हमारे एक पारिवारिक मित्र कुछ दिनों पहले गये थे हांगकांग। वहां के Giant Buddha/Po Lin Monastery, Hong Kong की कुछ खास तस्वीरें खींचकर भेजी हैं। जो यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
HAPPY NEW YEAR













ये देश आज घोर आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है। समय खुद के अंतरमन को खंगाल डालने का है। गलतियां कहां हुई। कहां चूक हूं। हम इस कंफ्यूजन के दौर में कैसे आये। ज्यादा क्या कहूं। बाबरी मसजिद मामले की जानकारी लेने के प्रयास में बीबीसी के पूवॆ दक्षिण एशिया संवाददाता माकॆ टूली की रिपोटॆ पर नजर पड़ी, जो कि घटना के प्रत्यक्ष गवाह थे। एक घटना जिसने भारतीय इतिहास को उस अंधेरी सुरंग की ओर मोड़ दिया, जहां से निकलने की छटपटाहट आज भी बरकरार है। इसे यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं।
This was the day the Bharatiya Janata Party (BJP) and other organisations supporting it were to begin work on building the temple, but they had given a commitment to the government and the courts that it would only be a symbolic start, a religious ceremony and no damage would be done to the mosque.
The police stood by and watched, while some men wearing saffron headbands and appointed by the organisers to control the crowd did try to stop them. 
महाराष्ट्र के गृह मंत्री हैं पाटिल साहब। याद कीजिये राहुल राज एपिसोड में उनका बयान-गोली का जवाब गोली। एक होम मिनिस्टर का बयान, जो कि एक महत्वपूणॆ राज्य का मंत्री है। ऐसा बयान जैसे कि उन्होंने किसी विदेशी आतंकवादी को मारा हो। राहुल राज विदेशी नहीं, बल्कि उन्ही के देश के एक राज्य का बाशिंदा था। फकॆ यही था कि वह भटका हुआ था। २९ नवंबर को फिर पाटिल साहब एक महागलती कर गये। कहा-२६ नवंबर की आतंकी घटना एक छोटा-मोटा हादसा है और ऐसा होता रहता है। फिर खुद बताया कि आतंकवादियों का मकसद पांच हजार लोगों को मारने का था। जीभ का फिसलना पाटिल साहब के लिए मानो सामान्य सी बात हो गयी है। आखिर इस तरह की गलती कैसे हो जा रही है। सोचने की बात है। भाई पाटिल साहब, बोलें, तो थोड़ा संभल कर, बोलें। वैसे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया जो छिछालेदार डायरेक्ट टेलीकास्ट कर रही है, वैसा तो हम नहीं कर रहे। लेकिन ऐसी गैर-जिम्मेदाराना बयानबाजी आखिर क्या संदेश दे रही है। आप ही बतायें...
आज जब सुबह-सुबह निकला, तो एक छोटे बच्चे को चाकलेट खाते और अपनी मस्ती में जाते हुए देखा। जेहन में इसी के साथ मासूम वाले जुगल हंसराज की याद आ गयी। जुगल हंसराज तो अब बड़े हो गये हैं। शायद हमारी उम्र के हैं। उस समय मेरी छोटी बहन लकड़ी की काठी-काठी पे घोड़ा गीत को सुनकर इतनी खुश होती थी कि हम भी उसके साथ इसे गाते रहते थे। सारे दुख भूलकर झूमते और मस्त रहते थे। मासूम के जुगल की मासूमियत ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि जुगल आज तक इतने बड़े हो जाने के बाद भी उसके साये से नहीं निकल पाये हैं। उस मासूम चेहरे ने न जाने कितने लोगों पर जादू कर दिया था। यही कारण है कि हम आज भी उसे बार-बार याद करते हैं। मासूम के गीत तुझसे नाराज नहीं है जिंदगी, सुनकर ऐसा लगता है, जैसे ये हमारी जिंदगी के गीत हों। नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी के अभिनय ने उसमें और चार चांद लगा दिया था। ममता, पिता का स्नेह और परिवार के लिए तरसते एक बच्चे के जज्बातों को इस फिल्म में जैसा पिरोया गया, उसे आप क्लासिक की श्रेणी में जरूर रखेंगे। आज भी कितने मासूम बच्चे परिवार का स्नेह पाने के लिए मचल रहे होंगे। मासूम मेरे बचपन की यादों की सुनहरी दास्तान है। शेखर कपूर ने ऐसी फिल्म बनाकर फिल्मी दुनिया को नयी सोच दी थी। उसके लिए शेखर जी को अभी भी बधाई देने का मन करता है।
रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं मन को राह दिखाती हैं। सोयी हुई आत्मा को जगाती है। इस अनोखी दुनिया में आज फिर उन्हीं कविताओं का सहारा दिखता है। जहां से घोर अंधेरे में एक उजियारा दिखता है।जयपुर, वाराणसी, मुंबई, दिल्ली में लगातार बम विस्फोट होते हैं। उसके बाद नेताओं का गैर-जिम्मेदाराना बयान, उनके क्रियाकलाप हमें अपने वैचारिक रूप से गरीब होने का और अहसास करा जाते हैं। इन सबके लिए काफी हद तक जिम्मेदार, दोषी हम भी हैं। टीवी में एक एडवरटाइजमेंट में युवक नेता से वोट मांगते वक्त उनकी क्वालिफिकेशन, इंटरेस्ट और टारगेट के बारे में पूछता है। मुद्दा हल्के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसके पीछे छिपी बात कितनी गहरी है कि इसके बारे में सोचिये। जब हम वोट मशीन में बटन दबाते हैं, तब क्या इस चीज के बारे में सोचते हैं। शायद नहीं, इसी कारण गरीब विचारवाले आज हमारे रहनुमा बन बैठे हैं। वे तय करते हैं कि हमारी केंद्रीय सरकार रहेगी या नहीं। जिस मुद्दे पर उन्हें संसद में बहस करनी है, उसके बारे में वे ए बी सी डी तक नहीं जानते हैं।
लीडरशिप कोई एक दिन में पैदा हुई चीज नहीं होती। यह तो उन अनुभवों से आता है, जब व्यक्ति स्ट्रगल के दौर से निकल कर एक मुकाम हासिल कर लेता है। यहां हमारे रहनुमा बिना किसी स्ट्रगल के विवाद के सहारे ऊंचाई छूने की कोशिश में है। विस्फोट के बाद एक खास संगठन को लेकर सबूत मिल जाने के बाद विवाद किया जा रहा है। माननीय गृह मंत्री का हर थोड़े अंतराल पर सूट बदलना भी चचाॆ में है। विचारों का अंत साफ दिख रहा है। जब विचार ही नहीं होंगे, तो क्या सिद्धांत और क्या राजनीति। सारा कुछ तो हाशिये पर है। अब देखना ये है कि समय की मार इस देश में कोई विवेकानंद या गांधी हमारे बीच खड़ा करती है या नहीं।