शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
बचपन की तस्वीर कई मायनों में अलग हो गयी है
आज बाल दिवस है। स्कूलों में कार्यक्रम होंगे। एक साल फिर बीत जाएगा। २-३ साल के बच्चे स्कूल जाना शुरू कर रहे हैं। उनसे उनकी जिंदगी छीनी जा रही है। फ्लैट सिस्टम में रहते हुए कोई कम्युनिकेशन सिस्टम नहीं विकसित होता है। बच्चे अपने आप में बड़े हो रहे हैं। हम अपनी कॉलोनियों के इर्द-गिर्द कॉलोनियां बसते देखते हैं। देख रहे हैं कि जहां पहले सात-आठ मैदान थे बच्चों के खेलने के लिए, आज वहां कंक्रीट के जंगल हैं। बच्चों से प्यार जताने की औपचारिकता से ऊपर उठकर सोचनेवाले लोग कम हो गए हैं। बच्चे समय से पहले बड़े हो जा रहे हैं। शोधों में पाया जा रहा है कि बचपन और जवानी की दहलीज के बीच की किशोरावस्था गायब हो जा रही है। व्यावहारिक होते जा रहे बच्चों में सादगी नहीं दिखती। स्वकेंद्रित होते जा रहे बच्चे कल किस रूप में दिखेंगे, ये ये सोचकर ही डर लगता है। हमने बचपन के ज्यादातर समय इन्ही जद्दोजहद में बीता दिये कि हम बड़े होकर क्या बनेंगे। हमारे पास विकल्प कम थे। कंचे खेलते और टायर चलाते दुनियादारी से दूर होते हुए आम चोरी करने में समय बीत गया। आज-कल के बच्चे ज्यादा सोफिस्टिकेडेट या कहें, सभ्य हैं। सैकड़ों चैनलों के बीच वे अभी से भविष्य की योजनाएं बनाते हैं। उनके पास हजारों विकल्प हैं। पढ़ने से लेकर आगे काम करने तक के। लेकिन उसके बाद भी तनाव बरकरार है। खुशी गायब है। मैदान खाली नजर आते हैं। उनमें खेलनेवाले बच्चे अड्डेबाजी के शौकीन हो चले हैं। जो चीजें किशोरावस्था से आती थीं, वे बचपन से ही दिखाई देने लगी हैं। तंग गलियों में क्रिकेट का शोर नहीं गूंजता और न ही रबड़ की गेंदों से फुटबॉल खेले जाते हैं। गिल्ली-डंडा तो गायब ही हो गया। बचपन की तस्वीर कई मायनों में अलग हो गयी है।
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2 टिप्पणियां:
समय बदल गया है.
बदले हुए वक्त में बचपन खोता जा रहा है। सटीक।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
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