आज रविश जी की पोस्ट पढ़ी। इसमें दिनेश राय द्विवेदी जी ने अपनी टिप्पणी में दो शब्दों में सारी बातों को उतार दिया है। उन्होंने कहा-खंबे को खड़े होने के लिए एक गड्ढा चाहिए। खड़े होते ही वह भूल जाता है कि उस के पांव गड्ढे में ही दबे हुए हैं।
हम यहां बिहार-झारखंड में पॉश कॉलोनियों के नाम पर रांची के अशोक नगर और पटना की पाटलिपुत्र कॉलोनी के बारे में जानते थे। बड़े हुए, तो पता चला कि इनमें समाज के उस तबके के लोग रहते हैं, जिन्होंने प्रशासनिक मशीनरी को अपनी उंगलियों पर नचाया था। इस संदभॆ में इतनी बातें कही और सुनायी जाती हैं कि आप किताबें लिख डालें।
खैर, बात वो नहीं है, बात है हमारी अपनी मानसिकता की। हम आज तक खास कर बिहार में इन बातों से प्रभावित हैं। वैसे बिहार में रहनेवालों के मन में विरोधाभासी नजिरयां रखनेवाली मानसिकता कुछ ज्यादा ही है। इसलिए यहां प्रशासनिक पदों को लेकर एक खास तरह का आकषॆण है। ये आकषॆण इन कॉलोनियों में रहनेवाले उन लोगों को देखकर भी पैदा हुआ होगा, जो कभी भारतीय प्रशासनिक मशीनरी के अंग हुआ करते थे।
अब रविश जी की पोस्ट से ये भी पता चल गया कि दिल्ली में रहनेवाले लोग भी इसी मानसिकता के शिकार हैं। कोई इलाका रहन-सहन के हिसाब से ज्यादा बेहतर रहता है, तो इसके पीछे कारण प्रशासन द्वारा उस इलाके के प्रति खास नजरिया रखना भी होता है। इसे लेकर वहां के आसपास के लोगों में आत्ममुग्धता की स्थिति भी घर करती जाती है। हमारा नजरिया ये होना चाहिए कि कौन कहां रहता है, उससे अलग, हम जहां हैं, वहां कैसे चीजों को और बेहतर करें। वैसे आज कल ये खास संस्कृति पनप रही है कि लोगों को उनके पहनावे और रहने के स्थान से तौला जाता है, न कि उनके विचारों से। ये उभरते उपभोक्तावाद का वह विकृत चेहरा है, जिसकी चाह ने ऐसे विवाद पैदा कर दिये हैं, जिनका राज ठाकरे जैसे फायदा उठा रहे हैं। जरूरत इन खास टिप्पणियों या सलाहों को नजरअंदाज कर स्वस्थ मानसिकता को प्रश्रय देने की होनी चाहिए।
2 टिप्पणियां:
लोगों को उनके पहनावे से परखने की परम्परा तो काफी समय से चल रही है। यदि सभी कॉलोनियों को साफ सुथरा व सुविधासम्पन्न कर दिया जाए तो विशेष की विशेषता नहीं रह जाएगी।
घुघूती बासूती
आज गुण , ज्ञान और संस्कार से बडी चीज लोगों का रहन सहन और स्तर हो गयी है....... ऐसी स्थिति में सामान्य और विशेष का अंतर तो रहेगा ही।
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