सोमवार, 9 नवंबर 2009
अगर जरूरत पड़े, तो जरूर सोचियेगा
कल बातें हो रही थीं, चर्चा का विषय था जीवन में हमारा उद्देश्य। कर्म करना मात्र उद्देश्य हो, उपभोग या कुछ ऐसा देकर जाना, जिसे लोग याद करें। कुछ दिनों पहले एक किताब पढ़ी था-द मांक हू सोल्ड हिज फेरारी। एक किताब जिसमें एक सफल बेचैन वकील के फिर से स्वयं के पुनरुद्धार की कहानी है। जब हाइली पैड एग्जीक्यूटिव जीवन के बारें में या टारगेट के बारे में भाषण देता है, तो लगता है कि वह हमारे साथ छल कर रहा है। हम कहते हैं कि जीवन क्या बस उस खास टारगेट के लिए बना है। महानगरीय जीवन में जब सुबह के नौ बजे से शाम के आठ बजे तक की ड्यूटी के बारे में सुनता या सोचता हूं, तो मन ये कहता है कि ये उन तमाम सुविधाओं, जिसे कि उन्होंने घरों में पैसों के बल पर समेटा है, कैसे और किस समय उपयोग कर पाएंगे। आपाधापी में खुद के लिए दो पलों की फुर्सत नहीं और जहां सुधारने की बातें करते चलते हैं। जब शाहरुख बताते हैं कि थोड़ा और विश करो, तो गुमान होता है कि चलो थोड़ा और विश कर अपनी लाइफ स्टाइल और बेहतर बना देते हैं। लेकिन यही थोड़ा, जिंदगी के बेजरूरत के संघर्ष को कठिनतम बनाने की ओर अग्रसर होता है। ये भी सच है कि हम आज खुद को जिंदा रखने के लिए फास्ट लाइफ स्टाइल में ढल गए हैं। कई लोगों की ये मजबूरी हो गयी है कि वे इसे अपना लें, नहीं तो उनके सामने रोजी-रोटी का संकट हो जाएगा। लेकिन जब करोड़ों की कमाई के बाद भी आपके पास फुर्सत नहीं हो और जीवन के स्तर को मेंटेन करने के चक्कर में अपनी पूरी जिंदगी गुजार दें, तो ये सोचना पड़ता है कि हमारे मशीन बनने के पीछे के कारण क्या हैं? क्या ये हमारी क्षुद्र या लालची मानसिकता नहीं है। हम कभी खुलकर नहीं जीते, हम हिचकते हैं। विचारों के समुद्र में गोता लगाते से डरते हैं। इसलिए शायद अब तक बंगाल, झारखंड में होता उत्पात उतना मनःस्थिति को खराब नहीं करता, जितना खुद के स्वार्थ पर प्रहार होने से होता है। हमने भी आज तक के जीवन में खुद से सुधार की शुरुआत करनेवाले बिरले ही देखे हैं। किसी सेल्स एग्जीक्यूटिव को दरवाजे से टरकाने के पहले क्या हम उसकी मजबूरियों के बारे में सोचते हैं, शायद नहीं। हम खुद से आगे नहीं बढ़ बातें। ये बातें शायद उपदेशात्मक लगे, ऐसा लगे कि महात्मा के नए अवतार ने जन्म लिया है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि ३४ साल की जिंदगी से लेकर अगर ५० साल की उम्र तक सिर्फ बुढ़ापे के लिए बचाने के लिए जंग लड़ा जाए, तो हम उस जंग को किसके लिए माने। अपने लिये, या उस अगली पीढ़ी के लिए, जो हमारे बाद आयेगी। लेकिन वह अगली पीढ़ी भी तो खुद अपना रास्ता अख्तियार करेगी। हमारा यहां थोड़ा खुद के लिए स्वार्थी होने से भी मतलब है। खुद से स्वार्थी होना यानी खुद अपने जीवन के बारे में सोचना, सिर्फ आर्थिक पहलू से नहीं, बल्कि जीवन जीने के पहलू। जहां बेटा या बेटी हमारी झप्पी का इंतजार करता मिले। और जहां कुछ समय हम अपने और परिवार के लिए दें। मेरा ये मानना है कि जिंदगी की खुशी कोई राह चलती मुसाफिर नहीं, जिसे जब चाहा बुला लिया, उसे भी पास जाकर विनती और अनुग्रह के साथ बुलाना पड़ता है। क्योंकि जिंदगी भी प्यार मांगती है। एक प्यार, जिसे आप पैसे या कहें उस आभासी तरक्की के नाम पर ठुकरा रहे हैं, जो आपका कभी नहीं होनेवाला है। अगर जरूरत पड़े, तो जरूर सोचियेगा। ---,
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1 टिप्पणी:
इसलिए शायद अब तक बंगाल, झारखंड में होता उत्पात उतना मनःस्थिति को खराब नहीं करता, जितना खुद के स्वार्थ पर प्रहार होने से होता है |
बहुत सही कहा , ऐसे ही होता है , जब माया के भरमों से फुर्सत मिलेगी तभी कोई बैठ कर सोच सकेगा और जिन्दगी की सुगन्ध को पहचान सकेगा|
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