बुधवार, 31 दिसंबर 2008
क्या बात है, लाजवाब हैं ये तस्वीर
हमारे एक पारिवारिक मित्र कुछ दिनों पहले गये थे हांगकांग। वहां के Giant Buddha/Po Lin Monastery, Hong Kong की कुछ खास तस्वीरें खींचकर भेजी हैं। जो यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
HAPPY NEW YEAR
रविवार, 28 दिसंबर 2008
नारी स्वतंत्रता के नाम पर अंधी बहस
ये स्पष्ट है कि आज के दौर में अब ऐसा कोई पद नहीं बचा, जहां महिलाएं जिम्मेदारी नहीं संभालती हैं। आज वे सफलता की सीढ़ियां चढ़कर नयी कहानियां लिख रही हैं।
जब स्त्री स्वतंत्रता को लेकर पहला आंदोलन हुआ होगा, तब से लेकर आज तक गंगा में काफी पानी बह चुका है और साथ ही इसे लेकर की जा रही बहस अब पुरानी हो चली है। अगर आप हिन्दी ब्लाग जगत में की जा रही बहसों पर गौर करें, तो आपको कम से कम ये जरूर लगेगा कि यहां की मानसिकता अभी भी प्री मैच्योर (यानी परिवक्वता की शुरुआती अवस्था) में है। ये हो सकता है कि इस नाम पर स्थापित मंच अपनी खास पहचान बना ले, लेकिन इस पर की जा रही बहस को फिर से पुरानी अवस्था में ये मोड़ने जैसा है।
आज की स्थिति काफी भिन्न है। आज पुरुष और स्त्री की स्थिति बराबरी वाली है। हां,ये कहा जा सकता है कि समाज में बेटी और बेटे को किया जा रहा फकॆ थोड़ा ज्यादा जरूर है। जिसने एक खासा असंतुलन पैदा कर दिया है। लेकिन थोड़ा नजरिया बदलें, तो इसे कम जरूर किया जा सकता है। अब जहां तक पुरुषों के साथ नारी की बराबरी करने का सवाल है, तो इसके लिए वैसी आक्रामकता की जरूरत नहीं है, जिसका उपयोग पुरुषों के खिलाफ किया जा रह है। यह तो स्वस्थ बहस, संतुलित दृष्टिकोण और सकारात्मक नजरिये से ठीक किया जा सकता है।
जहां महिलाओं द्वारा पुरुषों के व्यवहार को लेकर जतायी जा रही आपत्तियों की बात है, तो इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है। लेकिन ये जरूरी नहीं, महिलाएं पुरुषों की शैली की नकल कर ही अपने वचॆस्व की बात को साबित करे। कई तरीके हैं। हमारे हिसाब से अपनी योग्यता को बढ़ाना और समाज में व्याप्त कमजोरियों को दूर कर ही समस्या का समाधान किया जा सकता है। ये तो ऐसा मुद्दा है कि इस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है।
दूसरी ओर हम ये जरूर कहना चाहेंगे कि नारी स्वतंत्रता के नाम पर जिस प्रकार के खुलेपन की आस की जा रही है या जो कुछ समाज में परिवतॆन हो रहा है, उसने सामाजिक बिखराव में काफी योगदान दिया है। संयुक्त परिवार का टूटना, एकल मातृत्व और अकेले हो गये वृद्धों के पीछे कहीं न कहीं एक ऐसी निरंकुश होती जा रही मानसिकता का योगदान है, जिसने हमारे जेहन पर प्रहार कर ब्रेनवाश करने का काम किया है। जरूरत ये है कि नारी स्वतंत्रता के मुद्दे पर जब बहस हो, तो संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाये, नहीं तो ये एक ऐसी अंधी खाई की ओर बढ़ना होगा, जहां से निकलना आसान नहीं होगा।
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
इनके लिए फोटोग्राफी जुनून है
गुरुवार, 25 दिसंबर 2008
टूटते रिश्तों की डोर संभालना जरूरी
मंगलवार, 23 दिसंबर 2008
नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी, ये फासला क्यों?
रविवार, 21 दिसंबर 2008
पॉश कॉलोनी, आम लोग और खास नजरिया
हम यहां बिहार-झारखंड में पॉश कॉलोनियों के नाम पर रांची के अशोक नगर और पटना की पाटलिपुत्र कॉलोनी के बारे में जानते थे। बड़े हुए, तो पता चला कि इनमें समाज के उस तबके के लोग रहते हैं, जिन्होंने प्रशासनिक मशीनरी को अपनी उंगलियों पर नचाया था। इस संदभॆ में इतनी बातें कही और सुनायी जाती हैं कि आप किताबें लिख डालें।
खैर, बात वो नहीं है, बात है हमारी अपनी मानसिकता की। हम आज तक खास कर बिहार में इन बातों से प्रभावित हैं। वैसे बिहार में रहनेवालों के मन में विरोधाभासी नजिरयां रखनेवाली मानसिकता कुछ ज्यादा ही है। इसलिए यहां प्रशासनिक पदों को लेकर एक खास तरह का आकषॆण है। ये आकषॆण इन कॉलोनियों में रहनेवाले उन लोगों को देखकर भी पैदा हुआ होगा, जो कभी भारतीय प्रशासनिक मशीनरी के अंग हुआ करते थे।
अब रविश जी की पोस्ट से ये भी पता चल गया कि दिल्ली में रहनेवाले लोग भी इसी मानसिकता के शिकार हैं। कोई इलाका रहन-सहन के हिसाब से ज्यादा बेहतर रहता है, तो इसके पीछे कारण प्रशासन द्वारा उस इलाके के प्रति खास नजरिया रखना भी होता है। इसे लेकर वहां के आसपास के लोगों में आत्ममुग्धता की स्थिति भी घर करती जाती है। हमारा नजरिया ये होना चाहिए कि कौन कहां रहता है, उससे अलग, हम जहां हैं, वहां कैसे चीजों को और बेहतर करें। वैसे आज कल ये खास संस्कृति पनप रही है कि लोगों को उनके पहनावे और रहने के स्थान से तौला जाता है, न कि उनके विचारों से। ये उभरते उपभोक्तावाद का वह विकृत चेहरा है, जिसकी चाह ने ऐसे विवाद पैदा कर दिये हैं, जिनका राज ठाकरे जैसे फायदा उठा रहे हैं। जरूरत इन खास टिप्पणियों या सलाहों को नजरअंदाज कर स्वस्थ मानसिकता को प्रश्रय देने की होनी चाहिए।
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
एक सफल भारतीय महिला-चंदा कोचर
बुधवार, 17 दिसंबर 2008
सम्मानजनक रिटायरमेंट लें द्रविड़
राहुल द्रविड़ मेरी ही उम्र के हैं। इंडियन टीम के सबसे सीनियर खिलाड़ियों में हैं। हाल के मैचों में उनके परफारमेंस को लेकर चिंता जतायी जा रही है। सीधे सपाट शब्दों में उम्र का खेल पर हावी होना साफ झलकता है। सचिन, गांगुली और द्रविड़ भारतीय क्रिकेट जगत के अनमोल हीरे हैं। सचिन ने इग्लैंड के खिलाफ शतक मारकर अपनी कायम क्षमता का परिचय भी दे दिया है। गांगुली रिटायर हो चुके हैं। तीनों ही समान उम्र के हैं और इन्होंने भारतीय क्रिकेट को काफी कुछ दिया है। इनकी अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन जो सवाल मन में है, उसे कहने को इच्छुक हूं। मन ये कहता है कि क्या किसी खिलाड़ी को एक खास पड़ाव पर, लोकप्रियता के शिखर पर ही सम्मानजनक विदाई नहीं लेनी चाहिए? एक महत्वपूणॆ सवाल है? जो आनेवाले क्रिकेटरों और खिलाड़ियों को भी प्रभावित करेगा। भारतीय क्रिकेट जगत काफी उतार-चढ़ाव के बाद फिर मजबूती ओर बढ़ रहा है। लेकिन सवाल वही, क्या ज्यादा उम्र के खिलाड़ी टीम के साथ रहें उचित है। इन खिलाड़ियों का दबदबा शायद उन नये खिलाड़ियों के मौकों को दरकिनार कर दे रहा है, जो इन सीनियर खिलाड़ियों के नहीं रहने से उन्हें मिलता। किसी भी खेल में कम से कम एक खास समय की सीमा होनी चाहिए। गांगुली दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जरूर टिके रहे, लेकिन आखिरकार रिटायरमेंट ले ली। इस उम्र में अगले १५-२० सालों तक इन खिलाड़ियों में कम से कम इतनी फिजिकल फिटनेस जरूर रहती है कि ये यंग जेनरेशन को गाइड कर सकें। अपना समय खेलने से ज्यादा यंग जेनरेशन के खिलाड़ियों को दे सकें। ये जरूरी भी है। खेलों में मिल रहे पैसे और प्रसिद्धि का मोह शायद उन्हें खुद को रिटायर घोषित करने से रोकता है। लेकिन इस मोह का त्याग करना जरूरी है।
क्या आपने हंसी चिड़ियां देखी है?
सोमवार, 15 दिसंबर 2008
ये मत कहना- बेटा औकात में रहियो
लेकिन एक बात है कि ये गीत हमारे समाज में क्यों स्वीकायॆ हो रहे हैं, क्या इसके बारे में हमने कभी सोचा?
जिस समाज में संस्कृत जैसी भाषा को बिसार दिया गया और हिंगलिश का प्रचलन बढ़ गया हो,वहां इस स्तर की भाषा का इस्तेमाल क्या नहीं होगा?
अब जरा किसी दोस्त यार से आप संवाद कर लें, तो शराब पीने के नाम पर वह जरूर कहेंगे- भाई एक पैग मार आता हूं या दारू बड़ी मस्त थी यार।
अब यहां आप फिर उलझन में होंगे कि यार ये दारू के साथ मस्त शब्द कहां से आ गया। अब मैं जब भोपाल के लोगों से बात करता हूं, तो वे अपने की जगह अपन का प्रयोग करते हैं।
बिहार में हम सब या यू कहें एक रुपया दे दो
की जगह एगो रुपया दे दो बोलते दिखाई पड़ेंगे।
भाषा की शुद्धता की अहमियत कहां रह गयी है।
जब आप पोते से बोलते होंगे-बेटा डोंट क्राय (मत रो), तो फिर पोता आगे चल कर
मैं क्राय (रोता) नहीं करता ही बोलेगा,
यह थोड़े ही बोलेगा कि मैं रोता नहीं हूं।
भाषा को छनने दीजिये। कम से कम हिन्दी को तो छनने ही दिया जाये। हो सकता है कि एक दिन अंगरेजी की ही तरह ब्रिटेन की हिन्दी, इंडियन हिन्दी, तमिल हिन्दी का अलग-अलग वरगीकरण करना पड़े। क्योंकि भाषा को जितना सवॆव्यापी और सहज बनने देंगे, उतना ही लोगों का इससे जुड़ाव रहेगा।
पुरानी पीढ़ी के लोगों को ये बात खटकती होगी, लेकिन जब बात तनाव घटाने की होती हो, तो ये कहना अच्छा लगता है
"ऐ गनपत चल दारू ला
गोली मार भेजे में भेजा शोर करता है...
अब इतना लिखने के बाद ये मत कहना- बेटा औकात में रहियो
हम तो कहेंगे-डोंट बी सिली यार, ऐता तो चलता है।
रविवार, 14 दिसंबर 2008
अनुनाद जी आपकी बात मन को छू गयी
उन्होंने कहा था-
आपने बहुत ही महत्व का विषय उठाया है; इसके लिये साधुवाद।
किन्तु मेरे खयाल से आप हिन्दी ब्लागजगत को श्रेष्ठतर बनाने के लिये आवश्यक सबसे महत्वपूर्ण बाते नहीं कह पाये हैं। इस सम्बन्ध में मैं आपसे अलग विचार रखता हूँ ।
मेरा विचार है कि हिन्दी ब्लागजगत में विषयों की विविधता की अब भी बहुत कमी है। ज्यादातर 'राजनीति' के परितः लिखा जा रहा है। तकनीकी, अर्थ, विज्ञान, व्यापार, समाज एवं अन्यान्य विषयों पर बहुत कम लिखा जा रहा है।
दूसरी जरूरत है आसानी से सहमत न होने की। इमर्शन ने कहा है कि जब सब लोग एक ही तरह से सोचते हैं तो कोई नहीं सोच रहा होता है। उसने यह भी कहा है कि हाँ-में-हाँ मिलाना सभ्यता के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक सम्यक प्रकार से विचारों का विरोध/अन्तर नहीं होगा तब तक न नये विचार जन्म लेंगे न विचारों का परिष्कार होगा।
हाँ एक चीज और जरूरी है कि जो लोग अब भी अंग्रेजी में लिखने का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं, उन्हे हिन्दी में लिखने के लिये निवेदन किया जाय, उकसाया जाय, प्रेरित किया जाय|
शनिवार, 13 दिसंबर 2008
चलिये हिन्दी ब्लागिंग को श्रेष्ठ बनायें
लेकिन इस ब्लागिंग की दुनिया में वैसा कोई मापदंड नहीं है, जिससे किसी रचना की श्रेष्ठता मापी जा सके। अगर कहें कि टिप्पणी को मापदंड माना जाये, तो वैसे में जिस ब्लॉग से सबसे ज्यादा लोगों का भावनात्मक लगाव होता है, उन्हें ज्यादा टिप्पणियां मिलती हैं। ऐसे में भावना के जुड़ जाने से ये मापदंड खत्म हो जाता है। यहां मेरे हिसाब से प्रयास लोगों को बेहतर लेखन की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करने की है। लिखने के साथ-साथ ज्यादा पढ़ने, जानने और खुद को बेहतर करने की कोशिश हो।
ऐसा न हो कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ आग उगलने की बात हो, तो आप-हम उन सारी गंदी चीजों की उलटी करें, जो हमारी सामान्य जिंदगी में नहीं होना चाहिए। ब्लॉग को एक स्वस्थ मंच बनाने की दिशा में पहल होनी चाहिए। कुछ ऐसा हो, जिसका हम सब पालन करें।
जैसे- किसी प्रकार की अनचाही और गलत बातों को टिप्पणी में न डालें
दूसरों के प्रति संबोधन में उनकी इज्जत का ख्याल करें
दूसरों के व्यक्तिगत जीवन का उल्लेख करने से पहले उनकी सहमति ले लें।
दूसरे लोगों को अच्छा और बेहतर लिखने के लिए प्रोत्साहित करें
खुद को बेहतर बनाने की कोशिश हो, लगातार
हमारा मकसद किसी व्यक्ति विकास केंद्र की स्थापना का नहीं है, बल्कि अपनी सोच को ऐसी धार देने की है, जिससे हिन्दी ब्लागिंग पर भी श्रेष्ठता का मुहर लग सके। ज्यादातर बातचीत में महसूस होता है कि ब्लाग जगत के बारे में लोगों में अच्छी राय नहीं है। लोगों का कहना है कि ब्लाग जगत आक्षेप और निंदा की जगह हो गयी है। लेकिन अगर हम प्रयास करें, तो इसे सुधार सकते हैं। पिछली एक पोस्ट में भी मैंने इन बातों का उल्लेख किया था।
ब्लाग को मन की डायरी है। इसमें हमारा पूरा स्वरूप झलकता है। इसलिए इस आईने को कम से कम साफ-सुथरा रखना हमारा कतॆव्य है। जिससे जो भी एक बार यहां आये, यहां का होकर रह जाये।
गुरुवार, 11 दिसंबर 2008
मुरगे की टांग, अपशगुन और मेरी जिंदगानी
भाई मानिये या न मानिये ब्लागिंग के चक्कर में बाहरी दुनिया से कट सा गया था। संयोग से घर में भी काफी दिनों बाद अकेला था। वैसे नौकरी और घर के चक्कर में किसी प्रकार समय निकाल कर ब्लागिंग कर ही लेता हूं।
इस नशे का क्या कहें, जो हमेशा कुछ पोस्ट डालने के लिए कुनमुनाता रहता है। इधर पिछले दो हफ्तों से मुंबई और आतंक, इन्हीं दो शब्दों ने जिंदगी और सोच का ताना-बाना गड़बड़ा दिया था। गुरुवार को अवकाश रहता है। इसलिए इस बार सोचा जमकर मस्ती की जाये।
११ बजे उठा, मुंह धोया और कुछ देर आदतन ब्लागिंग करने के बाद चला गया मेन रोड। मानिये या न मानिये काफी मस्ती का मूड था। सोचा अकेला हूं, मुरगे की टांग तोड़ी जाये। लेकिन दिमाग में ऐसी कोई जगह नजर नहीं आ रही थी, जहां जाकर मजा लिया जाये मुरगे की मसालेदार टांग का। वैसे बडॆ फ्लू के चक्कर के बारे में फिर सुन रहा हूं। एहतियातन पहले इन खबरों के कारण मुरगे की टांग तोड़ने पर परिवार में रोक लगा दी जाती है।
लेकिन जीभ था कि मान ही नहीं रहा था।
मेन रोड में ही एक जगह खुले में मुरगे की टांगों के मसालेदार तरीके से पकाया बनाया जाता है। कभी बाहर के खाने में इन्फेक्शन के डर से खाता नहीं था, लेकिन इस बार जीभ ने दिल को मात दे दी। और २५ रुपये में रोटी और मुरगे की टांग तोड़ने के लिए बैठ गये। ओह क्या जायका था.... वैसे मेरे हिसाब से फाइव स्टार में बैठकर भी ऐसे खाने का आनंद नहीं ले पाइयेगा। वहां एक मित्र भी मिल गये। उन्हें भी बैठा लिया था।
अब खाते-खाते दिन के तीन बजे। निकल पड़े स्कूटर पर घर के लिए। पर रास्ते में एक बूढ़े रिक्शेवाले गये टकरा। गिरते-गिरते बचे। लगा, बेचारे मुरगे की नजर लग गयी। याद आया, पिछले सप्ताह एक सीनियर ने समझाया था, शनिवार और मंगलवार को दाढ़ी मत काटना, हनुमान जी नाराज हो जाते हैं। लेकिन हमने कहा, भाई स्माटॆ बनना मेरी फितरत है। बिना शेविंग किये मैं नहीं रहता। लेकिन उस रिक्शेवाले के अड़ंगा डालने के बाद सोचा, कहीं दाढ़ी काटने और मुरगे की टांग को गुरुवार को खाने के कारण जीवन का गणित तो नहीं गड़बड़ा रहा। फिर क्या था, कुछ देर तक सोचते रहे। फिर सोचा, चलो आधा दिन तो बीत गया, अब आगे देखा जायेगा।
शाम को बनवाया आमलेट दुकान पर और ब्रेड के साथ भोजन कर दूध पी बैठ गया ब्लाग लिखने। इस समय साढ़े नौ बज रहे हैं। दो घंटे बाद सोने चला जाऊंगा।
मुरगे की टांग की बुरी नजर को हिम्मत और दरियादिली से हरा दिया। किसी ने सच ही कहा है पोजिटिव थिंकिंग से कुछ भी जीता जा सकता है। इसलिए अगली बार अवकाश में बिना किसी नजर या अपशगुन की परवाह किये फिर मजे लूंगा मुरगे की मसालेदार टांग का।
निवेदन- कृपया नानवेज खानेवाले ही पढ़ें
ये तस्वीर कुछ बोलती है
बुधवार, 10 दिसंबर 2008
एक किनारे ज्ञानदत्त जी, समीरजी......और दूसरे किनारे हैं महान एनोनिमस जी
बताते हैं कि पहले कुछ ही ब्लाग थे और आज उनकी तुलना में कई गुना ज्यादा हैं। खुशी होती है। यहां यह कहना महत्वपूणॆ होगा कि इसी ब्लॉग जगत में ऐसे विद्वत जन भी हैं, जो आपको अपनी बड़प्पन का बिना कुछ कहे एहसास करा जायेंगे। याद होगा, शुरुआत में समीरलाल जी के टिप्पणी देने के अनुरोध के मुद्दे पर काफी विवाद नजर आया था। लेकिन समीरलाल जी ने अपनी लेखनी में कभी इन चीजों का एहसास नहीं होने दिया। फिर हाल के दिनों में ज्ञानदत्त पांडे जी से भी परिचय ब्लॉग के जरिये हुआ। इनकी टिप्पणियों और सही-सटीक बातों से जैसा मागॆदशॆन मिलता है, उससे तो ऐसा ही लगता है कि प्रतिक्रियावादी होना व्यथॆ है। मुझे लगता है (व्यक्तिगत रूप से) कि इन्होंने ब्लॉग जगत को अपनी लेखनी से एक अलग सोच दी है। अब कोई इन्हें ब्लॉग जगत का महानायक कहे या नायक।
हमारा मानना है कि जब चारों ओर गंदगी हो, तो गंदगी की जगह साफ जगह को तरजीह देने की कोशिश होनी चाहिए। प्रतिक्रियावादी होकर हम किसी का विचार नहीं बदल पायेंगे। हां, ये जरूर होगा कि हमारी पोस्ट काफी पढ़ी जायेगी। और जैसा कि माननीय एनोनिमस भाई साहब करते आये हैं, उनका एक अजब-गजब कमेंट जरूर आयेगा।
माननीय एनोनिमस भाई ने मुहल्ला ब्लॉग में गांव रहने लायक नहीं बचा... और मीडिया?" शीषॆकवाली पोस्ट में कुछ ऐसी ही टिप्पणी की,
हे हे...वाह बेटा... 13 साल तक तो मलाई चाट रिये थे और एनडीटीवी के हर कर्म का गुणगान कर रिये थे... अब नौकरी छूटी तब कमियां याद आयी... वाह रे भोथरी पत्रकारिता के पैने शहसवार :) जब तक पैंसो कि थैली मिली, जबान पर दही जम रिया था इनके... अब बोटी नहीं मिलती तो खोटी-खोटी बक रिये हैं...
हा हा सही बोले पंगेबाज भैये ...
जाहिर है विवाद व्यथॆ का रहेगा। जिसकी अपनी जिद होगी, वह वैसा ही रहेगा। हमारे-आपके सोचने से कुछ होगा भी नहीं। इसमें सही रास्ता यही होगा, जैसा हमारे वरिष्ठ ब्लॉगर साथी (एनोनिमस भाई साहब नहीं) कहते रहते हैं-जो पसंद आये उसे पढ़ो, अच्छा लिखो, बाकी सब कहानी है।
ज्यादा लफड़ा या झंझट में पड़ने की बजाय हम एक-दूसरे को अच्छा पोस्ट और लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित करें, ये जरूरी है। क्योंकि सहयोग से ही प्रेम भावना बढ़ती है और उससे ही समाज का विकास होता है। ब्लॉगरों में कुछ अधिकारी होगा, कोई व्यवसायी, तो कोई पत्रकार। सबकी अपनी विशेष शैली और अनुभव होंगे। अगर उनके अनुभवों से हम कुछ सीखें या सीखने की कोशिश करें, तो उससे हमारे व्यक्तित्व का विकास ही होगा। अब ज्यादा क्या लिखना, बस भिड़े रहना है,
वो जुमला याद है ना-
लगे रहो इंडिया
रविवार, 7 दिसंबर 2008
एसएमएस के गुलाम होते लोग
सामने चाय रखी हो और आप पीने की इच्छा रखते हों, तो आप पीयेंगे जरूर। सामने मोबाइल रखी हो, तो क्या आप मोबाइल पर उंगलियां टिपियायेंगे नहीं? करेंगे ही,कमबख्त ये आदत ही ऐसी है कि किसी प्रोग्राम में एमएसएस के लिए अपील देखी नहीं की, शुरू कर देते हैं टिपियाना। इस टिपियाने के नशे ने औसत आदमी की आमदनी का बेड़ा गकॆ करके रख दिया है। जब तक उसके मन का लाल बटन उसे ऐसा करने से रोकता है, वह एसएमएस कर चुका होता है।
पहले पत्र लिखते समय, न जाने क्या-क्या चिंतन, भाषा और छंदों का इस्तेमाल होता था, लेकिन इस शॉटॆ मैसेज सरविस ने उन सारी कलाओं को मृत कर दिया। धन्य हो ये ब्लॉग जगत, कम से कम लेखनी, वह भी खुल कर लेखनी को इसने ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां से अब सिफॆ सूयॆ का उदय दिखता है।
करोड़ों के खेलवाले एमएमएस गेम को समझने काफी आसान है। आधा तेरा और आधा मेरा की तजॆ पर चैनलवाले एसएमएस करवाते हैं। घाटा तो दशॆकों का ही होता है। यहां तक शहादत जैसी बातों में भी शोक जताने के लिए एसएमएस कराये जाते हैं। लोग जताते भी हैं। पांच-सात रुपये का खचॆ ज्यादा नहीं लगता। लेकिन किसी-किसी के लिए ये जैसे नशा जैसा हो गया है। आखिर तत्काल सेवा के जमाने में इच्छा पर नियंत्रण जैसी चीज को बेमानी कर दिया है। इसलिए आगे से भाई अगर एसएमएस करने जाओ, तो दो ग्लास पानी जरूर पी लेना कि कहीं सही जगह तो करने एसएमएस करने जा रहे हो।
शनिवार, 6 दिसंबर 2008
इनके लिए फोटोग्राफी शौक नहीं जुनून है
देखो ये चांद निकल आया
संजय बोस हमारे बचपन के मित्र हैं। इनके लिए फोटोग्राफी शौक नहीं जुनून है। अपने कैमरों से प्रकृति की हर छटा को कैद करने की चाहत में कुछ अलग सा फोटो हमारे सामने आये हैं। उन्हें आपके साथ बांटने का मन करता है।
रांची के टैगोर हिल की एक शाम
गुरुवार, 4 दिसंबर 2008
क्या एक सेलिब्रिटीज को विरोध का हक नहीं?
ऐसे कई प्रश्न हैं, जिन पर लोगों ने कई लेख लिख डाले हैं। चिंतन किया है और आक्रोश जाहिर कर रहे हैं। ये जाहिर है कि इस बार मुंबई में हमले ने उस अभिजात्य वगॆ या कहें पूंजी की दृष्टि से मजबूत उस तबके को झकझोर दिया है, जो एअरकंडीशंड रूम में बैठे जमीन की सच्चाई से अलग होकर जिंदगी जीता है। एक चिंतक ने वतॆमान व्यवस्था पर प्रहार करते हुए कहा-हमारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है। लोग एकाकी जीवन जी रहे हैं। लोगों का एक-दूसरे से संपकॆ खत्म हो रहा है। पूवॆ की सामाजिक व्यवस्था में निगहबानी आसान थी, लेकिन आज के हालात में जब पड़ोसी एक-दूसरे से अनजान रहते हैं, तो फिर किसे क्या कहें।
नामी-गिरामी लोगों या कहें फिल्मी दुनिया के लोगों द्वारा विरोध की बात को मध्यम वगॆ मजाक के रूप में लेता है। वह कहता है-इनका विरोध करने से क्या मतलब रहता है। यह सच भी है। क्योंकि भारत के मध्यम वगॆ की परेशानियों से उन्हें मतलब नहीं होता। गरीबी किसे कहते हैं, ये जानते नहीं और रोटी उनके लिए कोई समस्या नहीं होती।
एक बात और ध्यान देने की है कि नक्सलियों के हमलों से देश का बड़ा तबका अनजान है। फिर एक सवाल उभरता है कि बाहरी आतंकवाद के बारे में तो सब जान चुके हैं, लेकिन हमारी जनता क्या आंतरिक आतंकवाद से पूरी तरह परिचित है? इस सवाल पर भी अजीब सी खामोशी छायी रहती है।
आक्रोश सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है। लेकिन ये भ्रष्टाचार कोई एक दिन में पनपा तो नहीं है। ये कोई तुरंत खत्म होनेवाला भी नहीं है। सिस्टम को गाली देनेवालों में शामिल होने से बेहतर मैं तो समझता हूं कि सिस्टम को बदलने का बीड़ा उठानेवालों में शामिल होइये। हम लोगों में से ही अधिकांश अपने काम कराने के लिए जेबें ढीलीं करने के लिए तुरंत तैयार हो जाते हैं। हमने अपनी मानसिकता ही इस कदर बना ली है कि इस बदल चुके सिस्टम को स्वीकार कर चुके हैं।
ज्वार की तरह उफने आक्रोश को ज्यादा दिन तक झेलने की इस सिस्टम को आदत हो चुकी है।
इस क्रम में कम से कम जब कोई फिल्म स्टार आक्रोश जताता है, तो हमें उनके प्रति सहानुभूति जरूर होनी चाहिए कि उन्होंने सामने आने की हिम्मत तो की। अधिकांश समय सामाजिक सच्चाइयों से दूर रहनेवाले ये लोग अगर सामने आकर अपनी संवेदना जताते हैं, तो इसमें हजॆ किया है। उनकी इस पहल की हमें प्रशंसा करनी चाहिए। क्योंकि एक छोटी पहल कब बड़ी बन जाये, कौन जानता है।
बुधवार, 3 दिसंबर 2008
चीन से टकराने की बात क्यों नहीं करते?
वैसे आपके चिंतन के लिए................
Peace, in the sense of the absence of war, is of little value to someone who is dying of hunger or cold. It will not remove the pain of torture inflicted on a prisoner of conscience. It does not comfort those who have lost their loved ones in floods caused by senseless deforestation in a neighboring country. Peace can only last where human rights are respected, where people are fed, and where individuals and nations are free.
-- The XIVth Dalai Lama
बाबरी मसजिद ध्वंस-क्या हुआ था-माकॆ टुली की रिपोटॆ
ये रिपोटॆ बीबीसी से साभार है।
On 6 December 1992, I was standing on the roof of a building with a clear view of the Babri Masjid in Ayodhya.
This was the day the Bharatiya Janata Party (BJP) and other organisations supporting it were to begin work on building the temple, but they had given a commitment to the government and the courts that it would only be a symbolic start, a religious ceremony and no damage would be done to the mosque.
I saw young men clambering along the branches of trees... and rushing towards the mosque
A vast crowd, perhaps 150,000 strong, had gathered and was listening to speeches given by BJP and right-wing Vishwa Hindu Parishad (VHP) leaders.
Among those present were LK Advani and Murli Manohar Joshi, now senior figures in the BJP-led government.
Trouble first broke out in the space below us when young men wearing bright yellow headbands managed to break through the barriers.
Journalists beaten
The police stood by and watched, while some men wearing saffron headbands and appointed by the organisers to control the crowd did try to stop them.
They soon gave up, however, and joined the intruders in beating up television journalists, smashing their cameras and trampling on their tape recorders.
Many Hindu activists wore saffron as they approached the site
Encouraged by this, thousands charged towards the outer cordon of police protecting the mosque.
Very quickly, this cordon collapsed and I saw young men clambering along the branches of trees, dropping over the final barricade, and rushing towards the mosque.
Crowd carried away
The last police retreated from the mosque, their riot shields lifted to avoid being hit by stones the crowd was throwing at them, and two young men scrambled on top of the mosque's central dome and started hacking away at the mortar.
Security forces were unable to stop the destruction
They were soon joined by others.
As telephone lines had been cut, I drove to Faizabad to file my story for the BBC and then tried to return to the site.
Before I could reach there, I and the Hindi-language journalists with me were threatened and then locked in a room by kar sevaks (Hindu volunteers).
We were kept there for several hours before we were rescued by a local official assisted by the head priest of one of Ayodhya's best known temples.
But by then the Babri Masjid had been totally demolished.
सोमवार, 1 दिसंबर 2008
ये तो हमारा घोर अपमान है- डॉग ग्रुप सोसाइटी
मुद्दा नेताओं द्वारा उनके अपमान का था।
यहां नेताओं के लिपिस्टिक प्रसंग से लेकर एनएसजी के शहीद कमांडो के परिवारवालों के प्रति दी गयी टिप्पणियों पर जोरदार बहस चली। अंत में सवॆसम्मति से निंदा प्रस्ताव पारित हुआ।
प्रस्ताव - कुत्तों की वफादारी को नजरअंदाज करना कुत्तों का अपमान है। आज दुनिया के हर राष्ट्राध्यक्ष के समारोह स्थल पर पहुंचने से पहले ही कुत्ता पहुंचता है और सुरक्षा सुनिश्चित करता है। कुत्ता जिसका नमक खाता है, उसके प्रति आजीवन वफादार रहता है। वह ऐसे नेताओं से काफी ऊंचा है, जो सिफॆ स्वाथॆ और पुश्त दर पुश्त के लिए धन इकट्ठा करने के पीछे लगे रहते हैं। हम जैसे हैं, वैसे ही ठीक हैं। हम ऐसे नेताओं की घोर निंदा करते हैं, जो हमें हीन भावना से देखते हैं और हमारी तौहीन करते हैं।
भारी मन से कुत्तों के समूह द्वारा पारित प्रस्ताव सुनकर घर आया।
उद्वेलित हूं।
क्या आप कुछ कहेंगे?
अल्बटॆ पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?
आज पूरी जमात गुस्से में है। गुस्से में क्यों नहीं हो, दो सौ जाने आतंकी आकर सरेआम ले लेते हैं और तीन सौ को घायल कर देते हैं। मुंबई शहर और पूरा सिस्टम असहाय हो जाता है। इसके बाद यदि जनता में से सात लोग ही एक जगह खड़े होकर मोमबत्ती जलाते हुए सिस्टम को चलाने का रौब झाड़नेवाले नेताओं से सवाल-जवाब करते हैं, तो इसमें आपत्ति की क्या बात है? आतंकी ताज होटल को इतना नुकसान कर गये हैं कि उसकी भरपाई करने में सालों लग जायेंगे। विनाश का खेल आंखों के सामने हैं। किसी का बाप सर पीट रहा है, तो किसी की मां की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। आक्रोश, दुख और हताशा का ऐसा समन्वय भारतीय इतिहास में शायद ही कभी देखा गया होगा। उसमें अगर लोगों में गुस्सा उबाल पर है, तो गलत क्या है? रोम जल रहा था, तो नीरो बांसुरी बजा रहा था। आज ये देश जल रहा है, तो ये नेता शायद यही कर रहे हैं। इस्तीफे की नौटंकी कर कितनी जानें और कितने घायलों के ददॆ को ये नेता समेट सकेंगे।
नकवी साहब हमारी तो ये सलाह है कि अगर आप शिकायतों और आपत्तियों को सुनने की हिम्मत नहीं करते हैं, तो फिर राजनीति करना छोड़ दें। अब देश में कोई नकवी साहब के हिसाब से शोक मनाने के लिए नहीं जायेगा। एक अकेला आदमी भी चाहे तो विरोध जता सकता है, कहीं भी।
भाई नकवी साहब, आक्रोश को समझिये, ठंडे दिमाग से। अभी जनता गुस्से में है। आपसे नहीं,इस सिस्टम से, जिसे आपकी पाटीॆ भी पाने की कोशिश में लगी हुई है। वैसे नकवी साहब की छवि एक साफ-सुथरी नेता की रही है। अगर वे अपना संतुलन खो रहे हैं, तो दूसरे नेताओं से तो मीडिया दूर से ही बात करेगी।
शनिवार, 29 नवंबर 2008
भाई पाटिल साहब सोचकर बोलिये
जला रहे थे आशियानों को
जला रहे थे आशियानों को
हमने नहीं की थी दुश्मनी
तो फिर किससे थी
किसने भरा ऐसा जहर उनके दिमाग में
एक सवाल, जो कौंधता है
खोजता है
उन जहरीले बीजों को
जो पनप रहे हैं, होंगे कहीं इसी धरती पर
---------------------
लेकिन उनका क्या हो
जो पनप रहे, इसी देश में
हमारे-आपके बीच
बांट रहे जहर, मीठी बातों से
गरम चाय के प्यालों के साथ
और हम हैं कि होते जा रहे कमजोर
आतंकवाद के एड्स के साथ
दिन ब दिन
जिसकी अभी तक नहीं बना दवा
और जहर बन गयी है खुली हवा
उन धुओं से
जो आशियानों के जलाने से उठे हैं
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शायद ये सवाल वहां भी उठता होगा
जहां से वे आये थे
धूल का गुबार जब होगा शांत
पानी जब होगी साफ
हम न चाहते हुए भी भूल जायेंगे
दोहरायेंगे फिर वही कहानी पुरानी
कंधारवाली
क्योंकि हमारे नेता सुधरेंगे नहीं
क्योंकि वे नशे में हैं
पावर के, इस गुमान में कि देश है
एक भारत
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पर ये तो जल रहा है
पल-पल, हर पल
बिना रुके
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
ये है ब्लॉग पर लाइव कवरेज
टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज -
मुंबई में.. मुंबई में आतंकवादी घुस गये हैं... कहां से... .समुद्री रास्ते से... देखिये विस्फोट हुआ।
अखबार का दफ्तर -
धत तरे कि. ... अरे यार वो वाला चैनल लगाओ सबसे तेज...
देखो गोलियां चलीं।
पुलिस कमिश्नर का बयान - हम आतंकवादियों पर काबू पा लेंगे। पूरी पुलिस फोसॆ लगी है....
तेज चैनल -
लाइव कवरेज .... हो रहा है.. घटनास्थल से मैं फलां,,.... फलां... फलां...
दशॆक -
अरे तीन लोग मारे गये....
कौन-कौन.... पुलिस अधिकारी हैं.... क्या? ..... बाप रे ये क्या हो गया.....
पाटिल कहां...... कौन पाटिल..... गृह मंत्री शिवराज पाटिल.....
नजर नहीं आ रहे .... चलो यार दूसरा चैनल लगाओ.....
संवाददाता........भाई साहब क्या हो रहा है.... आप कैसे बचे... टीवी कैमरा फोकस करो....
धांय.... धांय... .चारों ओर से गोलियां चल रही हैं, कुछ बताना मुश्किल है....
२७ नवंबर ----
सेना बुलायी गयी है.... .कमांडो..... लगाये गये हैं.....
धांय-धांय...
अब ये आतंकी नहीं बचेंगे....
क्या लाशें मिल रही हैं.... क्या-क्या.. .कैसे.... ये तो नरसंहार है....
देर शाम.. अखबार का दफ्तर...... तीन सौ से ज्यादा घायल हुए, १०० से ज्यादा मरे.... चलो यही हेडिंग ठीक रहेगा... चलो...
कल टेंशन खत्म हो जायेगा...
२८. नवंबर...
मैं ताज से फलां... फलां....
ये लाइव कवरेज..... देखिये थोड़ा झुक जाइये, आपको गोली लगेगी।( और वे जो लड़ रहे हैं, उन्हें नहीं)
फिर शाम तक ...आतंकवादी मार दिये जाते हैं.....
नारेबाजी करती भीड़..... भारत माता की जय.... वंदे मातरम....
अखबार का दफ्तर -
बाप रे बड़ी टेंशन हो गया... कल से नॉमॆल रहेगा...
चैनल पर न्यूज -
पाकिस्तान से जरदारी ... हमारा आतंकवादियों से कोई संबंध नहीं....
भारतीय .... हमारा है, वे हमें मारने आये थे, हमने उन्हें मार दिया.....
गुरुवार, 27 नवंबर 2008
शोक-विलाप नहीं, हिम्मत की बात करें
बुधवार, 26 नवंबर 2008
ये तो युद्ध है... जागो साथियों जागो
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
लकड़ी की काठी-काठी पे घोड़ा
गुरुवार, 20 नवंबर 2008
आम आदमी क्यों नहीं बनता है मुद्दा
उधर शिव सेना साध्वी प्रग्या के मामले में खुल कर सामने आ गयी है। उसने एटीएस को जांच से हटाने तक की मांग की है। बाबरी मस्जिद से शुरू हुआ धमॆ का विवाद अब आतंकवाद जैसे शब्द के इदॆ-गिदॆ लड़ा जा रहा है। ये है राजनीति का स्तर। जिसे मीडिया भी खुलकर हवा दे रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि पूरी प्रक्रिया भी अदालत के सामने है। उस पर खुल कर कोई ठोस नतीजे नहीं आये हैं। लेकिन आतंकवाद को लेकर एक बहस ऐसी छिड़ी है कि सारे मुद्दे गौण हो गये हैं।
इन सारी हलचलों के बीच एक रिपोटॆ जो हिन्दुस्तान के १९ नवंबर के अंक में छपी, वह यह कि अंतरराष्ट्रीय संस्था आइएफपीआरआइ (द इंटरनेशनल फुड पॉलिसी रिसचॆ इंस्टीट्यूट) की रिपोटॆ के अनुसार एमपी और झारखंड में सबसे ज्यादा भूखे लोग हैं। भारत के १७ राज्यों में भूख बड़ी समस्या है। भूख की समस्या पर संस्था ने विश्व के कुल ८८ देशों में सरवे किया है। इसके अनुसार भूख से प्रभावित देशों की सूची में भारत का नंबर २२ वां है। बिहार में भी हालात बेहतर नहीं है। वह तीसरे नंबर पर है।
काफी सवाल हैं।
मंदी के कारण कंपनियों का बंटाधार हो रहा है। मराठी-बिहारी विवाद की बजाय देश में रोजगार बढ़ाने के लिए पहल क्यों नहीं की जा रही है। कंपनियों, कारखानों और सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से निपटने के लिए कोई उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं। किसान, जो कि महाराष्ट्र और आध्रप्रदेश जैसे राज्यों में समस्याओं से परेशान हैं, उनकी समस्याओं के निराकरण के उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं।
एक राष्ट्रीय पत्रिका की ताजा रपट ने भी नौकरियों पर आफत की आशंका जतायी है। आम आदमी चिंतित, आतंकित और भविष्य को लेकर परेशान है।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि आम आदमी को उग्र हिन्दुत्व या आतंकवाद से क्या मतलब है? क्यों नहीं भावनाओं को बहानेवाले मुद्दों को छोड़ कर ये पाटिॆयां उन मुद्दों को छूती हैं, जिनसे आम आदमी की जिंदगी बदल सकती है? आम आदमी की तकदीर बदलने की सोचने की हिम्मत इन दलों में क्यों नहीं होती? टिकट की देनदारी के वक्त खुद दल के लोग ही दल की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने लगते हैं। क्या इसी प्रजातंत्र के सहारे प्रगति की उम्मीद जगायी जा सकती है?
चुनाव आने को है। इसलिए इन बातों से अलग होकर आम आदमी को भावना में नहीं बहकर सही रास्ता अख्तियार करने की जरूरत है। अब देखना ये है कि ये आम आदमी अब क्या करता है?
मंगलवार, 18 नवंबर 2008
कहां गये वे , जो पानी में आग लगाते थे?
रामधारी जी की ये कविता काफी भाती है। सोचा, आपके लिए पेश करूं। आपने पढ़ा भी होगा, लेकिन इन्हें बार-बार पढ़ने का मन करता है।
जनता जगी हुई है।
क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिंता से ठगी हुई है।
कहां गये वे , जो पानी में आग लगाते थे?
बजा-बजा दुंदुभी रात-दिन हमें जगाते थे?
धरती पर है कौन? कौन है सपनों के डेरों में?
कौन मुक्त? है घिरा कौन प्रस्तावों के घेरों में?
सोच न कर चंडिके! भ्रमित हैं जो, वे भी आयेंगे।
तेरी छाया छोड़ अभागे शरण कहां पायेंगे?
जनता जगी हुई है
भरत भूमि में किसी पुण्य पावक ने किया प्रवेश।
धधक उठा है एक दीप की लौ सा सारा देश।
खौल रहीं नदियां, मेघों में शंपा लहर रही है।
फट पड़ने को विकल शैल की छाती दहल रही है।
गजॆन, गूंज, तरंग, रोष, निघोॆष, हांक हुंकार।
जानें, होगा शमित आज क्या खाकर पारावार।
जनता जगी हुई है?
ओ गांधी के शांति सदन में आग लगानेवाले।
कपटी, कुटिल, कृतघ्न, असुरी महिमा के मतवाले?
वैसे तो, मन मार शील से हम विनम्र जीते हैं,
आततायियों का शोणित, लेकिन, हम भी पीते हैं।
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार
सावधान! ले रहा परशुधर फिर नवीन अवतार।
जनता जगी हुई है।
मूंद-मूंद वे पृष्ठ, शील का गुण जो सिखलाते हैं,
वज्रायुध को पाप, लौह को दुगॆण बतलाते हैं।
मन की व्यथा समेट, न तो अपनेपन से हारेगा।
मर जायेगा स्वयं, सपॆ को अगर नहीं मारेगा।
पवॆत पर से उतर रहा है महा भयानक व्याल।
मधुसूदन को टेर, नहीं यह सुगत बुद्ध का काल।
जनता जगी हुई है
नाचे रणचंडिका कि उतरे प्रलय हिमालय पर से
फटे अतल पाताल कि झर-झर झरे मृत्यु अंबर से
झेल कलेजे पर, किस्मत की जो भी नाराजी है
खेल मरण का खेल, मुक्ति की यह पहली बाजी है।
सिर पर उठा वज्र, आंखों पर ले हरि का अभिशाप।
अग्नि स्नान के बिना नहीं धुलेगा राष्ट्र का पाप।
हिंदी ब्लागरों परिवारवाद का विरोध करो
लेकिन सवाल वही, क्या विचारों के प्रवाह को खेमेबाजी में बदला जा सकता है। हो सकता है कि ब्लाग की दुनिया में कई लोगों के विचार एक जैसे हों। कुछ लोग एक-दूसरे का काफी सम्मान भी करते होंगे। उनमें आत्मीयता भी बढ़ी होगी। लेकिन दूसरों के सामने उन सबको परिवार के दायरे में बताना संकुचित मानसिकता की पहचान है। अभिव्यक्ति के मंच पर हम-आप, हमारा-तुम्हारा और मेरा-तेरा जैसे किसी शब्द की कोई जगह नहीं होती है।
जब संविधान बना, तो सबसे ज्यादा अहमियत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दी गयी। अगर आप किसी की आलोचना (गलत आलोचना नहीं, बल्कि सही) को सहन नहीं कर पाते हैं, तो आपको दूसरे की आलोचना करने का भी हक नहीं है। विचारों की दुनिया में आप तभी तक जिंदा रह सकते हैं, जब तक आप दूसरे लोगों के विचारों का सम्मान करते हैं।
जब बौद्धिक जगत के लोग एक साथ जुटेंगे, तो तकॆ-वितकॆ होगा ही। कभी भी एक व्यक्ति के विचार दूसरे से नहीं मिलेंगे। अगर एक ही सिद्धांत के माननेवाले होंगे, तब भी कुछ मुद्दों पर मतभेद होगा ही। ब्लॉग भी लेखनी का एक नया जरिया ही है। कृपया इसे परिवार और खेमों में बांट कर प्रदूषित करने की चेष्टा नहीं हो। यही उचित है। हो सकता है कि कुछ ब्लॉग जगत के पुराने खिलाड़ी हों। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि परिवार और खेमों में बांटकर बहस और विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए बनाये गये मंच का माहौल ही खराब कर दिया जाये।
उम्र और अनुभव में कुछ साथियों के बड़े होने के कारण शायद उन्हें यह ठीक नहीं लगे, लेकिन पूरा मामला यही है। ब्लाग जगत को विचारों के समुद्र में गोता लगाने दीजिये। आप भी कम्युनिस्ट और पूंजीवाद विचारों का अध्ययन करें। उनके गुण-दोष जानें और हम सबको बतायें। लेखन एक स्वतंत्र विद्या है। यहां किसी के समथॆक होने या उनके विचारों को सम्मान नहीं देने का कोई सवाल नहीं है। हां असहमत या सहमत होना एक अलग बात है। उम्मीद है कि हमारे विचार से आप भी सहमत होंगे।
सोमवार, 20 अक्टूबर 2008
तो शीषॆक पढ़ा-बेलगाम राज
आसमान से धूप हल्की किरणों से पांव पसारने की कोशिश में थी।
अखबारों पर नजर पड़ी, तो शीषॆक पढ़ा-बेलगाम राज।
फिर वही राजनीति. वही आरोप-प्रत्यारोप। बेचैन मन ने ठंडे पानी का सहारा लिया। क्या फिर वही पुरानी कहानी दोहरायी जायेगी। ...........................
याद आया-छठ आने को है। फिर मुद्दा शायद उठे-मराठी बनाम बिहारी का। फिर वही गरजना-बरसना। फिर अगले बरस के लिए चुप हो जाना।
मन सवाल पूछता है-ये सस्ती राजनीति करनेवाले रोटी बनाने का कारखाना लगाने की क्यों नहीं सोचते?
कभी किसी ने यह पूछा है कि तुम्हारा खून लाल है या नीला। नहीं, जरूरत नहीं पड़ी होगी। दो-चार लोगों से बात होती है, तो
दो लोग कहते हैं, यार पता नहीं क्या हो रहा है?
उनमें से एक का भाई भी परीक्षा देने गया था। रातभर उन महोदय को नींद नहीं आयी भाई की चिंता से।
फिर मन पूछता है-क्या ये हम अपने ही देश में इतने बेगाने हो गये हैं कि कहीं भी कोई हमें हमारी पहचान के नाम पर पीट दे।
कुछ दिनों पहले यहां झारखंड में भी मराठियों के खिलाफ चंद नकारात्मक तत्वों ने रोड़े अटकाये थे, तब हम अखबारनवीसों ने इस मुद्दे को जमकर उछाला और इसका विरोध क्या था।
हमें तो ये समझ में नहीं आता है कि कोई व्यक्ति किसी देश के संविधान से हटकर कैसे बात कर लेता है। लेकिन टाटा के नैनो से लेकर अब तक जितनी भी घटनाएं हुई हैं, उसने मुझे खुद से सवाल नहीं पूछने को बाध्य कर दिया है। लगता है, थोड़े दिनों के बाद लोग न्यूज चैनलों को छोड़ कर फिल्म और सीरियलों का ही सहारा ले लेंगे। कम से कम वहां तो इस सामाजिक समरसता को बिगाड़नेवाली खबरें पीछा तो नहीं करेंगी।
खुलेपन के नाम पर इस देश ने अब तक क्या पाया बेलगाम राजनीति, बेलगाम मीडिया या बेलगाम उपभोक्तावाद।
मन कनफ्यूज है, क्या करना होगा, क्या करें, समझ में नहीं आ रहा है।
लगता है, इस सिस्टम को चला पाने में यहां के नेता असमथॆ हैं। इस देश में और कुछ हो न हो, कम से कम व्यवस्था तो कायम रहे, जिससे हम कहीं भी बिना डर के आ-जा सकें। यह एक अहम सवाल है। इसके लिए अपने अंदर झांकना होगा, लेकिन सबसे पहले हमारे प्रतिनिधियों को यह करना होगा, क्योंकि इस अव्यवस्था और बेचैनी के जिम्मेवार वही हैं।
गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008
नो स्मोकिंग प्लीज......
लेकिन इन बहस, शिकायतों से अलग यह हमें मानना चाहिए कि सिगरेट पीना गलत बात है। गंदी बात है। इसलिए मेरी अपील है, दोस्तों कि अच्छी बातों में साथ दें जरूर। उम्मीद छोड़ें नहीं और सरकार के इस जंग में जमकर साथ दें। अपने बेटे को इससे दूर रहने की सलाह दें। खुद भी सिगरेट पीना छोड़ें। क्योंकि सर ये कोई अच्छी बात नहीं।
वैसे भी अब हर मां अपने बच्चे को सिगरेट पीने से मना करने के लिए बोलती है-बेटा सिगरेट मत पी, नहीं तो गब्बर सिंह (सरकार के रखवाले) आ जायेगा।
गुरुवार, 25 सितंबर 2008
क्या फिर पुरानी राह लौट चली दुनिया?
जर्मनी के वित्त मंत्री पीयर श्टाइनब्रुक ने भी कहा है कि मौजूदा वित्तीय संकट विश्व वित्तीय व्यवस्था में अमेरिका के महाशक्ति के दर्जे पर चोट कर सकता है। जर्मन वित्त मंत्री ने कहा कि वित्तीय बाजार को नये सिरे से व्यवस्थित करने के लिए कड़े अंतरराष्ट्रीय नियमों की जरूरत है। यहां भारत में भी अमेरिकी निवेशों पर असर पड़ रहा है। कई हजार नौकरियां खतरे में हैं। यूरोप में महंगाई की मार ने एक व्यक्ति को उलटा लटक कर अनोखा प्रदशॆन करने के लिए बाध्य कर दिया। ये सारी घटनाएं उन देशों में हो रही हैं, जो ग्लोबल इकोनॉमी के आधारस्तंभ माने जाते हैं।
इधर रूस ने जॉिजॆया मामले में कड़ा रुख अख्तियार कर अमेरिकी वचॆस्व को ही चुनौती दे डाली। अब धीरे-धीरे हर मामले में अपना लचीला रुख कम करता रूस अमेरिका के कद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छोटा करने में जुटा है। इसे कई जानकार दूसरे शीतयुद्ध की शुरुआत तक मान रहे हैं। चीन ने ओलंपिक का आयोजन कर खुद के इकोनॉमिक सुपर पवार होने की पहचान दे ही दी है। इसे अब तक का बेहतरीन अायोजन भी माना गया है। नेपाल में माओवादी नेता प्रचंड का राष्ट्रपति चुना जाना और चीन की ओर उसका झुकाव एक अलग संकेत देता है। भारत तो कबोबेश मध्यम मागॆ अपना कर सबको खुश रखने की नीति पर ही कायम है। ऐसे में यह अहम सवाल उठ रहा है कि क्या फिर दुनिया पुरानी राह पर लौट चली है?
ये दुनिया ग्लोबल तो हो गयी है। खुलेपन के बहाने बना बनाया सिस्टम तोड़ डाला गया। अब है कि तूफान अमेरिका में होता है, तो उसका असर इंडिया में होता है। आम आदमी जब ग्लोबल दुनिया का हिस्सा बन गया है, तो हो रहा हर बदलाव उसे ही प्रभावित करेगा। चाहे तेल का दाम हो या इंश्योरेंस सेक्टर, हर चीज प्रभावित होती है इन बदलावों से।
अहम सवाल यह है कि हम अपने देश में इन बदलावों से होनेवाले कुप्रभावों से क्या कर रहे हैं। महंगाई की बढ़ती दर पर लगाम लगाने में तो सरकार विफल रही है। ऐसे में अगर अमेरिकी अथॆव्यवस्था की मार हमारे यहां हजारों नौकरियों पर पड़ेगी, तो बेरोजगारों की फौज के लिए नयी नौकरियां कहां से आयेंगी। सवाल महत्वपूणॆ है और चिंतित होने को बाध्य करता है।
गुरुवार, 18 सितंबर 2008
लालच कम कर जीना ही है बेहतर
वैसे भी कहा गया है
चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर
पाप से धन-लक्ष्मी घटे, कह गये दास कबीर
कितनी आसानी से कह दिया एहसान फरामोश
इंडियन नेता इस मामले में कहीं आगे हैं। अगर जाल फेंक कर पब्लिक को फंसाना हो, तो तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। भले ही वह उसकी भावना को आहत करता हो। शब्दों के बाण चलाकर जनता का अपनी ओर ध्यान खींचना सबसे आसान होता है। क्योंकि इसमें हींग लगे न फिटकरी-रंग चोखा ही चोखा वाली बात होती है। न पैसा लगा न समय और चरचा में भी आ गये।
अब हालिया मामला ऐसा है कि हमारे एक नेता ने सख्त तेवर अपनाते हुए खिलाड़ियों को एहसान फरामोश कह दिया। खालिस उरदू शब्द है, पर जब दिल को लगता है, तो तिलमिला जाता है आदमी। एहसान फरामोश यानी एहसान नहीं माननेवाला।
एक खिलाड़ी ने शायद कहा था कि सिस्टम से उन्हें पूरा सपोटॆ नहीं मिला। एक इंटरव्यू में माननीय नेताजी से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि ऐसा बोलनेवाले एहसान फरामोश हैं, क्योंकि सरकार ने उन पर लाखों खचॆ किये। यह सब तो ठीक है, लेकिन शब्दों का इतना कड़ा इस्तेमाल कुछ पच नहीं रहा।
पता नहीं क्यों, टीवीवाले बिग बॉस टाइप का शो बनाते हैं। यह पूरा कंट्री तो खुद ही बिग बॉस सीरियल का जीता जागता रूप है। जब लड़ना ही देखना है, तो यहां देखिये। ऊपर से मीडियावाले तो माइक और कैमरा लेकर तैयार हैं ही। कहते हैं शब्द और तीर लौट कर नहीं आते। अब इस मामले में आगे क्या होता है, यह देखना होगा।
एक कहावत है, पेड़ जितना फल से लदा हो, उतना झुकता है। इन माननीय नेताओं की पोजिशन भी जनता की दी हुई है। उस पर जब ये शब्दों के बाण चलाते हैं, तो शायद इसमें उनका दपॆ ही झलकता है। विनम्रता, मीठी वाणी और अच्छे बोल ही अच्छे नेता की पहचान हैं। अगर सच नहीं कहा, तो किताबें पढ़ लिजिये।
वैसे कहने को तो आदमी किसी को कुछ कह सकता है। खिलाड़ी भी शायद भावनाओं में सीमा लांघ जाते हैं। ऐसा होता रहता है। लेकिन शब्दों का इस्तेमाल समझदारी से करना जरूरी है।
बुधवार, 17 सितंबर 2008
बंद हों बच्चों के रिएलिटी शो
याद करिये, रिएलिटी शो में एक लड़की के सदमे में चले जाने की घटना को। टीवी एक सावॆजनिक मंच मुहैया कराता है। यहां प्रतिभागी सीधे देश के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। चुनौती, दबाव चरम पर रहता है। वैसे में जजों द्वारा भी जैसी सख्त टिप्पणियां की जाती है, वह सामान्य आदमी की सोच से बाहर की होती है।
किसी जज का गुस्सा कर शो से बाहर चले जाना, किसी प्रतिभागी को बुरी तरह डांटना, तो किसी को उसकी कमजोरी को खराब तरीके से बताना, आज के रिएलिटी शो के अंग बन चुके हैं। ये शायद ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि मसालेदार शो चर्चा का विषय बन जाता है। और इससे शो बनानेवालों को फायदे ही फायदे हैं। शो में इतना पैसा लगा होता है कि आयोजक किसी भी तरह इसे हिट कराने का फारमूला ढूढ़ते रहते हैं। इन दिनों एक शो में तो युवा प्रतिभागी आपस में इतनी बुरी तरह विवाद करते हैं कि कोई भी सभ्य नागरिक उसे देखना पसंद नहीं करेगा। ऊपर से रिएलिटी शो में बच्चों को पूरी प्रतियोगिता के दौरान अविश्वसनीय दबाव झेलना पड़ता है।
शुरुआत में रिएलिटी शो में विनम्रता, सादगी और सम्मान को तरजीह दी जाती थी। लेकिन आज की गला काट प्रतियोगिता में चैनल सारी हदों को पार कर सिफॆ टीआरपी के लिए इन बच्चों को स्वाथॆसिद्धि का माध्यम बना रहे हैं। आज इतनी प्रतियोगिताएं हैं कि शायद ही किसी विजेता को ज्यादा दिनों तक याद रखा जाता है। कुछ महीनों के बाद ये विजेता भी गुमनामी के अंधेरों में फिर खो जाते हैं।
बंबईया नगरी का सपना किसी नहीं लुभाता। चमक-दमक, लाइट-साउंड किसे नहीं भाता। पर इस रोशनी के बाहर छाये अंधेरे को देखने की हिम्मत शायद हममें नहीं है। ठीक है, ये रिएलिटी शो बच्चों को एक खास मौका देते हैं, लेकिन लाखों अभिभावकों में एक झूठी तमन्ना भी जागृत करते हैं। वैसे में जो जीत गया, वह तो सिकंदर हो जाता है, पर जो बाहर रह गये, उनके लिए सिफॆ सपना।
रिएलिटी शो में रियल विजेता एसएमएस की होड़ में शायद पीछे ही रह जाते हैं। एक बात और गौर करनेवाली है कि इन रिएलिटी शो ने क्षेत्रवाद को भी बढ़ावा दिया है। जनता को जिताने का अधिकार तो होता है, पर ये जनता इलाकों में बंटकर अपने क्षेत्र के प्रतिभागी को ही ज्यादा वोट देने की कोशिश में रहती है। वैसे में जो सही और टैलेंटेड प्रतिभागी होता है, वह एलिमिनेट हो जाता है। उससे सही टैलेंट को मारकेट में जगह नहीं मिल पाती है।
साफ शब्दों में ये रिएलिटी शो एक शाटॆ कटॆ रास्ता दिखाता है। इंदौर में एक युवक दुस्साहस के कारनामे दिखाते हुए अस्पताल जा पहुंचा था। कोई भी शो या सीरियल मानव जीवन और सामाजिक सरोकारों से समझौता करते हुए नहीं चल सकता है। उसमें भी कम उम्र के बच्चों का रिएलिटी शो तो कतई नहीं। वैसे भी पानी सिर से ऊपर बह रहा है। सरकार को ठोस कदम उठाने ही चाहिए।
जरा! बच्चों को अपनी भाषा भी सिखाइये
तथाकथित भाषा के ठेकेदारों, चिंतकों और शुभचिंतकों ने सालभर से खराब पड़े ढोल की मरम्मत की, हिंदी दिवस के दिन खूब बजाया और अब शायद रख भी दिया होगा। हिंदी को कठिन शब्दों और मुहावरों में बांधकर एक खास तबके तक सीमित रखने की पुरजोर कोशिश हुई। सौभाग्य से आज हिंदी इलेक्ट्रानिक मीडिया के बहाने उन कठिन दुराग्रहों से निकल कर सहज, संवेदनशील और कामचलाऊ होने की ओर अग्रसर है। जिससे दूसरी भाषावाले भी सीख सकते हैं। जैसे हम-आप शेक्सपीयर के उपन्यासों को नहीं जानते हुए भी कम से कम टूटी-फूटी अंगरेजी तो बोल और समझ ही लेते हैं।
चिंता अब हिंदी को छोड़ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर है। बिहार, झारखंड, यूपी और एमपी में कई भाषाएं बोली और समझी जाती हैं। अब तक इन क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर कोई खास बहस नहीं हुई होगी। अब चिंता इस कारण बढ़ी है कि हमारी पीढ़ी के लोग बच्चों से अपनी भाषा में अपने ही परिवार में ही बात करने से कतराने लगे हैं। शायद उन्हें अपने बच्चों के इस कठिन दौर में पिछड़ जाने की चिंता है। कोई अंगरेजी में बात करता है, तो कोई खालिस हिंदी में। वैसे में इन क्षेत्रीय भाषाओं का क्या स्वरूप होगा, पता नहीं। आप आज-कल किसी भी मिडिल क्लास फैमिली में जाइये और उनसे उनकी मातृभाषा में बात करें, तो बच्चा शायद चुप्पी साध ले। क्योंकि मां-बाप उससे कभी अपनी मातृभाषा में बात ही नहीं करते।
बात करें थोड़ी संस्कृति की। तो संस्कृति के नाम पर सीरियलों में साल-बहू को गहरे मेकअप में करोड़ों का बिजनेस संभालते हुए बस साजिश ही करते दिखाया जा रहा है। साथ ही अपमानजनक शब्दों और तेवरों का प्रयोग कर बड़ों को संबोधित करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। आप-हम शायद सोचेंगे-कहीं किसी गली में शोर हुआ, तो हम क्या करें? पर सर, यह शोर तो साइलेंट मोड में दबा हुआ है। जिस दिन साइलेंट मोड वाला बटन हटेगा, सारी व्यवस्था ही ढह जायेगी।
अपने बच्चों को कम से कम अपनी भाषा की जानकारी तो दें ही। उन्हें भारतीय तौर तरीकों को आदर करना भी सीखाना होगा। वैसे भारतीय संस्कृति के नाम पर शायद चैनलवाले भी गंभीर हो गये हैं। तभी तो विशुद्ध भारतीय संस्कृति पर आधारित चैनल आने लगे हैं। लेकिन चीनी भी इतना शबॆत में न मिलाया जाये कि उसका स्वाद ही बिगड़ जाये। इसलिए संतुलन बनाते हुए धीरे-धीरे बढ़ना जरूरी है अपने बच्चों के साथ।
अब आपको अच्छा लगे या बुरा, पर सच यही है।
मंगलवार, 16 सितंबर 2008
जानिये एक अधिकारी की अनूठी पहल को
आज पूरे देश में बदलाव की बयार बह रही है। प्राइवेट सेक्टर युवाओं को भरपूर नौकरी का अवसर दे रहा है। ब्यूरोक्रेसी में पहले जैसी एट्रेक्शन नहीं रही। ब्यूरोक्रेसी की एफिसियेंसी पर सवाल उठ रहे हैं। उस दौर में कुछ ऐसे अधिकारी भी हैं, जिनके प्रयास ने लोगों की जिंदगी बदल डाली है। .................
ऐसे ही एक इंडियन फॉरेस्ट सरविस के अधिकारी हैं सिद्धाथॆ त्रिपाठी। श्री त्रिपाठी झारखंड राज्य में डीएफओ के पद पर पदस्थापित हैं। इन्होंने आइआइटी रुड़की से इंजीनियरिंग करने के बाद इंडियन फॉरेस्ट सरविस में योगदान दिया। इन्होंने दलमा इलाके में विशु शिकार पर रोकने में अनोखी भूमिका निभायी।
विभाग ने इनके बेहतरीन कामों को देखते हुए केंद्र द्वारा प्रायोजित योजना में से कुछ राशि स्वीकृत की। दूरदरशीॆ श्री त्रिपाठी ने इन पैसों का सदुपयोग करने का फैसला लिया। इन पैसों का उपयोग दलमा के आसपास के गांवों में किया जानेवाला था।
व्यक्तिगत स्तर पर पहल करते हुए डीएफओ श्री त्रिपाठी ने दलमा और आसपास के ८२ गांवों में बैठक करनी शुरू की। कुछ बैठकों में खुद गये और ग्रामीणों की समस्याएं सुनीं। पता चला कि ग्रामीणों को सेनिटेशन और साफ-सफाई की कोई जानकारी नहीं थी। परिणाम था कि कोई अगर बीमार पड़ जाता, तो पीड़ित मरीज गांव पहुंचने से पहले ही काल के गाल में समा जाता।
समस्या जानने के बाद डीएफओ ने रामगढ़ जिले में स्थित वृंदावन अस्पताल के प्रमुख से भेंट की और उनसे ग्रामीणों को साफ-सफाई और मेडिकल की ट्रेनिंग देने का अनुरोध किया। ८२ गांवों के चुने हुए ५७ लोगों को ट्रेनिंग मिली। इनमें १५ महिलाएं भी थीं। आज सभी लोग मलेरिया, डायरिया और पीलिया का इलाज करना सीख चुके हैं। रक्तचाप की जांच भी खुद कर लेते हैं।
जानकारी के अनुसार ट्रेंड विलेजसॆ को ३५ सौ रुपये का मेडिकल किट्स भी मिलेगा।
एक अधिकारी का सकारात्मक नजरिया कैसे पूरी आबादी को प्रभावित करता है। इसका इससे अच्छा उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता है। आशा है कि सिद्धाथॆ जी आगे भी आम जनता की ऐसी ही सेवा करते रहेंगे।
सोमवार, 15 सितंबर 2008
वैचारिक गरीबी का दंश झेल रहा है इंडिया
आपने नायक फिल्म जरूर देखी होगी। एक साधारण टीवी रिपोटॆर घटनाओं के जाल में फंसते हुए एक दिन का मुख्यमंत्री बन जाता है। फिल्म का हीरो इस देश से करप्शन को खत्म करने का आह्वान करता है। प्रसिद्ध दाशॆनिक कृष्णामूतिॆ का एक संवाद सुन रहा था टीवी पर। इसमें उन्होंने हमारी वैचारिक गरीबी का जिक्र उठाया था। हमारा देश अगर गरीब होता है, उसके पीछे कारण हमारी वैचारिक गरीबी ही है। राजनीति में शॉटॆकट के सहारे नेम और फेम पाने का चलन बढ़ता जा रहा है। सड़क पर चल रहे को एक दिन में आसमान छूने की तमन्ना है, चाहे कुछ भी हो जाये।
जयपुर, वाराणसी, मुंबई, दिल्ली में लगातार बम विस्फोट होते हैं। उसके बाद नेताओं का गैर-जिम्मेदाराना बयान, उनके क्रियाकलाप हमें अपने वैचारिक रूप से गरीब होने का और अहसास करा जाते हैं। इन सबके लिए काफी हद तक जिम्मेदार, दोषी हम भी हैं। टीवी में एक एडवरटाइजमेंट में युवक नेता से वोट मांगते वक्त उनकी क्वालिफिकेशन, इंटरेस्ट और टारगेट के बारे में पूछता है। मुद्दा हल्के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसके पीछे छिपी बात कितनी गहरी है कि इसके बारे में सोचिये। जब हम वोट मशीन में बटन दबाते हैं, तब क्या इस चीज के बारे में सोचते हैं। शायद नहीं, इसी कारण गरीब विचारवाले आज हमारे रहनुमा बन बैठे हैं। वे तय करते हैं कि हमारी केंद्रीय सरकार रहेगी या नहीं। जिस मुद्दे पर उन्हें संसद में बहस करनी है, उसके बारे में वे ए बी सी डी तक नहीं जानते हैं।
लीडरशिप कोई एक दिन में पैदा हुई चीज नहीं होती। यह तो उन अनुभवों से आता है, जब व्यक्ति स्ट्रगल के दौर से निकल कर एक मुकाम हासिल कर लेता है। यहां हमारे रहनुमा बिना किसी स्ट्रगल के विवाद के सहारे ऊंचाई छूने की कोशिश में है। विस्फोट के बाद एक खास संगठन को लेकर सबूत मिल जाने के बाद विवाद किया जा रहा है। माननीय गृह मंत्री का हर थोड़े अंतराल पर सूट बदलना भी चचाॆ में है। विचारों का अंत साफ दिख रहा है। जब विचार ही नहीं होंगे, तो क्या सिद्धांत और क्या राजनीति। सारा कुछ तो हाशिये पर है। अब देखना ये है कि समय की मार इस देश में कोई विवेकानंद या गांधी हमारे बीच खड़ा करती है या नहीं।
रविवार, 14 सितंबर 2008
और कितने विस्फोट? अब तो चेत जाये सरकार
कुछ दिनों पहले लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी ने संवाददाता सम्मेलन कर आतंकवाद मुद्दे के प्रति केंद्र सरकार के ढीला होने का आरोप लगाया था। जो सही जान पड़ता है। केंद्र में कांग्रेस की सरकार और दिल्ली में भी। उसके बाद भी इन मुद्दों पर दोनों में तालमेल का अभाव साफ झलक रहा है। पूरा सिक्यूरिटी सिस्टम भगवान भरोसे रह गया है।
आतंकवाद कोई एक दिन में पनपा नहीं है। इसके लिए जिम्मेवार सरकार का ढीला रवैया और हर मुद्दे को राजनीतिक चश्मे से देखने की बन चुकी आदत है। यही हमारा विनाश कर रहा है। भाजपा तो शुरू से ही आतंकवाद के मुद्दे पर कठोर कानूनों को लागू करने की मांग करती रही है। लेकिन दलों के बीच जारी आपसी द्वंद्व और वोटों की राजनीति ने अब आम आदमी की सिक्यूरिटी को हाशिये पर डाल दिया है।
तीन सवाल महत्वपूणॆ हैः -
क्यों नहीं सूचना के बाद भी कठोर कदम उठाये गये?
क्यों नहीं राज्य और केंद्र की एजेंसियों में आपसी तालमेल है?
हमारे अधिकारी इन मामलों के प्रति ढीला रुख क्यों अपनाये रहते हैं?
पूवॆ सीबीआइ निदेशक भी इन मामलों के प्रति पनप रही असंवेदनशील प्रवृत्ति को खतरनाक मान रहे हैं। इन विस्फोटों में जो लोग निशाने पर होते हैं, उनमें अधिकतर आम जन ही हैं। हर वगॆ और हर चीज इससे प्रभावित हो रही है। साथ ही इस देश की छवि ऐसी हो रही है, मानो हर वक्त कहीं न कहीं आग का दरिया बह रहा है। भय और दहशत का जो आलम ये आतंकी कायम करना चाहते हैं, शायद इसमें हमारी सरकार की कमजोरियों के कारण सफल भी हो जा रहे हैं।अब वक्त अपनी कमजोरियों पर गौर कर उन्हें दूर करने की है। कम से कम अब तो सरकार चेत जाये और सिक्यूरिटी के साथ सूचना तंत्र को इतना मजबूत बनाये कि आतंकियों के नापाक मंसूबों का आसानी से खात्मा हो सके।
शनिवार, 13 सितंबर 2008
इन राष्ट्रविरोधी ताकतों से डरे नहीं
लेकिन दोस्तों मैं एक अपील करूंगा कि आप इन आंतकी हमलों से घबरायें नहीं, बल्कि और मजबूत इरादों के साथ इन राष्ट्र विरोधी ताकतों को परास्त करने के लिए खड़े हो जायें। क्योंकि अगर हम संगठित और एक रहेंगे, तो ये विरोधी ताकतें हमारा क्या कर लेंगी? वैसे भी ये इंडिया ऐसे न जाने कितने धमाके अब तक झेल चुका है। गांधी और बुद्ध के इस देश में बड़े-बड़े तूफानों को शांत कर देने की कूबत है। इसलिए डरिये नहीं, बल्कि मुकाबला कीजिये इन देश विरोधी ताकतों का हर स्तर पर, चाहे वह लेखनी के माध्यम से हो, या मोरचे पर। हमारे फौलादी इरादे इन राष्ट्र विरोधी ताकतों के आगे पस्त नहीं होंगे। ये चाहे जितना भी विस्फोट कर लें, लेकिन हमारा एकता और शांति के प्रति समपॆण हमेशा बना रहेगा। घायलों की सलामती की भी दुआ करें।