ज्ञानदत्त पाण्डेय सर कहते हैं-उस दिन शिवकुमार मिश्र ने यह बताया कि "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई" या "ऐ गनपत चल दारू ला” जैसी भाषा के गीत फिल्म में स्वीकार्य हो गये हैं तो मुझे बहुत विचित्र लगा। थाली की बजाय केले के पत्ते पर परोसा भोजन तो एक अलग प्रकार का सुकून देता है। पर कचरे के ढ़ेर से उठा कर खाना तो राक्षसी कृत्य लगता है। घोर तामसिक।
लेकिन एक बात है कि ये गीत हमारे समाज में क्यों स्वीकायॆ हो रहे हैं, क्या इसके बारे में हमने कभी सोचा?
जिस समाज में संस्कृत जैसी भाषा को बिसार दिया गया और हिंगलिश का प्रचलन बढ़ गया हो,वहां इस स्तर की भाषा का इस्तेमाल क्या नहीं होगा?
अब जरा किसी दोस्त यार से आप संवाद कर लें, तो शराब पीने के नाम पर वह जरूर कहेंगे- भाई एक पैग मार आता हूं या दारू बड़ी मस्त थी यार।
अब यहां आप फिर उलझन में होंगे कि यार ये दारू के साथ मस्त शब्द कहां से आ गया। अब मैं जब भोपाल के लोगों से बात करता हूं, तो वे अपने की जगह अपन का प्रयोग करते हैं।
बिहार में हम सब या यू कहें एक रुपया दे दो
की जगह एगो रुपया दे दो बोलते दिखाई पड़ेंगे।
भाषा की शुद्धता की अहमियत कहां रह गयी है।
जब आप पोते से बोलते होंगे-बेटा डोंट क्राय (मत रो), तो फिर पोता आगे चल कर
मैं क्राय (रोता) नहीं करता ही बोलेगा,
यह थोड़े ही बोलेगा कि मैं रोता नहीं हूं।
भाषा को छनने दीजिये। कम से कम हिन्दी को तो छनने ही दिया जाये। हो सकता है कि एक दिन अंगरेजी की ही तरह ब्रिटेन की हिन्दी, इंडियन हिन्दी, तमिल हिन्दी का अलग-अलग वरगीकरण करना पड़े। क्योंकि भाषा को जितना सवॆव्यापी और सहज बनने देंगे, उतना ही लोगों का इससे जुड़ाव रहेगा।
पुरानी पीढ़ी के लोगों को ये बात खटकती होगी, लेकिन जब बात तनाव घटाने की होती हो, तो ये कहना अच्छा लगता है
"ऐ गनपत चल दारू ला
गोली मार भेजे में भेजा शोर करता है...
अब इतना लिखने के बाद ये मत कहना- बेटा औकात में रहियो
हम तो कहेंगे-डोंट बी सिली यार, ऐता तो चलता है।
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