बुधवार, 18 नवंबर 2009
पहल तो खुद से ही करनी होगी।
घुघूती बासूती नेट के दुष्प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। नेट के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जायज है। आज-कल इसे लेकर एक सब चिंता जाहिर कर रहे हैं। हालिया इंडिया टुडे के अंक में इस पर विशेष रपट भी है। लेकिन जब हर पांच घरों में से एक में नेट उपलब्ध हों, तो अब इस पर चिंता जाहिर करना चाय पीने पर चिंता जाहिर करने जैसा लगता है। हमें याद है कि नेट के आने से पहले या इ-क्रांति से पहले ऐसी पत्रिकाओं की भरमार रहती थी या कहें जंगल बाजार था, जिनसे बच्चों को दिग्भ्रमित होने के पूरे मौके होते थे। शायद अब भी होते होंगे, लेकिन नेट क्रांति ने उनका बाजार समेट कर रख दिया है। चिंता इस बात को लेकर जाहिर की जाती है कि नेट पर बच्चे कहीं किसी गलत चीज या सूत्र पर तो हाथ नहीं डाल रहे। लेकिन चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि आज-कल के मां-बाप के पास अपनी संतान के लिए वक्त क्यों नही है? सामाजिकता के दायरे में बंधने से बच्चों को रोकने की पहल क्यों की जाती है? नेट को बस वर्किंग कल्चर तक समेटने तक ठीक है, लेकिन जिस दिन ये सामान्य जीवनचर्या को प्रभावित करने लगता है, उस दिन ये समझ लेना चाहिए कि पानी सर से ऊपर गुजर चुका है। हमें ये नहीं समझ में आता कि सामान्य बच्चे को नेट डेढ़-दो घंटे से ज्यादा समय बिताने की अनुमति कैसी दी जा सकती है? वैसे मामला सामाजिक सुरक्षा का भी है। कुकुरमुत्ते की तरह उग आये साइबर कैफे निगरानी की जद से बाहर रहते हैं। ऐसे में उन पर निगहबानी उतनी आसान नहीं रहती। इसलिए जरूरत नेट पर निर्भरता को कम करने के साथ-साथ कैफे जैसी जगहों पर भी नजर रखने की है कि कहीं आपका लाल बिगड़ तो नहीं रहा। खतरा है, पर खतरे को बढ़ाने के जिम्मेदार भी माता-पिता हैं। वे बच्चों के प्रति हद से ज्यादा लगाव के शिकार हैं, जिससे बच्चे अनुशासनहीन और बिगड़ैल होते जाते हैं। बाप या मां की कड़ी नजर प्रभावित नहीं करती और वे नेट पर दो से बढ़ाकर चार-पांच घंटे तक दिन के ज्यादातर समय बिताते हैं। पहल तो खुद से ही करनी होगी।
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