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आज जब सुबह-सुबह निकला, तो एक छोटे बच्चे को चाकलेट खाते और अपनी मस्ती में जाते हुए देखा। जेहन में इसी के साथ मासूम वाले जुगल हंसराज की याद आ गयी। जुगल हंसराज तो अब बड़े हो गये हैं। शायद हमारी उम्र के हैं। उस समय मेरी छोटी बहन लकड़ी की काठी-काठी पे घोड़ा गीत को सुनकर इतनी खुश होती थी कि हम भी उसके साथ इसे गाते रहते थे। सारे दुख भूलकर झूमते और मस्त रहते थे। मासूम के जुगल की मासूमियत ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि जुगल आज तक इतने बड़े हो जाने के बाद भी उसके साये से नहीं निकल पाये हैं। उस मासूम चेहरे ने न जाने कितने लोगों पर जादू कर दिया था। यही कारण है कि हम आज भी उसे बार-बार याद करते हैं। मासूम के गीत तुझसे नाराज नहीं है जिंदगी, सुनकर ऐसा लगता है, जैसे ये हमारी जिंदगी के गीत हों। नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी के अभिनय ने उसमें और चार चांद लगा दिया था। ममता, पिता का स्नेह और परिवार के लिए तरसते एक बच्चे के जज्बातों को इस फिल्म में जैसा पिरोया गया, उसे आप क्लासिक की श्रेणी में जरूर रखेंगे। आज भी कितने मासूम बच्चे परिवार का स्नेह पाने के लिए मचल रहे होंगे। मासूम मेरे बचपन की यादों की सुनहरी दास्तान है। शेखर कपूर ने ऐसी फिल्म बनाकर फिल्मी दुनिया को नयी सोच दी थी। उसके लिए शेखर जी को अभी भी बधाई देने का मन करता है।
4 टिप्पणियां:
लड़की की काठी नही लकड़ी की काठी हैं गाना..
सुधार कर लड़की की काठी को लकड़ी की काठी कर दें।
आप लोगों ने जो गलती बतायी थी। उसे दुरुस्त कर दिया है। गलतियां बताने के लिए धन्यवाद। आशा है आगे भी ऐसा ही मागॆदशॆन प्राप्त होता रहेगा।
bahut hi masoom yaadien hai sundar
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