सोमवार, 15 सितंबर 2008

वैचारिक गरीबी का दंश झेल रहा है इंडिया

आज-कल एक गजब सी हवा बह रही है देश में। थोड़ा चिंतन, मनन करें, तो पायेंगे, सारी राजनीति में सॉफ्ट टारगेट उद्योग, धंधे और कला ही हैं। पहले धमॆ के नाम पर राजनीति होती थी। विकास प्रभावित होता था इनडायरेक्ट रूप में, पर यहां आज तो विकास के मुख्य आधार उद्योग-धंधे और कला को ही नुकसान पहुंचाया जा रहा है। आज जिस विकासशील देश के होने का हम दंभ भरते हैं, उस स्थिति में देश कोई एक दिन में नहीं आया। उसके लिए नेहरू, पटेल और अन्य विजनरी नेताओं ने रात-दिन एक कर मेहनत की थी।

आपने नायक फिल्म जरूर देखी होगी। एक साधारण टीवी रिपोटॆर घटनाओं के जाल में फंसते हुए एक दिन का मुख्यमंत्री बन जाता है। फिल्म का हीरो इस देश से करप्शन को खत्म करने का आह्वान करता है। प्रसिद्ध दाशॆनिक कृष्णामूतिॆ का एक संवाद सुन रहा था टीवी पर। इसमें उन्होंने हमारी वैचारिक गरीबी का जिक्र उठाया था। हमारा देश अगर गरीब होता है, उसके पीछे कारण हमारी वैचारिक गरीबी ही है। राजनीति में शॉटॆकट के सहारे नेम और फेम पाने का चलन बढ़ता जा रहा है। सड़क पर चल रहे को एक दिन में आसमान छूने की तमन्ना है, चाहे कुछ भी हो जाये।

जयपुर, वाराणसी, मुंबई, दिल्ली में लगातार बम विस्फोट होते हैं। उसके बाद नेताओं का गैर-जिम्मेदाराना बयान, उनके क्रियाकलाप हमें अपने वैचारिक रूप से गरीब होने का और अहसास करा जाते हैं। इन सबके लिए काफी हद तक जिम्मेदार, दोषी हम भी हैं। टीवी में एक एडवरटाइजमेंट में युवक नेता से वोट मांगते वक्त उनकी क्वालिफिकेशन, इंटरेस्ट और टारगेट के बारे में पूछता है। मुद्दा हल्के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसके पीछे छिपी बात कितनी गहरी है कि इसके बारे में सोचिये। जब हम वोट मशीन में बटन दबाते हैं, तब क्या इस चीज के बारे में सोचते हैं। शायद नहीं, इसी कारण गरीब विचारवाले आज हमारे रहनुमा बन बैठे हैं। वे तय करते हैं कि हमारी केंद्रीय सरकार रहेगी या नहीं। जिस मुद्दे पर उन्हें संसद में बहस करनी है, उसके बारे में वे ए बी सी डी तक नहीं जानते हैं।

लीडरशिप कोई एक दिन में पैदा हुई चीज नहीं होती। यह तो उन अनुभवों से आता है, जब व्यक्ति स्ट्रगल के दौर से निकल कर एक मुकाम हासिल कर लेता है। यहां हमारे रहनुमा बिना किसी स्ट्रगल के विवाद के सहारे ऊंचाई छूने की कोशिश में है। विस्फोट के बाद एक खास संगठन को लेकर सबूत मिल जाने के बाद विवाद किया जा रहा है। माननीय गृह मंत्री का हर थोड़े अंतराल पर सूट बदलना भी चचाॆ में है। विचारों का अंत साफ दिख रहा है। जब विचार ही नहीं होंगे, तो क्या सिद्धांत और क्या राजनीति। सारा कुछ तो हाशिये पर है। अब देखना ये है कि समय की मार इस देश में कोई विवेकानंद या गांधी हमारे बीच खड़ा करती है या नहीं।

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