हिंदी दिवस मनाया
तथाकथित भाषा के ठेकेदारों, चिंतकों और शुभचिंतकों ने सालभर से खराब पड़े ढोल की मरम्मत की, हिंदी दिवस के दिन खूब बजाया और अब शायद रख भी दिया होगा। हिंदी को कठिन शब्दों और मुहावरों में बांधकर एक खास तबके तक सीमित रखने की पुरजोर कोशिश हुई। सौभाग्य से आज हिंदी इलेक्ट्रानिक मीडिया के बहाने उन कठिन दुराग्रहों से निकल कर सहज, संवेदनशील और कामचलाऊ होने की ओर अग्रसर है। जिससे दूसरी भाषावाले भी सीख सकते हैं। जैसे हम-आप शेक्सपीयर के उपन्यासों को नहीं जानते हुए भी कम से कम टूटी-फूटी अंगरेजी तो बोल और समझ ही लेते हैं।
चिंता अब हिंदी को छोड़ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर है। बिहार, झारखंड, यूपी और एमपी में कई भाषाएं बोली और समझी जाती हैं। अब तक इन क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर कोई खास बहस नहीं हुई होगी। अब चिंता इस कारण बढ़ी है कि हमारी पीढ़ी के लोग बच्चों से अपनी भाषा में अपने ही परिवार में ही बात करने से कतराने लगे हैं। शायद उन्हें अपने बच्चों के इस कठिन दौर में पिछड़ जाने की चिंता है। कोई अंगरेजी में बात करता है, तो कोई खालिस हिंदी में। वैसे में इन क्षेत्रीय भाषाओं का क्या स्वरूप होगा, पता नहीं। आप आज-कल किसी भी मिडिल क्लास फैमिली में जाइये और उनसे उनकी मातृभाषा में बात करें, तो बच्चा शायद चुप्पी साध ले। क्योंकि मां-बाप उससे कभी अपनी मातृभाषा में बात ही नहीं करते।
बात करें थोड़ी संस्कृति की। तो संस्कृति के नाम पर सीरियलों में साल-बहू को गहरे मेकअप में करोड़ों का बिजनेस संभालते हुए बस साजिश ही करते दिखाया जा रहा है। साथ ही अपमानजनक शब्दों और तेवरों का प्रयोग कर बड़ों को संबोधित करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। आप-हम शायद सोचेंगे-कहीं किसी गली में शोर हुआ, तो हम क्या करें? पर सर, यह शोर तो साइलेंट मोड में दबा हुआ है। जिस दिन साइलेंट मोड वाला बटन हटेगा, सारी व्यवस्था ही ढह जायेगी।
अपने बच्चों को कम से कम अपनी भाषा की जानकारी तो दें ही। उन्हें भारतीय तौर तरीकों को आदर करना भी सीखाना होगा। वैसे भारतीय संस्कृति के नाम पर शायद चैनलवाले भी गंभीर हो गये हैं। तभी तो विशुद्ध भारतीय संस्कृति पर आधारित चैनल आने लगे हैं। लेकिन चीनी भी इतना शबॆत में न मिलाया जाये कि उसका स्वाद ही बिगड़ जाये। इसलिए संतुलन बनाते हुए धीरे-धीरे बढ़ना जरूरी है अपने बच्चों के साथ।
अब आपको अच्छा लगे या बुरा, पर सच यही है।
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