मंगलवार, 17 नवंबर 2009
पान दुकान भी सुनसान नजर आने लगे हैं
जब से टीवी कल्चर आया है। हर परिवार आधुनिकता के पायदान पर चढ़ता जा रहा है। इसमें पान खाने की संस्कृति में गिरावट ही आयी है। हमारे मिथिला में तो पान संस्कृति जड़ में समायी रहती है। लेकिन हमारे जैसे लोग, जो लगातार बाहर रहे, उन्होंने पान की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। पान दुकान कल्चरल सेंटर हुआ करती थी। हर मुहल्ले की पान दुकान उन सो कॉल्ड लोगों की अड्डेबाजी या टाइम पास का स्थान हुआ करता था, जो निठल्ला चिंतन किया करते थे। घर में बैठे-बैठे समय नहीं कटता था, तो पान की दुकान पर बतकही कर आते थे। ये भी अपने आप में जीवनशैली का खासा अंग हुआ करता था। लेकिन जब से आधुनिक होते जा रहे समाज का रंग बदलने लगा है, अब पान दुकान भी सुनसान नजर आने लगे हैं।पान दुकान पर सचिन की बल्लेबाजी से लेकर साहित्य और अमेरिकी चुनाव तक की चर्चा हो जाया करती थी। वहां से गुजरते हुए न जाने कितने रश्ते या तो नए हो जाया करते थे या नए बन जाते थे। पान की दुकान उन चुनिंदा जगहों में शामिल हुआ करती थी, जहां गप्पबाजी अपने चरम पर होती थी। वहां गूंजती ठहाकों और बहसों की आवाज कार की पों-पों का शोर दब जाता था। पान दुकान के मालिकों के रौब के तो क्या कहने? वे गहरे सामाजिक सरोकार रखनेवाले शख्सियत के रूप में तब्दील हो जाते थे। क्योंकि पान की दुकान पर गरीब, अमीर से लेकर छात्र तक हरे रंग की पत्ती का स्वाद चखने आया करता था। अब भी पान की दुकान चौक-चौराहों पर लगती है, लेकिन उनमें वो रौनक गायब है। या तो पान खानेवाले कम हो गए हैं या इसके कई विकल्प तलाश लिये गये हैं। पान खाने की संस्कृति में बदलाव हमारे संस्कारों में बदलाव को बयां करता है। कैसे, ये तो शोध का विषय है। वैसे भी घर में आये लोगों का स्वागत सिर्फ चाय से करने की लत ने तो खेल को और बिगाड़ डाला है।
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2 टिप्पणियां:
याद दिला दी आपने नुक्कड़ की वो पान की दुकान..जहाँ पहुँच हमेशा बाजार से सब्जी ले जाने में देर हो ही जाती थी..बत्तकड़ी में. :)
आप सही कहते हैं, पान की दुकानों पर वह पुरानी वाली रौनक नहीं रही जब वहाँ गली मुहल्ले से ले कर राष्ट्रीय राजनीति तक की चर्चाएँ हो जाती थीं। पन के ग्राहक भी अब नहीं रहे। गुटके की लड़ियों ने पान की दुकान ही गायब कर दी है। अब तो पान वाला एक पान बनाता है तब तक चार ग्राहक गुटके और सिगरेट के अपना सौदा ले कर चल देते हैं।
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