारत के किस शख्स ने "वन्दे मातरम" के अर्थ को अपनी ज़िन्दगी मे उतारा है??? "वन्देमातरम" हो, "जन गण मन" हो, या "सारे जहां से अच्छा" कौन इनके ऊपर अमल कर रहा है??? सबको बस हराम का पैसा चाहिये एक छोटा सा डाकिया भी कोई ज़रुरी कागज़ देने के लिये बीस से तीस रुपये मांगता है और जब भी कोई बेवकुफ़ उलेमा कोई फ़तवा देता है तो यही लोग देशभक्त और देशप्रेमी बनकर खडे हो जाते है गाली देने के लिये!
यहां किसी प्रकार के विवादों से अलग सिर्फ ये सवाल करना है कि आप कैसे पूरे जनसमूह में से या कहें पूरी जमात में से ये सर्वे कर बैठे हैं कि किसे वंदेमातरम, जन गण मन या सारे जहां से अच्छा याद है या नहीं। भाई साहब पूर्वाग्रह को त्यागकर साफ मन से अंदर झांकें, तो पाएंगे कि आप भी इसी मिट्टी के हैं। बाहर से लोग आये लोग जब इस हिंद के हो गए, तो आप तो इस देश के नागरिक है। नाहक विवाद कर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का ये तरीका कुछ जमता नहीं दिख रहा है।
काफी सारे सवाल हैं, काफी जवाब हैं, क्या आप बता सकते हैं या सलाह दे सकते हैं कि हम इस देश में कैसे अमन और शांति बहाल कर सकते हैं। अबू आजमी साहब वहां महाराष्ट्र में हिन्दी के लिए जंग लड़ रहे हैं, तो वे भी इसी देश के नागरिक हैं। हिन्दी मातृभाषा है। उसके अधिकार के लिए एक संघर्ष किया जा रहा है। धर्म, भाषा के विवाद ने इस देश को बर्बाद करके रख दिया है।
हमें तो एक बात जानने की बार-बार इच्छा होती है कि क्या किसी धर्म में ये बताया जाता है कि आप दूसरे पर लगातार दोषारोपण करते रहें। काफी दिनों से देख रहा हूं कि पसंदवाली ब्लागवाणी की सूची में विवादोंवाले ब्लाग की पट्टियां शीर्ष स्थान पर रहती हैं। अब आप ही सोचिये कि ये किस स्तर को इंगित करता है। गुजारिश यही है कि नाहक विवाद पैदा न करें। जिद ना ही करें, तो अच्छा है। क्योंकि हम सब भाई हैं और रहेंगे।
जो लोग वन्दे मातरम को लेकर इतना शोर कर रहे है उनमें से किसको "वन्दे मातरम" मुंह ज़बानी याद है??? किसको उसका अर्थ याद है??? भारत के किस शख्स ने "वन्दे मातरम" के अर्थ को अपनी ज़िन्दगी मे उतारा है??? "वन्देमातरम" हो, "जन गण मन" हो, या "सारे जहां से अच्छा" कौन इनके ऊपर अमल कर रहा है??? सबको बस हराम का पैसा चाहिये एक छोटा सा डाकिया भी कोई ज़रुरी कागज़ देने के लिये बीस से तीस रुपये मांगता है और जब भी कोई बेवकुफ़ उलेमा कोई फ़तवा देता है तो यही लोग देशभक्त और देशप्रेमी बनकर खडे हो जाते है गाली देने के लिये!
यहां किसी प्रकार के विवादों से अलग सिर्फ ये सवाल करना है कि आप कैसे पूरे जनसमूह में से या कहें पूरी जमात में से ये सर्वे कर बैठे हैं कि किसे वंदेमातरम, जन गण मन या सारे जहां से अच्छा याद है या नहीं। भाई साहब पूर्वाग्रह को त्यागकर साफ मन से अंदर झांकें, तो पाएंगे कि आप भी इसी मिट्टी के हैं। बाहर से लोग आये लोग जब इस हिंद के हो गए, तो आप तो इस देश के नागरिक है। नाहक विवाद कर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का ये तरीका कुछ जमता नहीं दिख रहा है।
काफी सारे सवाल हैं, काफी जवाब हैं, क्या आप बता सकते हैं या सलाह दे सकते हैं कि हम इस देश में कैसे अमन और शांति बहाल कर सकते हैं। अबू आजमी साहब वहां महाराष्ट्र में हिन्दी के लिए जंग लड़ रहे हैं, तो वे भी इसी देश के नागरिक हैं। हिन्दी मातृभाषा है। उसके अधिकार के लिए एक संघर्ष किया जा रहा है। धर्म, भाषा के विवाद ने इस देश को बर्बाद करके रख दिया है।
हमें तो एक बात जानने की बार-बार इच्छा होती है कि क्या किसी धर्म में ये बताया जाता है कि आप दूसरे पर लगातार दोषारोपण करते रहें। काफी दिनों से देख रहा हूं कि पसंदवाली ब्लागवाणी की सूची में विवादोंवाले ब्लाग की पट्टियां शीर्ष स्थान पर रहती हैं। अब आप ही सोचिये कि ये किस स्तर को इंगित करता है। गुजारिश यही है कि नाहक विवाद पैदा न करें। जिद ना ही करें, तो अच्छा है। क्योंकि हम सब भाई हैं और रहेंगे।
जय हिंद
बचपन की तस्वीर कई मायनों में अलग हो गयी है
आज बाल दिवस है। स्कूलों में कार्यक्रम होंगे। एक साल फिर बीत जाएगा। २-३ साल के बच्चे स्कूल जाना शुरू कर रहे हैं। उनसे उनकी जिंदगी छीनी जा रही है। फ्लैट सिस्टम में रहते हुए कोई कम्युनिकेशन सिस्टम नहीं विकसित होता है। बच्चे अपने आप में बड़े हो रहे हैं। हम अपनी कॉलोनियों के इर्द-गिर्द कॉलोनियां बसते देखते हैं। देख रहे हैं कि जहां पहले सात-आठ मैदान थे बच्चों के खेलने के लिए, आज वहां कंक्रीट के जंगल हैं। बच्चों से प्यार जताने की औपचारिकता से ऊपर उठकर सोचनेवाले लोग कम हो गए हैं। बच्चे समय से पहले बड़े हो जा रहे हैं। शोधों में पाया जा रहा है कि बचपन और जवानी की दहलीज के बीच की किशोरावस्था गायब हो जा रही है। व्यावहारिक होते जा रहे बच्चों में सादगी नहीं दिखती। स्वकेंद्रित होते जा रहे बच्चे कल किस रूप में दिखेंगे, ये ये सोचकर ही डर लगता है। हमने बचपन के ज्यादातर समय इन्ही जद्दोजहद में बीता दिये कि हम बड़े होकर क्या बनेंगे। हमारे पास विकल्प कम थे। कंचे खेलते और टायर चलाते दुनियादारी से दूर होते हुए आम चोरी करने में समय बीत गया। आज-कल के बच्चे ज्यादा सोफिस्टिकेडेट या कहें, सभ्य हैं। सैकड़ों चैनलों के बीच वे अभी से भविष्य की योजनाएं बनाते हैं। उनके पास हजारों विकल्प हैं। पढ़ने से लेकर आगे काम करने तक के। लेकिन उसके बाद भी तनाव बरकरार है। खुशी गायब है। मैदान खाली नजर आते हैं। उनमें खेलनेवाले बच्चे अड्डेबाजी के शौकीन हो चले हैं। जो चीजें किशोरावस्था से आती थीं, वे बचपन से ही दिखाई देने लगी हैं। तंग गलियों में क्रिकेट का शोर नहीं गूंजता और न ही रबड़ की गेंदों से फुटबॉल खेले जाते हैं। गिल्ली-डंडा तो गायब ही हो गया। बचपन की तस्वीर कई मायनों में अलग हो गयी है।
गुरुवार, 12 नवंबर 2009
पलायन पर आधारहीन चिल्लपों
पलायन ये शब्द आज-कल कानों में करंट दौड़ाता है। बिहार, यूपी के लोगों के दूसरे राज्यों में जाने को लेकर हंगामा मचता है। वास्तविकता क्या है? वस्तुस्थिति क्या है, इस पर शोध किये बिना राजनीतिक दलों के लोग चिल्लपों मचते-करते हैं। रोजगार कैसे पनपेगा, ये सोचिये। आमदनी कैसे बढ़ेगी, ये सोचिये। जब रुपए का आदान-प्रदान होगा, लोग खरीद-बिक्री करेंगे, तभी व्यवसाय भी बढ़ेगा। अगर एक क्षेत्र के लोग उसी जगह सिमटे रहें, तो जरूरत कैसे पैदा होगी, ये सोचिये। Senior Assistant Country Director, UNDP, K. Seeta Prabhu. द हिन्दू में एक साक्षात्कार में माइग्रेसन के मसले पर बताती हैं कि In India, the estimated number of internal migrants moving from one State to the other is 42 million; those who reside at a place other than their place of birth is as high as 307 million. Studies in Andhra Pradesh and Madhya Pradesh indicate that poverty rates fell by 50 per cent between 2001-02 and 2006-07 for households which had at least one migrant. बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों के नाम पर जो कोहराम मचा है, उसके पीछे संकीर्ण सोच ही है। यहां झारखंड तक में बाहरी-भीतरी की राजनीति होती है। बात ये है कि जो ऊपर के पॉलिसीमेकर हैं, उन्होंने कभी संतुलित विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया। वैसे बिहार-उत्तरप्रदेश भी इसके लिए दोषी हैं। भारत जैसे देश में जब एक देश, एक वेश-भूषा की बात लोग करते हैं, तो अलग-अलग कोनों से उठते विवाद कंपा देते हैं। आपके पास विकास के नाम पर कोई मुद्दा नहीं रहता। क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा के नाम पर जब राज्यों का निर्माण किया गया, तभी से इन गलत विचारधारा की नींव पड़ गयी थी। उस नींव पर खड़ी दीवार आज हमारे एक देश की अवधारणा को चोट पहुंचा रही है। व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार देश के विकास को बाधित करता है। लोग नक्सल समस्या, पिछड़ापन और विवादों की वजह से पलायन करते हैं। वे जाएं, तो कहां जाएं। अगर दिल्ली में कभी शीला दीक्षित बिहारियों के आने को लेकर सवाल उठाती हैं और चौहान साहब मध्यप्रदेश में ऐसा ही सवाल करते हैं, तो उलटा सवाल इनकी पार्टियों के आलाकमान से पूछा जाना चाहिए कि आपकी पार्टियां इन क्षेत्रों के विकास के लिए क्या करती हैं या कर रही हैं? मुद्दा पूरा का पूरा उसी विकास पर आ टिकता है। आप अपने नेताओं को विकास के लिए कैसे ट्रेंड करेंगे। अगर शिव सेना भाजपा को केंद्र में समर्थन देती है, वह सवाल पूछे कि बिहार या झारखंड में आपके द्वारा समर्थित या शासित दलों का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है? जिस दिन राजनीतिक दलों के लोग इस एक पैमाने पर सवाल-जवाब करने लगेंगे, तो ये क्षेत्रीय राजनीति खात्म की ओर होगी। अगर असम में आदिवासियों पर हमले होते हैं और बिहार में रेलगाड़ियों पर हमले किये जाते हैं, तो ये महसूस करना होगा कि प्रभावित सब होंगे। जब कोड़ा चार हजार करोड़ रुपए घोटाले के आरोपी पाए जाते हैं, तो ये सोचना होगा कि क्षेत्र का विकास कैसे होगा? लूट की मानसिकता ने कुछ राज्यों को विनाश के गर्त पर धकेल दिया है। झारखंड में दस से ज्यादा जिले नक्सल प्रभावित हैं और एनएच खत्म हो रहे हैं। व्यवस्था प्रभावित हो रही है, तो ये जाहिर है कि लोग जीविका और सुरक्षा के लिए पलायन करेंगे ही। सवाल पूरे देश के स्तर पर पूछने का है। नहीं तो हमारा देश भी पाकिस्तान बन जाएगा और हम बस ताली बजाते रह जाएंगे एक-दूसरे को गरियाते हुए।
सोमवार, 9 नवंबर 2009
अगर जरूरत पड़े, तो जरूर सोचियेगा
कल बातें हो रही थीं, चर्चा का विषय था जीवन में हमारा उद्देश्य। कर्म करना मात्र उद्देश्य हो, उपभोग या कुछ ऐसा देकर जाना, जिसे लोग याद करें। कुछ दिनों पहले एक किताब पढ़ी था-द मांक हू सोल्ड हिज फेरारी। एक किताब जिसमें एक सफल बेचैन वकील के फिर से स्वयं के पुनरुद्धार की कहानी है। जब हाइली पैड एग्जीक्यूटिव जीवन के बारें में या टारगेट के बारे में भाषण देता है, तो लगता है कि वह हमारे साथ छल कर रहा है। हम कहते हैं कि जीवन क्या बस उस खास टारगेट के लिए बना है। महानगरीय जीवन में जब सुबह के नौ बजे से शाम के आठ बजे तक की ड्यूटी के बारे में सुनता या सोचता हूं, तो मन ये कहता है कि ये उन तमाम सुविधाओं, जिसे कि उन्होंने घरों में पैसों के बल पर समेटा है, कैसे और किस समय उपयोग कर पाएंगे। आपाधापी में खुद के लिए दो पलों की फुर्सत नहीं और जहां सुधारने की बातें करते चलते हैं। जब शाहरुख बताते हैं कि थोड़ा और विश करो, तो गुमान होता है कि चलो थोड़ा और विश कर अपनी लाइफ स्टाइल और बेहतर बना देते हैं। लेकिन यही थोड़ा, जिंदगी के बेजरूरत के संघर्ष को कठिनतम बनाने की ओर अग्रसर होता है। ये भी सच है कि हम आज खुद को जिंदा रखने के लिए फास्ट लाइफ स्टाइल में ढल गए हैं। कई लोगों की ये मजबूरी हो गयी है कि वे इसे अपना लें, नहीं तो उनके सामने रोजी-रोटी का संकट हो जाएगा। लेकिन जब करोड़ों की कमाई के बाद भी आपके पास फुर्सत नहीं हो और जीवन के स्तर को मेंटेन करने के चक्कर में अपनी पूरी जिंदगी गुजार दें, तो ये सोचना पड़ता है कि हमारे मशीन बनने के पीछे के कारण क्या हैं? क्या ये हमारी क्षुद्र या लालची मानसिकता नहीं है। हम कभी खुलकर नहीं जीते, हम हिचकते हैं। विचारों के समुद्र में गोता लगाते से डरते हैं। इसलिए शायद अब तक बंगाल, झारखंड में होता उत्पात उतना मनःस्थिति को खराब नहीं करता, जितना खुद के स्वार्थ पर प्रहार होने से होता है। हमने भी आज तक के जीवन में खुद से सुधार की शुरुआत करनेवाले बिरले ही देखे हैं। किसी सेल्स एग्जीक्यूटिव को दरवाजे से टरकाने के पहले क्या हम उसकी मजबूरियों के बारे में सोचते हैं, शायद नहीं। हम खुद से आगे नहीं बढ़ बातें। ये बातें शायद उपदेशात्मक लगे, ऐसा लगे कि महात्मा के नए अवतार ने जन्म लिया है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि ३४ साल की जिंदगी से लेकर अगर ५० साल की उम्र तक सिर्फ बुढ़ापे के लिए बचाने के लिए जंग लड़ा जाए, तो हम उस जंग को किसके लिए माने। अपने लिये, या उस अगली पीढ़ी के लिए, जो हमारे बाद आयेगी। लेकिन वह अगली पीढ़ी भी तो खुद अपना रास्ता अख्तियार करेगी। हमारा यहां थोड़ा खुद के लिए स्वार्थी होने से भी मतलब है। खुद से स्वार्थी होना यानी खुद अपने जीवन के बारे में सोचना, सिर्फ आर्थिक पहलू से नहीं, बल्कि जीवन जीने के पहलू। जहां बेटा या बेटी हमारी झप्पी का इंतजार करता मिले। और जहां कुछ समय हम अपने और परिवार के लिए दें। मेरा ये मानना है कि जिंदगी की खुशी कोई राह चलती मुसाफिर नहीं, जिसे जब चाहा बुला लिया, उसे भी पास जाकर विनती और अनुग्रह के साथ बुलाना पड़ता है। क्योंकि जिंदगी भी प्यार मांगती है। एक प्यार, जिसे आप पैसे या कहें उस आभासी तरक्की के नाम पर ठुकरा रहे हैं, जो आपका कभी नहीं होनेवाला है। अगर जरूरत पड़े, तो जरूर सोचियेगा। ---,
रविवार, 8 नवंबर 2009
हम तो साइलेंट मोड में मोबाइल को रखने के पक्षधर हैं
मुझे कुछ दिन पहले रिंग टोन रखने का चस्का लगा था, तरह-तरह के रिंग टोन्स। अरे कहां जा रिया है, या भाई साहब आपका फोन आया है, जैसे रिंग टोन्स। खोपड़ी भी पूरी खाली हो गयी है ऐसा लगता है इन्हें सुनकर। अगर जिंदगी बेमजा हो गयी है, तो इन रिंग टोन्स का उपयोग करके देख सकते हैं। इनकी बदौलत आप कितने रिएक्शन पा जाएंगे। कोई गरियाएगा, कोई पुचकारेगा और कोई ब्लू टुथ के सहारे आपकी रिंग टोन्स को अपनाएगा। तकनीकी की दुनिया ने व्यक्तित्व की परिभाषा बदल दी है। रिंग टोन्स बताते हैं कि फलाना आदमी लफ्फुआ या बाजारू किस्म का है या कुछ सीरियस। फिल्मी गीतोंवाले रिंग टोन्स की बात ही निराली होती है। कोई धुन आपको कभी शांत माहौल में उस जन्नत की सैर कराएगा, जहां से आप कभी लौटना नहीं चाहेंगे। कुछ कानफोड़ू किस्म को टोन्स दिमाग को भन्ना डालते हैं। बाजार में रिंग टोन्स भी स्टेटस सिंबल बन गए हैं। वे बताते हैं कि आपका मोबाइल किस टाइप या ब्रांड का है। स्टीरियो साउंड के सहारे आपकी मोबाइल की गुणवत्ता आंकी जाती है। जब मोबाइल लटक वस्तु बन ही गए हैं, तो रिंग टोन्स का भी जिंदगी से जुड़ाव उतना ही सच हो गया है। इसे दरकिनार कैसे किया जाए। हमने तो अपने फिल्मी गीतोंवाले रिंग टोन्स बदल डाले। क्योंकि इन रिंग टोन्स ने अब चिड़चिड़ापन भी लाना शुरू कर दिया है। बाथरूम में रहिएगा, तो बज उठेगा गली में आज चांद निकला। भैया चांद तो बाद में निकलेगा, लेकिन अपनी तो इंप्रेशन खाली-पीली मिट्टी में मिल गयी। हम तो साइलेंट मोड में मोबाइल को रखने के पक्षधर हो गए हैं। न तो किसी को परेशानी होगी और न कोई टोकेगा। लेकिन अगर सब साइलेंट मोड में मोबाइल यूज करने लगें, तो रिंग टोन्स के बाजार का क्या होगा? ये भी रिसर्च का विषय है। वैसे रिंग टोन्स है रोचक विषय वस्तु।
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
आज तक नहीं भूला जावेद मियांदाद का वह छक्का
क्रिकेट के खेल को अनिश्चितता का खेल कहा जाता है। कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। शरजाह कप में चेतन शर्मा की उस आखिरी गेंद का आज तक नहीं भूला पाया हूं, जिस पर कि जावेद मियांदाद ने छक्का मारा था। भाग्य कब साथ दे जाये और कब दगा,हम नहीं जानते। उस गेंद के बाद चेतन शर्मा भी लाइम लाइट से दूर होते चले गए। चेतन शर्मा को आज की आस्ट्रेलिया और भारत के एक दिवसीय मैच की समीक्षा करते हुए पाने के बाद उस आखिरी गेंद की भी याद हो आयी। उस आखिरी गेंद को टीवी पर करते देखना मेरे भाग्य में नहीं था। हुआ था यूं कि एक बॉल पर शायद छह रन बनाने में थे, मैं भारत की जीत को सुनिश्चित मान पानी पीने चला गया और सोचा सेलिब्रेट करेंगे, इतने में फिर लौटकर आने के बाद पूरी सीन ही बदली मिली थी। पाकिस्तानी खिलाड़ी ऊपरवाले को शुक्रिया अदा कर रहे थे। हमने भी सोचा क्या बात हो गयी और जब रिप्ले देखा, तो धत, तेरे की। वैसे ही ३४४ स्कोर को पीछा करते देखते भारत को लेकर आस बंधी थी कि शायद किसी आखिरी गेंद पर कोई एक छक्का लग जाए, पर यहां तो ऊपरवाले सीधे तौर पर ना कर दिया। वैसे मामला रोमांचक रहा। और अंत भी दिलचस्प। एक बढ़िया क्रिकेट देखने को मिला काफी दिनों के बाद। वाटसन की सधी गेंदबाजी के भी हम कायल हो गए।
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